मेरठ, महर्षि दयानंद और मोदी

modi new
मेरठ का भारत के इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान रहा है। यह क्षेत्र कुरूवंशी राजधानी हस्तिनापुर से ध्वंसावशेषों के पास ही बसा है। महाभारत की साक्षी है कि जब अर्जुन और कृष्णजी ने खाण्डव वन का दहन किया तो उन्होंने मय नामक शिल्पकार से मित्रता कर युधिष्ठिर के राजभवनों का इंद्रप्रस्थ में निर्माण कराया। जिनके अवशेष दिल्ली के पुराने किलों में आज तक पड़े हैं। उसी समय नामक शिल्पी को पुरस्कृत करते हुए राजा युधिष्ठिर ने उसके नाम से मय राष्ट्र नामक नगर बसाया। यही मयराष्ट्र आज हमारे सामने मेरठ के नाम से सीना ताने खड़ा है।
1191 ई. में इसे पहली बार मौहम्मद गौरी के सेनापति कुतुबुद्दीन ऐबक ने जीता और कहा जाता है कि उसने यहां की सल्तनत अपने विश्वासपात्र एक सरदार को सौंप दी। जिस समय दिल्ली पर तोमर वंश का शासन था लगभग उसी का समकालीन राजा हरदत्त था, जिसने हापुड़ (हरिपुर) की स्थापना की थी और उसे अपनी राजधानी बनाया था। इसी हरदत्त ने अपने शासनकाल में मेरठ पर भी चढ़ाई की और उसे अपने राज्य में मिलाकर वहां एक किले का निर्माण भी कराया था। यूं तो महमूद गजनवी ने भी 1019 ई. में इस शहर पर चढ़ाई की थी, परंतु वह यहां अपनी हुकूमत स्थापित नहीं कर पाया। यहां मुस्लिम शासकों द्वारा निर्मित कई इमारतें हैं, जो बताती हैं कि मुस्लिम हुकूमतों ने इस शहर पर देर तक शासन किया। यह सौभाग्य केवल मेरठ के माथे पर ही शोभता है कि इस शहर ने निरंतर कई शताब्दियों तक विदेशी शासकों से शासित रहकर भी अपनी ‘भारतीय आत्मा’ की चेतना को सदा ही चेतनित रखा और जब 1857 का वर्ष आया तो महाभारत कालीन इस गौरवपूर्ण नगरी पर कृष्ण के ‘पांचजन्य’ और ‘अर्जुन के गांडीव’ की टंकार गूंज उठी। समर यहीं सजा और आततायियों एवं विधर्मियों को मार भगाने के शिवसंकल्प से संकल्पित राष्ट्र ने क्रांतिकारी अंगड़ाई ली। हां, इस बार राष्ट्र को ‘परित्राणाय साधूनाम् विनाशाय च दुष्कृताम्’ का उपदेश देने वाले महर्षि दयानंद थे और उस वैदिक ज्ञान के ‘शस्त्रमेव जयते’ के सुदर्शन चक्रधारी के ‘कृण्वन्तो विश्वमाय्र्यम्’ का उपदेश सुनने वाला गांडीवधारी अर्जुन था -कोतवाल धनसिंह। यह इतिहास की विडंबना है कि कोतवाल धनसिंह का वह आज तक महिमामंडन नहीं कर  सका है, अन्यथा उसका बलिदान वह बलिदान था जिसने हमें सोते से जगाया और हमने जागते ही अपनी हजारों वर्ष पुरानी बलिदानी परंपरा का ऐसा साज सजाया कि फिरंगियों को एक दिन भागना ही पड़ा। भारत ने ‘सत्यमेव जयते’ तो कहा है और उसकी साधना भी की है, परंतु इसे हमने अपने लिए आध्यात्मिक क्षेत्र की उपलब्धियों तथा उस क्षेत्र की मान्यताओं तक ही सीमित रखा है। सत्य की रक्षा के लिए शस्त्र की आवश्यकता होती है। इसलिए हमने ‘सत्यमेव जयते’ को सदा ‘शस्त्रमेव जयते’ से ही सिद्ध किया है। सत्य हमारी आध्यात्मिक परंपरा है तो शस्त्र उसकी रक्षक परंपरा है। महाभारत में कृष्ण सत्य के रूप में खड़े थे तो अर्जुन शस्त्र के रूप में खड़े थे। सत्य को हथियार नहीं उठाना था, इसलिए नहीं उठाया, परंतु तब नहीं उठाया जब ये पता था कि गांडीवधारी अर्जुन उसके साथ है। बस, यही बात 1857 के लिए कही जा सकती है। महर्षि दयानंद ने ‘सत्य’ का कार्य किया तो कोतवाल धनसिंह ने शस्त्र का कार्य किया। पर किसी ने दयानंद की इस गीता को लिपिबद्ध नहीं किया। जिस गीत ने बाद में जाकर ‘वंदेमातरम्’, ‘विजयी विश्व तिरंगा प्यारा’, और ‘सारे जहां से अच्छा’ जैसे रोमांच पैदा करने वाले गीतों के लिए पृष्ठभूमि तैयार की, उसे 1857 में पहले यहीं गाया गया था, और उसके बोल थे-
हम हैं इसके मालिक यह हिंदोस्तान हमारा।
पाक वतन है कौम का, जन्नत से भी प्यारा।।
यह है हमारी मिल्कियत हिंदुस्तान हमारा।
इसकी रूहानियत से रोशन है जग सारा।।
कितनी कदीम कितना नईम सब दुनिया से न्यारा।
करती है जर्खोज जिसे गंगो जमन की धारा।।
ऊपर बर्फीला पर्वत है पहरेदार हमारा।
नीचे साहिल पर बजता सागर का नक्कारा।।
इसकी खानें उगल रही हैं सोना हीरा पारा।
इसकी शानोशौकत का दुनिया में जयकारा।।
आया फिरंगी दूर से ऐसा मंतर मारा।
लूटा दोनों हाथों से प्यारा वतन हमारा।।
आज शहीदों ने तुमको ए अहले वतन पुकारा।
तोड़ गुलामी की जंजीरें बरसाओ अंगारा।।
हिंदू मुस्लिम सिख हमारा भाई प्यारा-प्यारा।
यह है आजादी का झण्डा इसे सलाम हमारा।।
1857 की क्रांति का गीत (गीता) था ये।
1857 में स्वाधीनता आंदोलन के समय स्वामी दयानंद ने मेरठ प्रवास किया था। अपनी पुस्तक ‘स्वाधीनता आंदोलन और मेरठ’ के लेखक आचार्य दीपंकर हमें बताते हैं कि मेरठ में स्वामी जी ने करीब 150 साधुओं की ऐसी टोलियां संगठित कीं जो गांव गांव और शहरों में गली मोहल्लों में घूम-घूमकर धर्म का उपदेश करते थे एवं धर्मद्रोही के कुकृत्यों के विरूद्ध जनता में आक्रोश उत्पन्न करते थे, 1857 की क्रांति के उपरांत जब उन्होंने राष्ट्र निर्माण के लिए आर्य समाज की स्थापना की थी, उसकी पूर्वकल्पना उन्होंने मेरठ में रहते समय 1859-60 में जब वे स्वामी बिरजानंद जी के पास मथुरा पहुंचे उस समय उनके विचारों में चमत्कार पूर्ण परिपक्वता और निखार देखने को मिलता है।”
1857 की क्रांति के समय वह औघड़ नाथ (33 वर्षीय) बाबा के नाम से क्रांतिकारियों के मध्य प्रसिद्ध थे। क्रांति के प्रचार-प्रसार के लिए उस समय रोटी और कमल को प्रतीक चिन्ह माना गया था। आज भाजपा के पी.एम. पद के प्रत्याशी नरेन्द्र मोदी ने 2 फरवरी को स्वामी श्रद्घानंद (महर्षि दयानंद जी परम शिष्य) के जन्मदिवस के अवसर पर मेरठ की पुण्यभूमि से क्रांति रैली का आयोजन किया और उस पर उन्हेांने महर्षि दयानंद को जिस प्रकार अपनी भावांजलि अर्पित की उसे सुनकर प्रत्येक देशभक्त का सीना चौड़ गया। महर्षि दयानंद समग्र क्रांति के अग्रदूत थे। श्यामजी कृष्ण वर्मा यद्यपि मार्क्सवादी थे तो भी वे महर्षि के ‘स्वराज्य चिंतन’ से बहुत प्रभावित थे और उन्होंने ही महर्षि के स्वराज्य चिंतन को हमारे क्रांतिकारियों के अंतर्मन में उतारकर उसे ‘वंदेमातरम्’ का समानार्थक बना दिया।
नरेन्द्र मोदी ने जिस प्रकार कांग्रेस से बातों बातों में ही सरदार पटेल को छीन लिया और कांग्रेस कुछ भी नहीं कर पायी (क्योंकि वह स्वयं सरदार पटेल की उपेक्षा करने के ‘पापबोध’ से ग्रस्त थी) उसी प्रकार उन्होंने महर्षि दयानंद को अपनी झोली में ले लिया है। महर्षि दयानंद जैसे क्रांतिकारी महापुरूषों पर बोलने में कांग्रेस को सदा लज्जा आती रही। वह अपनी ‘सैकुलर इमेज’ को बचाने के लिए क्रांतिकारी महापुरूषों की परछाईं तक से भी बचकर निकलती रही। नरेन्द्र मोदी आज बस इतना ही कर रहे हैं कि भारत के राजनीतिक सामाजिक और धार्मिक क्षेत्र की कई नामचीन विभूतियों की स्मृतियों की मूर्तियां गढ़ रहे हैं और उन पर अपने श्रद्धा सुमन अर्पित कर रहे हैं। इतना करने से ही मानो उन्होंने प्यासी धरती के लिए गंगा ही बहा दी है। देश के युवा वर्ग को उनका ये राष्ट्रवादी चिंतन बेहद पसंद आ रहा है, इसलिए जितना ही वह किसी महान विभूति को अपने संस्मरणों में, भाषणों में या व्याख्यानों में लाते हैं तो देश का युवा वर्ग बल्लियों उछलने लगता है। मेरठ में मोदी ने महर्षि दयानंद को स्मरण कर राष्ट्रभक्तों को नई प्रेरणा दी है। वास्तव में मोदी का भारतीय राजनीति में ये नया प्रयोग है। अब तक हमारे राजनीतिज्ञ अपनी अपनी विचारधाराओं को तथा अपने अपने किन्हीं आदर्श समकालीन पुरूषों को ही अपने भाषणों में स्थान देते रहे हैं, और देश की जनता का मूर्ख बनाते रहे हैं, परंतु मोदी 1947 से पूर्व जाकर इतिहास के पन्नों को उघाड़कर उनका सामंजस्य वर्तमान के साथ बैठा रहे हैं। इससे देश में नया उत्साह पैदा हो रहा है और राजनीति में कहीं लोहिया कहीं नेहरू, कहीं गांधी, कहीं मार्क्स तो कहीं ऐसे ही किसी राजनीतिक आदर्श को अपना आधार बनाकर चलने वालों को पीछे देखने के लिए विवश होना पड़ रहा है। हम किसी महापुरूष के अच्छे कार्यों की उपेक्षा या अवहेलना नहीं कर रहे हैं, बल्कि हम तो केवल ये बताना चाहते हैं कि भारत एक प्राचीन राष्ट्र है और इसके शिल्पकारों को खोजने के लिए इतिहास का गंभीर चिंतन किया जाना आवश्यक है। निस्संदेह महर्षि दयानंद भारत के कुशल शिल्पकार हैं। मेरठ ने मोदी का साथ देने का संकल्प ले लिया है, क्योंकि मेरठ की भूमि उन छली-छद्मी जयचंदों के घावों से लहूलुहान है जिन्होंने यहां के लोगों को कई बार साम्प्रदायिकता की भट्टी में झोंकने का पाप किया है। यह पावन भूमि अब इन  पापों से मुक्त होना चाहती है। मुजफ्फरनगर के दंगों को लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता के नाम पर कराया गया और उनके हाथ किसी पाक दामन पर पोंछकर उसे कलंकित करने का अपराध किया गया। यह अपराध गाय की चर्बी  लगे कारतूस को किसी हिंदू को मुंह से खोलने के लिए वैसे ही बाध्य करने जैसा है, जैसा कि 1857 की क्रांति के समय अंग्रेज करा रहे थे। निश्चय ही उस समय क्रांति से मेरठ मचल उठा था और उसने सारे देश को मचलने के लिए प्रेरित किया था। एक दिशा दी थी और एक संदेश दिया था। आज फिर मोदी ने मेरठ की नब्ज पर हाथ रखकर बीमारी को पकड़ऩे का प्रयास किया है। मेरठ की जनता ने उनकी योग्यता को समझने का प्रयास किया है। इसीलिए लोग अपेक्षानुरूप उनकी सभा में उपस्थित रहे हैं। लगता है क्रांति का बिगुल बज चुका है और मेरठ ने फिर एक गीता की रचना के लिए ‘कृष्ण और अर्जुन’ को तैयार करना आरंभ कर दिया है। समय नमो नमो का है।

2 COMMENTS

  1. शेखर जी,प्रतिक्रिया के लिए धन्यवाद।
    हमारी सांस्कृतिक विरासत को इसी सोच ने अधिक छती पहुंचाई है ।
    वास्तव मे भारत गांधी नेहरू का भारत नहीं है, अपितु यह गौतम कनाद कपिल जैसे ऋषियों और मानधाता,मनु ,और युधिस्ठिर जैसे चक्रवर्ती सम्राटों का भारत हैं,जिनके पाँव के धोवन भी ये लोग नहीं हैं।एक बार पुनः धन्यवाद।

  2. अति सुन्दर आलेख.
    गांधी और नेहरू को ऊँचा से ऊँचा दिखने के चक्कर में सारे क्रांतिकारिओं को जान बूझ कर अनदेखा किया गया. जो लोग भगत सिंह को भारत का क्रांतिकारी सपूत नहीं मानते, जो नेताजी सुभाष को एक सम्मानजनक स्थान नहीं दे सकते, वे वीर सावरकर, महर्षि दयानंद आदि हिन्दू संत और देशभक्तों का नाम कैसे लेंगे…… मुसलमान नाराज हो जायेंगे न….

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here