चिकित्सा अब समाजसेवा नहीं रहा

अबु बुशरा कासमी 

कुछ दिन पहले उत्तरप्रदेश के बिजनौर स्थित कोतवाली थाना अंतर्गत भोगनवाला गांव के 25 वर्षीय शमशाद को उसके घर वाले इलाज के लिए जिला अस्पताल लेकर पहुंचे। मरीज के परिजनों के अनुसार इमरजेंसी वार्ड में मौजूद डॉक्टरों ने उसके फैफड़े में पानी होने की बात कहते हुए भर्ती करने से इंकार कर दिया। अस्पताल की गेट पर घंटो मरीज के परिजन डॉक्टरों से मिन्नत करते रहे मगर अस्पताल प्रशासन अपने रवैये पर अड़ा रहा। किसी तरह इस मामले की भनक मीडिया को लगी और जब वहां मीडिया का जमावड़ा होने लगा तो बदनामी के डर से अस्पताल प्रशासन ने उसे भर्ती कर लिया। इस घटना को आप क्या कहेंगे? मरीज से डॉक्टरों का प्रेम या फिर मीडिया का डर। राजस्थान में भी डॉक्टरों की हड़ताल और मरीजों को इससे होने वाली परेशानी किसी से छुपी नहीं है। राज्य सरकार द्वारा हड़ताली डॉक्टरों से बार-बार अपील के बावजूद उनका हड़ताल पर डटे रहना मरीजों के प्रति उनके गैर जिम्मेदाराना रवैये को दर्षाता है। इस हड़ताल के कारण करीब 60 मरीजों की मौत भी उनकी नाराजगी को खत्म नहीं कर पाई।

पैसे के लालच ने धरती पर भगवान का रूप कहे जाने वाले डॉक्टरों को अपने कर्तव्य से इस कदर विमुख कर दिया है कि अब उन्हें अपने पेशा से भी नाइंसाफी करने में कोई शर्म महसूस नहीं होती है और जब उनकी इस हरकत पर सरकार भी अपनी आंखें मूंद लेती है तो फिर कोलकाता के ए.एम.आर.आई अस्पताल जैसी दुर्घटना सामने आती है। ज्ञात हो कि षुरूआती जांच से यह बात सामने आई है कि अस्पताल में सभी दिशा निर्देशों को ताक पर रखते हुए कामकाज चलाया जा रहा था। अस्पताल की निचली मंजिल जिसे बनाया तो पार्किंग के लिए गया था परंतु उसका इस्तेमाल गोदाम के रूप में किया जा रहा था। जहां से आग शुरू हुई और देखते ही देखते समूची इमारत को अपनी चपेट में ले लिया। यहां आग से सुरक्षा के उपाए भी बहुत कमजोर थे यही कारण है कि शुरूआत से ही इसपर काबू पाने में विफलता रही और जबतक आग ने अपना विकराल रूप नहीं दिखाया तब तक अस्पताल प्रशासन ने अग्निशमन दल को सूचित करना आवश्‍यक नहीं समझा। अस्पताल में ऐसा कोई आपातकालीन द्वार भी नहीं था जहां गंभीर अवस्था में लाए गए मरीजों को बाहर निकाला जा सके। इस हादसे में करीब 100 से ज्यादा लोगों की मौत हुई जिनमें अधिकतर इलाज कराने आए मरीज थे। माना जाता है कि अस्पताल के अंदर होने वाली दुर्घटनाओं में यह अब तक की सबसे बड़ी दुर्घटना में एक थी।

सवाल यह उठता है कि इतनी बड़ी दुर्घटना का जिम्मेदार कौन है? जब अस्पताल जरूरी दिशा निर्देश को पूरा नहीं कर रहा था तो उसे चलाने की अनुमति किसके द्वारा दी जा रही थी? क्या दुर्घटना के बाद मुआवजा देना भर ही हमारे उत्तरदायित्व की पूर्ती मात्र है? आए दिन समाचारपत्रों में अस्पतालों में होने वाली लापरवाही की खबरें पढ़ने को मिलती रहती हैं। सरकारी अस्पतालों की हालत किसी से छुपी नहीं है। साफ सफाई की बजाए यहां इतनी गंदगी होती है कि मामूली बुखार का इलाज कराने आए मरीज को भी डेंगु और मलेरिया जैसी खतरनाक बिमारी हो जाए। अब तो यहां गरीब मरीज भी इलाज करवाने से कतराता है। इन अस्पतालों में डॉक्टरों का कभी भी समय पर नहीं आना और मरीज देखने के समय प्राइवेट अस्पतालों में डयूटी निभाना एक आम रिवाज बनता जा रहा है और यदि इन सबसे भी दिल नहीं भरता है तो मामूली सा बहाना बनाकर हड़ताल पर चले जाते हैं। दूसरी तरफ लैब में नियुक्त कर्मचारी की जगह अस्पताल का सफाई कर्मचारी खून टेस्ट करता मिल जाएगा।

सबसे ज्यादा चिंताजनक हालत उन मरीजों की होती है जिनका इलाज ईएसआई के माध्यम से होता है। सरकार हर महीने एक निर्धारित राशि उनके आय से काटती है। पहले यह योजना उन कर्मचारियों पर लागू थी जिनकी मासिक आय दस हजार रूपए से भी कम थी। बाद में इसे विस्तारित करते हुए पंद्रह हजार रूपए मासिक आय तक के कर्मचारियों को भी इसके दायरे में लाया गया है। इसके पीछे यह तर्क दिया जाता है कि सरकार इसके माध्यम से बदले में उन्हें स्वास्थ्य सुरक्षा प्रदान करती है। परंतु ध्यान योग्य बात यह है कि सरकार ने ईएसआई का दायरा तो जरूर बढ़ा दिया लेकिन अस्पतालों की संख्या वही सीमित रही। परिणामस्वरूप इन अस्पतालों में मरीजों की लंबी कतारें लगी रहती हैं। कार्य निपटान को बेहतर बनाने के लिए सरकार द्वारा सभी अस्पतालों को कंप्यूटर से जोड़ तो जरूर दिया गया परंतु इसे चलाने वालों के प्रषिक्षण का कोई इंतजाम नहीं किया गया। जिसके चलते काम जल्दी होने की बजाए और अधिक देरी से निपटाए जाते हैं।

एक छोटे से टेस्ट करवाने और फिर उसकी रिपोर्ट के लिए मरीजों को कई सप्ताह इंतजार करना पड़ता है। प्राइवेट लैब वालों से सांठगांठ कर अधिकतर टेस्ट किसी न किसी बहाने से उनके पास भेज दिए जाते हैं। और तो और ऐसे अस्पतालों का अदना कर्मचारी भी अक्सर किसी बड़े साहब की तरह मरीजों से व्यवहार करता नजर आ जाएगा। इन सब समस्याओं से तंग आकर जब मरीज निजी अस्पताल का रूख करता है तो वहां इलाज की मंहगी सूची देखकर स्वंय को गरीब अथवा मध्यमवर्गी होने पर कोसता रहता है। ऐसी परिस्थितियों में कि जब मुहाफिज़ भी वही, कातिल भी वही और मसीहा भी वही हो तो हम उस शायर के शब्दों में सिर्फ यही कह सकते हैं कि ‘ऐ मरीज़ तेरी तक्दीर पर रोना आया’। (चरखा फीचर्स)

2 COMMENTS

  1. बात शिक्षा नीति की है — य़े इतनी मँहगी है कि डाक्टर बनने में ही बडी रकम, और जब सेवा तो भगवान, व्यापार बन जाय तो इन्सानियत भी व्यापार बन जाता है- पुराने जमाने में सेवा होती थी — अब सही सेवा मिल जाय तो एहसान एहसास होती है रूपये देने के बाद भी।

  2. जब नेताओं,मिलिटरी व् जद्जों के भत्ते व् पैसे बढ़ने ही बात आती है एक मिनट भी नहीं लगता डॉक्टर जो दिन रात वास्तव में जाग कर मेहनत करके महंगाई से लड़ने को तनखा बढ़ाने को कहता है तो जेल…क्या मीडिया व् नयाय प्रणाली पूरी पाक साफ़ व् पवित्र है नेता इनसे डरते हैं सो ये संरक्षण पाती व् भाव खाती हैं ….चुनोती है आपको तीन दिन किसी प्राइवेट डॉक्टर के केवल साथ ही रहना कुत्छ करना मत बस जब वो सोये तो सोना जब वो खाए तो खाना फिर भी स्वस्थ रह सके तो तब से सब लफ्फाजी लिखना डॉक्टर कितने तनाव व् कठिनाई में जीता है किसी डॉक्टर से जानने की कोशिश करना खास कर अगर वो आपका सम्बन्धी हो तो …बहार ले बात बनाना आसान ही होता है…कभी डॉक्टर ने जब जान पर बचाई हैं तब कलम में स्याही नहीं रहती क्या ….इस्वर न करे जब बीमार होकर डॉक्टर का करिश्मा देखो गे तब जानोगे डॉक्टर क्या होता है …सब को एक ही नाप से न नापो…

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