मध्ययुगीय सोच और आज के सेकुलरवादी फतवे

हरिकृष्ण निगम

महिलाओं का चुनाव लड़ना धर्म विरूध्द है। महिलाओं का अर्थोपार्जन हराम है। बीमा करना या कराना आस्था के विरूध्द है। टेनिस खिलाड़ी सानिया मिर्ज़ा का स्कर्ट पहनकर खेलना धर्म में प्रतिबंधित है। ‘वन्दे मातरम्’ गाना इस्लाम विरोधी है। लड़के-लड़कियों का कक्षा में एक साथ पढ़ना धर्म विरोधी है, क्योंकि यह बुराईयों की जड़ है। शबाना आज़मी का दीपा मेहता की फिल्म ‘वॉटर’ में फिल्मांकन के दौरान सिर मुंड़ाना इस्लामी आस्था का घोर अतिक्रमण था। इसके पहले अप्रैल 2010 के एक समाचार के अनुसार दारूल-उलूम के फतवा विभाग के मुफ्तियों ने एक प्रश्न के उत्तर में घोषित किया था कि मुस्लिम महिलाओं का बिना पर्दे में सरकारी और प्राइवेट संस्थानों में पुरूषों के साथ काम करना और उनसे बातें करना नाजायज़ है। कुछ दिनों पहले देवबंद के दारूल-उलूम ने शादी करने के मन्तव्य से इस्लाम धर्म को अपनाने को शरीयत के विरूध्द बताया था। दूसरी ओर एक दूसरे प्रकरण में यह विचार प्रकट किया गया कि यदि कोई मुस्लिम व्यक्ति दूसरे धर्म की महिलाएं उसका धर्मान्तरण कराए बगैर शादी करे तो इसे मान्य नहीं किया जाएगा। क्योंकि ऐसा निकाह पवित्र ग्रंथ की शिक्षाओं के विपरीत होगा।

इतना ही नहीं हाल ही में एक लेखक ने ‘टाइम्स ऑफ इण्डिया’ में ‘दि फतवा फैक्ट्री’ शीर्षक आलेख में यह भी लिखा कि पैगम्बर के जन्मदिन पर अनुयायिओं द्वारा मस्जिदों और सूफी संतों की मज़ारों पर बड़े स्तर पर ईद-ए-मिलाद के बड़े जुलूसों व उत्सवों पर भी देवबंद के दारूल- उलूम को आपत्ति है और वह इसे शरियत विरोधी तथा पश्चिमी संस्कृति की नकल मानता है। उन्होंने देवबंद के वाइस चांसलर मौलाना अबुल कलाम नौमानी के प्रतिबंध की घोषणा का उदाहरण दिया।

भारत की अपनी सीमा के उस पार पाकिस्तान में जारी किए गए फतवों का विषय तो अकल्पनीय लगता है। पर क्योंकि वह अन्यत्र उनके सहधर्मियों की मानसिकता को भी प्रभावित कर सकता है। कभी भारत में बने पारिवारिक सीरियलों या फिल्मों को धर्म विरोधी घोषित किया जाता है। कभी किसी इलेक्ट्रॉनिक उपकरण को। हाल में तो पाकिस्तान टेलीकॉम अथॉरिटी ने एसएमएस में प्रयुक्त किए जान वाले कुछ शब्दों पर ही सरकारी परिपत्रों में प्रतिबंधित घोषित कर दिया। यह प्रतिबंध वहां के नियामक प्राधिकरण में इस्लाम की रक्षार्थ लगाया है। जिन शब्दों को प्रतिबंधित किया गया था उसमें एक शब्द जीसस क्राइस्ट भी था पर अब समाचार आया है कि प्राधिकरण इससे उठे धार्मिक विवाद के कारण इसकी समीक्षा कर सकता है।

यह जानते हुए भी कि फतवों की राजनीति आस्था के अपरिवर्तनीय रूप को रेखांकित करती है। हमारे देश में इस पर कोई भी टिप्पणी करने से क्यों कतराया जाता है। ऐसी विचारधारा जो सारे समूह को क्या वर्जित है निर्देश देती है, क्या आतंकवाद का रुप नहीं है? दया तो वस्तुतः आधुनिक तार्किक विचारधाराओं से लैस इस देश के बुध्दिजीविओं पर आती हैं क्योंकि जहां वे अपने सेकुलरवादी फतवे गढ़ने में माहिर दिखते है, दूसरी आस्थाओं पर मौन रहने का ही विकल्प चुनते हैं।

क्या उपर्युक्त कुछ उदाहरण आधुनिकता और मध्ययुगीन सोच के बीच टकराव नहीं प्रदर्शित करते हैं? क्या यह आधुनिक भारत की एक संशयपूर्ण अनपेक्षित तस्वीर नहीं है। क्या हमारे कथित वामपंथी और उदारवादी बुध्दिजीवी जो हर सामाजिक मुद्दे पर टिप्पणी किए बिना नहीं रह सकते हैं ऐसे बेतुके और विरोधाभासी रुझानों पर अपनी कलम क्यों नहीं चलाते हैं। दूसरी ओर, यदि अन्ना हज़ारे जैसे गांधीवादी समाजकर्मी यदि अपने गांव रालेगढ़ सिध्दि में कहते हैं कि शराबियों को कोड़े लगाने चाहिए तो हमारे अंग्रेज़ी समाचार-पत्रों में उनकी ”तालिबानी नैतिकता” या ”मध्ययुगीन नैतिक पुलिससैनी” के बारे में भर्त्सनापूर्ण शीर्षकों के साथ संपादकीय तक लिखे जाते हैं। यह हाल का मात्र एक उदाहरण हैं। इसी तरह योग गुरू बाबा रामदेव के अनेक सामाजिक विचारों का माखौल उड़ाया जाता है। सार्वजनिक जीवन में लोकतांत्रिक उत्तरदायित्व पर आंसू बहाने वाले और राष्ट्रपति महात्मा गांधी की वह टिप्पणी कि यदि वे देश के तानाशाह होते तो ताड़ी के सारे पेड़ों को कटवा देते, इसका संदर्भ समझते हुए भी यदि वे अन्ना की भावना को तालिबानी कहते हैं तो यह देश का दुर्भाग्य है। दूसरी आतिरेकी समाज विरोधी टिप्पणियों में उन्हें कोई दुर्भावना, दुष्प्रचार व तानाशाही नहीं दिखती है। मानवाधिकार के नाम पर आज फतवे जारी करने की धारणा ने हास्यास्पद स्तर धारण कर लिया है। हाल में दिल्ली की एक चर्चित समाजकर्मी और लेखक मधु किश्वर जो राजधानी की ही सेन्टर फॉर दि डेवलेपिंग सोसाइटीज़ से व्याख्याता के रूप में जुड़ी है। ‘आन सेक्युलर फतवाज़’ शीर्षक से एक अग्रलेख टाइम्स ऑफ इण्डिया मे लिखा था। उन्होंने मल्लिका सारा भाई, मेधा पाटेकर और तीस्ता सीतलवाड़ आदि के जारी फतवों की समीक्षा की। उनके फतवों में गुजरात मे ग्रामीण विकास के संदर्भ मेग नरेन्द्र मोदी की प्रशंसा वर्जित है, एक अपराध है। अमेरिकी मीडिया में गुजरात में उनका वर्षों तक लगातार चुनाव जीतना या उनके उज्जवल भविष्य के आंकलन का उल्लेख भी उनके फतवों का हिस्सा है। बहुसंख्यकों के दक्षिणपंथी संगठन अस्पृश्य हैं। उनसे जुड़ना भी अपराध हैं। आतंकवादियों के मौलिक और संवैधानिक अधिकारों की रक्षा अनिवार्य है चाहे वे संविधान या सरकार पर थूक कर निर्बोधों की नृशंस हत्यारी न कर दे, संसद पर गोलियों की बौछार ही क्यों न करें आतंकवादियों के आश्रितों, परिजनों या बच्चों आदि की पीड़ा और व्यापार ‘सब स्टोरीज़’ लिखना अंग्रेज़ी मीडिया के एक बड़े वर्ग का धर्म है। आतंकवाद के शिकार या उनके उजड़े परिवारों की बात भी अप्रासंगिक है, वे तो सिर्फ एक संख्या और आंकड़े मात्र है, जिनको याद करना भी तभी उचित है, यदि उसमें कोई विदेशी या बहुसरकारों के अतिरिक्त इतर आस्था का हो। इस कड़वे सच को हमें स्वीकार करने में हमारी अपराध बोध और हीनता ग्रंथि हमारे सामने आती है। सेक्युलर मूक-बधिरों को बहुत सी वे चीज़े नहीं दिखती हैं, जो सारी दुनियां स्पष्ट देखती है।

लेखक अन्तर्राष्ट्रीय मामलों के विशेषज्ञ हैं। 

3 COMMENTS

  1. आप का लेख किसी एक मजहब के दकियानुशी विचारों और कुछ स्वघोषित वुद्धिजीवियों के विचारों के दोगलापन का पर्दाफ़ाश अवश्य करता है,पर उन फतओं को सेक्युलरिटी का जमा पहनाने से ऐसा लगता हैकि आप भी पूर्वाग्रह के शिकार हैं.यह उन सेक्युलारिस्तों के लिए गाली है,जो वास्तव में इस धार्मिक पाखंड वाले सीमा रेखा से बाहर हैं.सबाना आजमी ने जब सर मुडाया था या सानिया मिर्जा जब स्कर्ट में टेनिस खेलने के लिए लिए उतरी थी तो वे दोनों जो धर्म निभा रही थी वह इन दकियानुसी विचारों से अलग था.मेरे कहने का तात्पर्य यह हैकि जो गलत है उसे गलत कहने में कोई दोष नहीं है,पर उस कथन की गरिमा भी कम हो जाती है जब उनको इस तरह के शीर्षकों में बांधा जाता है.
    एक सज्जन जातिवाद के बहुत खिलाफ थे.आलम यह था कि उनके जाति का कोई व्यक्ति प्रकट रूप से उनसे मिल भी नहीं सकता था.मेरे विचार से वे भी जाति वाद से पूर्ण रूप से जकड़े हुए थे.आज के जमाने के उन सब लोगों को जो सेक्यूलरिस्ट कहलाने के लिए अपने धर्म की निंदा करना आवश्यक समझते हैं,मैं सबसे बड़ा सांप्रदायिक मानता हूँ.हाँ इसका मतलब यह भी नहीं कि जो हिन्दू अपनेधर्म की बुराइयों को सामने लाये या दूसरे धर्म या मजहब की अच्छाइयों को सामने लाये उसे हिन्दू धर्म का शत्रु ही समझ लिया जाये हिन्दी पत्रिका सरिता के सम्पादक स्वर्गीय विश्वनाथ से किसीने पूछा था किआप हिन्दू धर्म की इतनी बुराई क्यों करते हैं ,किसी दूसरे धर्म या मजहब का क्यों नहीं .उनका उत्तर थाकि वे हिन्दू धर्म की बुराई नहीं करते,बल्कि उसमे घुसी हुई कुरीतियों की आलोचना करते हैं. उन्होंने आगे कहाथा कि एक हिन्दू होने के नाते मेरा पहला कर्तव्य यह है किअपने धर्म को सुधारने का प्रयत्न करूँ

  2. दूरअंदेश और समझदार लोग जानते हैं कि आज तक ना तो इस्लाम जैसे किसी धर्म में कोई संशोधन हुआ और ना ही होगा लेकिन इसके बरअक्स आज आप गौर से देखें तो आपको मुसलमानों में भी ऐसे लोगों की तादाद तेज़ी से बढ़ती दिखाई देगी जो आधुनिक तौर तरीके़ ठीक उसी तरह से अपना रहे हैं जिस तरह से गैर मुस्लिम लोग अपना रहे हैं। उनका अंदरूनी तौर पर मानना दरअसल यही है कि 1400 साल पुराने नियम कानूनों पर चलकर आज जिंदगी नहीं गुज़ारी जा सकती। रोचक बात यह है कि ये लोग पूरी तरह आधुनिक और प्रगतिशील सोच से जुड़ चुके हैं और उनका यक़ीन भी यही है कि वे जिस रास्ते पर चल रहे हैं वही ठीक है लेकिन उनके अंदर इतना साहस और नैतिकता हमारी तरह नहीं है कि वे इस सत्य और तथ्य को लोगों के सामने स्वीकार कर सकें।

    हमारा दावा है कि आदमी जो कुछ कहता है वह वो नहीं होता बल्कि वह जो कुछ करता है वह वो होता है। आज आप सर्वे करा सकते हैं कि कितने लोग मज़हबी दिखावा करने के बावजूद उसकी सभी हिदायतों पर सख़्ती से अमल कर रहे हैं और कितने आगे बढ़ने के लिये वो सब कुछ कर रहे हैं जो उनका मक़सद हल करता है। फ़तवे का डर हो तो समझदार को इशारा ही काफी होता है।

    उसके होंटों की तरफ़ ना देख वो क्या कहता है,

    उसके क़दमों की तरफ़ देख वो किधर जाता है।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here