हिंदी के श्रेष्ठ पत्रकारों में उमेश चतुर्वेदी जी का नाम उल्लेखनीय है। उनके विचार दबाव, प्रभाव और मतवादों से मुक्त होते हैं। ‘प्रवक्ता डॉट कॉम’ ने जो दो लेख प्रतियोगिताएं आयोजित कीं, दोनों बार प्रथम पुरस्कार उनके खाते में गया। यह सही है प्रवक्ता पर उनके कम लेख हैं लेकिन गत एक वर्ष से प्रवक्ता को उनका मार्गदर्शन मिल रहा है। प्रस्तुत है प्रवक्ता को लेकर उनका विचारशील संस्मरण (सं.)
लोग मुझे लिक्खाड़ कहते हैं..सच कहूं तो लिखना मानसिक जरूरत है ही, मेरी आर्थिक मजबूरी भी है..लेकिन पता नहीं लेखन के बीज काफी पहले कहीं अवचेतन में अवरोपित हो गए थे..जिसमें अंकुर दसवीं की पढ़ाई के दौरान ही निकलने लगे..ग्यारहवीं तक पहुंचते ही उस अंकुर से पत्तियां विकसित होने लगी थीं..उन पत्तियों को दुनिया को दिखाना था..दौड़ इसकी भी शुरू हुई..लेकिन संपादकों के सखेद चिट्ठियों के साथ उत्साह डूबने लगा..लेकिन इस डूब में भी उम्मीद थी और छपना शुरू हो गया..एम ए की पढ़ाई के दौरान प्रतियोगिता दर्पण में हिंदी भाषा को लेकर छह-सात लेख छपे..साथ में राजनीतिक विषयों पर संजीव कुमार सिन्हा के भी लेख छपते थे..संजीव का यह नाम कहीं टंका रह गया..दिल्ली में पढ़ाई और नौकरियों की अनवरत् संघर्ष यात्रा में लेखन का वह ढर्रा बदल गया..लेकिन संजीव कुमार सिन्हा का वह नाम कहीं अवचेतन में बैठा रहा..शायद 2007 की बात होगी..तब ब्लॉगिंग का दौर था..उस दौर में इंटरनेट पर पढ़ने का चस्का लगा। इन्हीं दिनों राष्ट्रवादी विचारधारा से जुड़े कुछ बेहतर लेख पढ़ने को मिले..उनके साथ भी नाम संजीव सिन्हा था..अवचेतन में कहीं गहरे तक बैठा संजीव नाम जैसे अपना लगा..लगा कि प्रतियोगिता दर्पण में छपने वाले लेखों के लेखक संजीव कुमार सिन्हा ही संजीव सिन्हा हो गए हैं..ठीक वैसे ही जैसे उमेश चंद्र चतुर्वेदी, सिर्फ उमेश चतुर्वेदी रह गया है…तो लेख पढ़ते रहे..मन में उत्कंठा भी रही कि कभी मुलाकात होगी..
इसी बीच मोहल्लालाइव के मित्र अविनाश ने दिल्ली के हैबिटेट सेंटर में कोई कार्यक्रम कराया..वहीं पहली बार संजीव सिन्हा से मिलने का मौका मिला..लेकिन यह मेरे लिए तुषारापात था..क्योंकि यह संजीव तो बच्चा था..कायदे से तो उसे बड़ा होना चाहिए था..क्योंकि मैं एम ए में 1990 से 1992 तक पढ़ाई किया था..तब उनका लेखन प्रौढ़ था..इस हिसाब से तो उन्हें उम्र में तो बड़ा होना ही चाहिए था..बहरहाल विनम्र संजीव से सिर्फ राफ्ता हुआ..
सक्रिय पत्रकारिता से 2009 की मई में नाता टूटा..मजबूरी में मानव रचना इंटरनेशनल यूनिवर्सिटी फरीदाबाद के पत्रकारिता विभाग में बतौर अध्यापक जुड़ना पड़ा। वहीं खाली समय में 2010 में एक विज्ञापन पढ़ा..वह विज्ञापन प्रवक्ता डॉट कॉम वेबसाइट का था..प्रवक्ता डॉट कॉम के दो साल पूरे होने पर लेख प्रतियोगिता को लेकर था। लेख का विषय था-वेब पत्रकारिता: संभावना एंव चुनौतियां..मैंने भी अपना लेख भेज दिया और पहले स्थान पर चुना गया..दूसरे साल यानी 2011 में विषय था-मीडिया में भ्रष्टाचार..इसमें हिस्सा लेने का मन नहीं था.लोग क्या सोचेंगे..लेकिन मेरे सहयोगी प्रोफेसरों ने हौसला बढ़ाया और संजीव सिन्हा को फोन किया कि क्या दूसरी बार प्रतियोगिता में हिस्सा लिया जा सकता है..संजीव को शायद तभी मैंने पहली बार फोन किया था..संजीव की अनुमति से लेख भेजा और दूसरी बार भी पहले स्थान पर रहा..इसके लिए मुझे बाकायदा पहली बार 1500 रुपए और दूसरी बार की प्रतियोगिता में 2500 रुपए का इनाम मिला..इन अर्थों में कहें तो मैं प्रवक्ता का नमक भी खा चुका हूं। लेकिन यह कहने में मुझे गुरेज नहीं है कि दोनों बार प्रतियोगिता जीतने के बाद मैं प्रवक्ता के और नजदीक आ गया..अब तो यह हालत है कि संजीव और उनकी टीम को मैं अलग ही नहीं समझता।
प्रवक्ता पर मैंने बहुत कम लिखा है..लेकिन एक बात सबसे अच्छी यह लगती है कि संजीव के घोषित राष्ट्रवादी होने के बावजूद प्रवक्ता स्वस्थ लोकतांत्रिक मंच बना हुआ है। यहां विचारधारा के बंधन छपने की राह में रोड़ा नहीं हैं..बल्कि अगर आपके विचारों में दम है तो आपकी रचनाधर्मिता का प्रवक्ता स्वागत करता है..इसके लिए संजीव एक बार तो अपने ही मित्र भाई पंकज झा के कोपभाजन का भी शिकार बन चुके हैं..यह बात और है कि पंकज भाई ने बाद में उनकी लोकतंत्रधर्मिता का सम्मान किया और प्रवक्ता पर साया हो गए..हिंदी में इन दिनों मीडिया पर जिस तरह वैचारिक चिंतन जगदीश्वर चतुर्वेदी कर रहे हैं..उसकी सानी कम ही मिलती है..कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के प्रोफेसर चतुर्वेदी घोषित मार्क्सवादी हैं..लेकिन उनके विचार आप लगातार प्रवक्ता पर पाएंगे। इसके लिए उनकी मार्क्सवादी खेमे में लानत-मलामत तक हो चुकी है..लेकिन प्रवक्ता से उनका स्नेह बना हुआ है।
प्रवक्ता पर आपको कई ऐसे भी नाम मिलेंगे..जो बहुत नामी नहीं है..हिंदी में इन दिनों एक परंपरा बन गई है कि आप बेहतर पद पर हों…समाज में रसूख हो..लेकिन आप कूड़ा लिखते हों..अखबार और पत्रिकाएं उसे जरूर छापेंगे। घोर वैचारिक दरिद्रता का यह दौर है..जहां वैचारिक धार की बजाय रसूख और ताकत विचार को छापने का जरिया बन गया है। धारदार विचार हो, लेकिन रसूखदार पद और ताकत वाले पद पर लेखक ना हो तो उसकी रचनाधर्मिता को सम्मान मिलना संभव नहीं..लेकिन प्रवक्ता ने इस जड़ता को भी तोड़ा है..लिखने को तो बहुत कुछ है..मैं अक्सर स्पष्टवाद के प्रदर्शन में भरोसा रखता हूं..लेकिन प्रवक्ता के खिलाफ मेरे पास कुछ भी नहीं है..इसीलिए ज्यादा नहीं लिख रहा कि कहीं मुझे आग्रही न ठहरा दिया जाय..फिर भी इतना जरूर कहूंगा कि साधनहीन नए मीडिया में प्रवक्ता ऐसा दीया है..जिसकी रोशनी दूर तलक महसूस की जाएगी..