डॉक्टरी के धंधे में क्रांति की जरुरत

courtडॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने डाॅक्टरी के धंधे पर जबर्दस्त प्रहार किया है। उसने अपने फैसले में कहा है कि यह पवित्र कार्य अब ‘धंधा’ बन गया है, जिसका लक्ष्य सिर्फ पैसा कमाना रह गया है। सारे देश में डाॅक्टरी का यह धंधा भारतीय मेडिकल कौंसिल की देख-रेख में चलता है। यह कौंसिल मेडिकल कालेजों को मान्यता देती है, डाॅक्टरी शिक्षा के मानदंड कायम करती है, डाॅक्टरों की डिग्रियां तय करती है और देश की चिकित्सा-व्यवस्था पर नियंत्रण रखती है। इस कौंसिल को 2010 में भंग करना पड़ा था, क्योंकि इसके अध्यक्ष महोदय रिश्वत लेते पकड़े गए थे। लेकिन पिछले पांच-छह वर्षों में भी इसके काम में कोई सुधार नहीं हुआ। एक संसदीय कमेटी ने जांच की। उसकी रपट में भी कौंसिल की कारस्तानियों की कड़ी भर्त्सना की गई थी। रपट मार्च 2016 में आई। उसके पहले 2014 में एक विशेषज्ञ समिति ने भी इस कौंसिल की काफी खिंचाई की थी लेकिन सरकार ने कोई ठोस-कार्रवाई नहीं की। मजबूर होकर सर्वोच्च न्यायालय ने इस मेडिकल कौंसिल को लगभग भंग कर दिया है। पूर्व मुख्य-न्यायाधीश आर.एम. लोढ़ा की अध्यक्षता में उसने एक कमेटी बना दी है, जो तब तक काम करती रहेगी, जब तक कि कोई नया मेडिकल आयोग नहीं बन जाता।

सर्वोच्च न्यायालय ने इस कौंसिल के अधिकार छीनने का जो फैसला दिया है, उसमें साफ-साफ कहा है कि भारत में मेडिकल की पढ़ाई का स्तर एकदम गिर गया है और यह कौंसिल भ्रष्टाचार का अड्डा बन गई है। देश में 400 मेडिकल काॅलेज हैं। उनमें से कितने ही ऐसे हैं, जिनमें से पढ़कर निकले हुए डाक्टर प्राथमिक चिकित्सा करने लायक भी नहीं होते। ऐसा इसीलिए होता है कि मेडिकल काॅलेजों में छात्र-छात्राओं की भर्ती का पैमाना एक-जैसा नहीं होता। हर काॅलेज और हर राज्य अपने-अपने ढंग से भर्ती-परीक्षाएं लेता है और अपनी सुविधा के मुताबिक प्रवेश दे देता है। इन भर्तियों में अब लाखों नहीं, करोड़ों रु. का लेन-देन होता है। छात्र की योग्यता गौण है, पैसा प्रधान है। जो छात्र डाॅक्टर बनने के लिए एक-दो करोड़ रु. ‘केपिटेशन’ के तौर पर देगा, वह डाॅक्टर बनने पर पहला काम क्या करेगा? वह मरीजों से पैसा वसूलेगा। डाॅक्टरी का धंधा फिर मूलतः सेवा का नहीं, वसूली का रह जाता है। हर डाॅक्टर अपनी डिग्री लेते वक्त यूनान के महान डाॅक्टर हिप्पोक्रेट्स की प्रतिज्ञा दोहराता है, जिसमें सेवा को सर्वोच्च कहा गया है लेकिन कर्ज के बोझ से दबा डाॅक्टर इस प्रतिज्ञा को कच्चा चबा डालता है। रोगी मर जाए, रोग लंबा खिंच जाए, रोगी दिवालिया हो जाए- इन सब बातों की परवाह डाॅक्टर को नहीं होती। वह मजबूर होता है, अपना कर्ज चुकाने के लिए। मेडिकल की खर्चीली पढ़ाई उसे मजबूर करती है, यह अमानवीय रवैया अपनाने के लिए! डॉक्टरी की पढ़ाई यदि सस्ती और स्वभाषा में हो तो देश के ग्रामीण, गरीब और वंचितों को भी डाक्टर बनने का मौका मिलेगा और डॉक्टरों की कमी भी खत्म हो जाएगी।

जिन छात्रों को ‘केपिटेशन फीस’ नहीं देनी पड़ती, जो अपनी योग्यता से भर्ती होते हैं, उनकी परेशानी भी कम नहीं है। उन्हें एम.बीबीएस की पढ़ाई के लिए 80 लाख से एक करोड़ रु. तक फीस देनी पड़ती है। क्या मध्यम वर्ग का कोई भारतीय अपने बेटे या बेटी की मेडिकल की पढ़ाई पर हर माह डेढ़-दो लाख रु. खर्च कर सकता है? जो योग्य और ईमानदार डाॅक्टर होते हैं, वे भी रोगियों को ठगने के लिए मजबूर हो जाते हैं। वे अपनी फीस दिखावटी तौर पर कम या ठीक-ठाक रखते हैं लेकिन वे दो लोगों से अपनी सांठ-गांठ बना लेते हैं। एक तो मेडिकल टेस्ट करनेवाली प्रयोगशालाओं से और दूसरे, दवा निर्माताओं कंपनियों से! पहले वे मरीजों को अनाप-शनाप टेस्ट लिख देते हैं। जांच के नाम पर मरीज़ों से सैकड़ों-हजारों रु. ठग लिये जाते हैं। उनमें से डाॅक्टर साहब का कमीशन उनके पास अपने आप पहुंच जाता है। फिर डाॅक्टर साहब मरीज़ के लिए दवाइयों पर दवाइयां पेल देते हैं। छोटे से मर्ज के लिए मंहगी से मंहगी दवाई! लंबे समय तक लेते रहने की हिदायत के साथ! दवा-कंपनी और दवा-विक्रेता की पौ-बारह होती रहती है। उनके यहां से भी कमीशन अपने आप चला आता है। भोले मरीजों को इस भूल-भुलैया का सुराग तक नहीं लग पाता। वे समझते हैं, डाक्टर साहब कितने अच्छे हैं! चाक-चौबस्त हैं। सारे टेस्ट करवा लिये। कोई कसर नहीं छोड़ी। यह ठीक है कि सभी डाॅक्टर ऐसे नहीं होते। भारत में बेहद काबिल और ईमानदार डाॅक्टर भी हैं लेकिन भारत ही नहीं, सारी दुनिया के डाॅक्टर-समुदाय का यही चरित्र बन गया है। पश्चिमी चिकित्सा याने एलोपेथी का यह अनिवार्य अंग बन गया है। इसीलिए भारत-जैसे देशों में आज भी 70-80 प्रतिशत लोग एलोपेथी का फायदा नहीं उठा पाते। उनकी हिम्मत नहीं होती कि बीमार पड़ने पर वे किसी आधुनिक अस्पताल या डाॅक्टर के पास चले जाएं। मेडिकल कौंसिल या अब जो नया आयोग बने, उसका पहला या दूसरा महत्वपूर्ण काम तो यही होना चाहिए कि वह डाॅक्टरों की फीस और दवाई के दाम बांधे। इस धंधे में जितनी खुली लूट-पाट है, किसी और धंधे में नहीं है, क्योंकि भगवान के बाद यदि कोई होता है तो वह डाॅक्टर ही होता है।

डाॅक्टरी की पढ़ाई में ‘केपिटेशन फीस’ को तो अदालत ने अपराध घोषित कर ही दिया है लेकिन खास पढ़ाई में भी बुनियादी सुधार की जरुरत है। अदालत ने यह भी ठीक किया कि सारे भारत में मेडिकल की भर्ती परीक्षा को एकरुप कर दिया। अब अलग-अलग काॅलेजों और राज्यों में न सिर्फ एकरुपता आ जाएगी बल्कि भ्रष्टाचार भी घटेगा। पैसे लेकर कोई कालेज सीटें बेच नहीं सकेगा लेकिन यह नई पद्धति तभी सफल होगी, जबकि प्रश्न-पत्रों की गोपनीयता बनी रहे और परीक्षा-पुस्तिकाओं की जांच में धांधली न हो। इन भर्ती-परीक्षाओं के अलावा अगली परीक्षाओं के लिए भी मानदंड एकरुप और अखिल भारतीय होने चाहिए ताकि एक राज्य के डाॅक्टर दूसरे राज्यों में भी सफलतापूर्वक काम कर सकें। यदि डाॅक्टरी की पढ़ाई स्वभाषाओं में हो तो छात्र फेल कम होंगे, जल्दी सीखेंगे, बेहतर सीखेंगे और मरीजों की सेवा अच्छी तरह करेंगे। डॉक्टर और मरीज़ के बीच फासला कम होगा। दुनिया के किसी भी बड़े देश में मैंने डाॅक्टरी की पढ़ाई विदेशी भाषा में होते हुए नहीं देखी। भारत में अंग्रेजी में डाॅक्टरी की पढ़ाई पर पूर्ण प्रतिबंध होना चाहिए। भारत में डाॅक्टरी जादू-टोना बन गई है। इसका श्रेय अंग्रेजी को ही है। हमारे डाक्टर अक्सर विदेश क्यों भाग जाते हैं? स्वभाषा इस पलायन को रोकेगी।

यदि देश के सभी सरकारी कर्मचारियों, जजों और जन-प्रतिनिधियों (पार्षदों से प्रधानमंत्री तक) के लिए सरकारी अस्पतालों में इलाज करवाना अनिवार्य हो जाए तो देश की चिकित्सा-व्यवस्था में गजब का सुधार हो जाएगा। डाॅक्टरी की पढ़ाई के साथ-साथ नर्सिंग और पेरा-मेडिकल की पढ़ाई पर भी जोर दिया जाए तो देश के ग्रामीणों, वंचितों, गरीबों तक चिकित्सा-सुविधाएं पहुंच सकेंगी। क्या नई मेडिकल कौसिल या नया मेडिकल आयोग ऐसा भी हो सकता है, जो एलोपेथी, आयुर्वेद, यूनानी और प्राकृतिक चिकित्साओं के बीच समन्वय कर सके? आज भारत के सवा अरब लोगों की चिकित्सा जरुरतों को तभी पूरा किया जा सकता है, जबकि सरकार कोई क्रांतिकारी कदम उठाने को तैयार हो।

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