मीडिया, सत्ता और जन अपेक्षाएं

डॉ. धनाकर ठाकुर

मुजफ्फरपुर, जिसे मैं २.१०.२००४ को यहाँ पारित बारहवें अंतर्राष्ट्रीय मैथिली सम्मलेन के एक प्रस्ताव के अनुसार खुदीरामपुर कहना पसंद करता हूँ, के प्रेस क्लब में आज अल्पायु में ट्रेन दुर्घटना में दिवंगत विनय तरुण(20.8.1980-22.6.2010) की स्मृति में उसके मित्र अखलाख अवं अन्य के द्वारा आयोजित इस गोष्ठी में सभाध्यक्ष एवं वरिष्ठ वक्ताओं एवं सुधी श्रोताओं का अभिनन्दन करता हूँ.

“मीडिया, सत्ता और जनापेक्षाएं,” जैसे महत्वपूर्ण विषय पर आयोजित इस गोष्ठी में मुझे युवा पत्रकार विनय की याद आती है जो २८ -३० वर्ष की उम्र में ठीक अपनी मौत के डेढ़ वर्ष पूर्व ही मुझसे परिचित होकर मेरा भक्त हो गया था क्योंकि वह जानता था कि मिथिला के लिए मेरी लड़ाई सत्ता तक पहुँचाने की कोई सीढी नहीं होनेवाली थी, क्योंकि सत्ता का शॉर्टकट रास्ता पटना या दिल्ली के सत्ता शीर्षों पर अधिष्ठित अपने कुछ मित्रों से कुछ बार मिलकर मुझे मिल गया होता.

चूँकि मैं ऐसा नहीं था इसीलिए उसने मुझसे नजदीकी बढ़ाई क्योंकि वह ऐसा नहीं था जैसे कि आज कल अनेक पत्रकार हुआ करते हैं.

वैसे वह एक पत्रकार था छोटा या बड़ा पर था एक पत्रकार ही और मेरा पेशा भले एक निष्णात डाक्टर का हो मेरा उससे जिस सन्दर्भ में परिचय हुआ था उसमे एक पत्रकार की भूमिका मेरे मिथिला अभियान को जनता तक पहुँचाने की थी.

मुझे उसने उसी समय कहा था कि बिहार की सरकार हमारे आन्दोलन को सेंसर करना चाहती है (जस्टिस काटजू ने बहुत बाद में ऐसी बातें बताई थी) पर यदि हम सड़क पर उतर गए तो लोगों को लिखना ही होगा.

सत्ता और मीडिया का यह विद्रूप सम्बन्ध जो उसने रेखांकित किया था किसे को भी एक प्रजातान्त्रिक माहौल में सोचने को बाध्य कर देती है की क्या हम लोकतंत्र के चौथे पाए का गर्व जिस पर करते हैं वह एक दमघोटू कोठरी में बदल नहीं गयी है?

जहाँ विनय जैसे सहृदय नहीं उसके बॉस सरकारी अनुदाओं की तरह विज्ञापन जमा करने में माहिर, और किसी व्यक्ति या पार्टी विशेष के पक्ष वा विपक्ष में हवा बनाने में अपने कार्य का का मूल्य लाखों में वसूलते हैं?

जहाँ आदर्शों की बातें एक परिकथा लगती है?

हाल के अन्ना अन्दोलन में कुछ अखबारों ने काफी उछाला पर क्या वह केवल इसलिए था कि अखबार जनभावनाओं को समझता था वा उसे उचित मोड़ देना चाहता था?

इसमें कुछ सम्पादक समाजवादी विचारधारा के हैं और सरकार भी उनके मित्रों की है जो १९७४ के आन्दोलन में लगे थे, रमे थे और शायद उसी तरह का जन अभियान दोहराने को सोचते हों

उनका अन्नाग्रह तो अच्छा लगा पर क्या मैं एक काल्पनिक प्रश्न रखूँ कि यदि इस सरकार के विरुद्ध किसी भी मसले को लेकर सही में कोई छोटा या बड़ा आन्दोलन हुआ तो उसकी प्रतिध्वनि क्या इस तरह के अखबार के पन्ने गुंजित कर सकेंगे?

अभी जनता देखती है की मीडिया सत्ता के इर्द-गिर्द घुमती है जबकि जनता चाहती है कि वह सत्ता को इधर-उधर घुमावे, कभी इस पार्टी के पक्ष में तो कभी उस पार्टी के पक्ष में क्योंकि जनता है जो जानती है कि काजल के कोठेरी में बहुत दिनो तक एक को रखा तो उसका काला दिल ही नही मन भी काला हो जाएगा.

आज के वैश्विक भूमंडलीकरण के समय में यह अपेक्षा रखना कि सब कुछ ठीक ठाक होगा एक बेमानी बात है.

अब प्रेमचंद वामाखन लाल चतुर्वेदी के दिन नहीं हैं न ही शिवपूजन सहाय के आज तो रुप्रो मुड्रोक का ज़माना है.

मीडियाहाउसेज हैं बड़े-बड़े पूजीपतियों के जो इसे एक सेवा नहीं, जागरण का अग्रदूत नहीं बल्कि व्यवसाय का आधार मानते हैं.

पत्रकार भी सुविधायें चाहते हैं बड़े-बड़े शहरों में उनके आवास, बच्चों की शिक्षा की समस्या है तो छोते जगहों में पत्रकार यदि लोगों को ब्लेकमेल न करे तो पैसे जो उसे मिलते हैं उससे तो फैक्स भी नहीं हो सकत है – फ़िर भी बहुत पत्रकार ईमानदारी से अपना काम करते हैं पर उनकी संख्याप दिनानुदिन कम होती जा रही है

अखबार आज जिले के पम्पलेट हो गए हैं – प्रान्त में एक जगह हुई महत्वपूर्ण घटना नज़रअंदाज हो जाती है

जन अपेक्षा है कि मीडिया परिवर्तन का माध्यम बने केवल समाचार परोसनेवाला नहीं, मनोरंजन करनेवाला नहीं, हिंगलिश सीखनेवाला नहीं चाहे वह प्रिंट मीडिया हो या इलेक्ट्रोनिक उसे समाज के विविध घटकों के बीच समरसता उत्पन्न करनेवाला होना चाहिए न कि रंजिश और दंगे. उसे निष्पक्ष होना चाहिए न कि सत्ता के दलाल.उसे निर्माण की वाहिका बनाई चाहिए न कि विनाश का कारण.

यदि इसमें कुछ भी अपेक्षा अखबार पूरा कर सकेंगे तो ठीक अन्यथा वे सरकारी विज्ञप्तियों और मरने की खबर देनेवाली के रूप में जीवित भले रहें जीवंत नहीं रहेंगे और मैक्समूलर का कथन (जब अखबार अनियतकालीन छपते थे) कि ये अधिकांश गलत बातें फैलाते हैं, के रूप में आज के नेताओं के एक प्रतिरूप में अपनी प्रतिष्ठा खो देंगे.

2 COMMENTS

  1. मैथिली के एक स्थापित कवी जीवकांतजी ने हमारी एक साहित्यिक गोष्ठी में कहा था की यदि आपकी कविता को एक भी आदमी ने पढ़ा और उसे अच्छा लगा तो वह मेहनत सफल हुई.
    आपको अच्छी लगी इससे मुझे भी संतोष हुआ भाषण तो बहुओं ने सूना था हाल में वैसे वह इस परिपत्र से बहुत कुछ हंट कर था करीब ४० मिनट का -चूँकि उन्होंने लेख भी मांगा था मैंने सोचा आपलोगों के बीच भी यह परोसी जाये

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