राष्ट्रवादी स्तंभकारों में कुलदीप चन्द अग्निहोत्री का नाम उल्लेखनीय है। राजनीति, पत्रकारिता, संस्कृति, विदेश मामले…आदि विविध विषयों पर उनका विश्लेषण विचारशील और धारदार होता है। वे पत्रकार एक्टिविस्ट हैं। आपातकाल में जेल में रहे। चीन के चंगुल से तिब्बत को आजाद कराने के लिए वे देशभर में अलख जगा रहे हैं। हाल ही में उनकी बहुचर्चित पुस्तक ‘जम्मू-कश्मीर की अनकही कहानी’ प्रकाशित हुई है। उन्होंने जनसत्ता में काम किया। इन दिनों हिंदुस्थान समाचार एजेंसी से जुड़े हैं। कुलदीपजी जब भी मिलते हैं तो हमारा हाल-चाल पूछने के साथ ही ‘प्रवक्ता’ के बारे में भी जानकारी अवश्य प्राप्त करते हैं। उनका यह संस्मरण हमारे लिए महत्वपूर्ण है-
कुछ साल पहले मुझे किसी ने बधाई दी कि आपका एक आलेख प्रवक्ता में पढ़ा था। मैंने सोचा कोई अख़बार या मैगज़ीन होगा। लेकिन बधाई क़बूलने में तो कोई हर्ज नहीं था। लिखने वाले की यही बीमारी है। बधाई को लपकता है और अपना लिखा छपा देखने के लिये छटपटाता है, लेकिन यह छटपटाहट किसी को बताता नहीं, क्योंकि उससे लेखकीय गरिमा पर आघात लगता है। ख़ैर मुझे प्रयास करने पर भी प्रवक्ता नहीं मिला। पर चिन्ता करने की बात नहीं थी । आलेख पहले छप ही चुका था। प्रवक्ता में छपना तो बोनस था।
एक दिन ओडिया भाषा के पत्रकार समन्वय नंद से बात चल रही थी। मैंने कहा मेरा एक आलेख किसी प्रवक्ता नाम के अख़बार में छपा है, लेकिन अख़बार की प्रति कहीं से नहीं मिली। तब उसने बताया कि प्रवक्ता अख़बार नहीं, एक वेबसाईट है । मैंने दरयाफ़्त किया कि यह साईट किस प्रकार की सामग्री के लिये है? तब समन्वय ने बताया कि इस साईट में आलेख बगैरह दिये जाते हैं। मैंने समन्वय से कह दिया मेरे आलेख भी भेज दिया करो। बीच-बीच में मैं खोलकरदेख भी लेता था। मन तो प्रसन्न होता ही था। तब मुझे पता नहीं था कि यह साईट कौन लोग चला रहे हैं।
अलबत्ता साईट पर विभिन्न अखाड़ों के लेखकों को कन्धे भिड़ाते देख कर यह अनुमान तो हो गया था कि एक नये आसन की रचना हो रही है जिस पर कोई भी, किसी भी अखाड़े का औघड आकर धूनी रमा सकता था। कुछ साम्यवादी इस आसन पर तांत्रिक साधना करते दिखाई भी पड़ने लगे थे। उत्सुकता बढ़ी तो मैंने समन्वय से ही पता किया कि यह नया अखाड़ा कौन चला रहा है? जब उसने संजीव सिन्हा का नाम बताया तो मैंने हैरान होकर पूछा, वे अपने संजीव सिन्हा जी? उसके सकारात्मक सिर हिलाने पर मुझे ख़ुशी हुई कि वैचारिक क्षेत्र में संजीव जी ने कम से कम छूतछात नहीं फैलने दी।
बीच में मेरे आलेख प्रवक्ता में दिखाई देने बन्द हो गये। समन्वय ने बताया कि आप के आलेखों में बर्तनी की अशुद्धियाँ बहुत है। प्रवक्ता बालों का कहना है कि गलतियां ठीक कर भेजा करो। अब आजकल अपनी ग़लती कौन ठीक करता है? लोग बाग अपनी अपनी गलती ठीक कर लें तो देश की हालत न सुधर जाये। ठीक न करें, कम से कम अपनी गलती मान ही लें, तब भी बहुत सी समस्याओं का समाधान हो जाये। पत्रकार अपनी गलती मान ले, यह तो बिल्कुल ही नहीं हो सकता क्योंकि उनके कन्धों पर तो सारे देश को रास्ता दिखाने का भार आन पड़ा है। क़ाज़ी जी क़ाज़ी जी दुबले क्यों? शहर के अंदेशे से। लेकिन बात तो प्रवक्ता वालों की ही ठीक थी। वर्तनी की अशुद्धियों से तो कम से कम शहर के अंदेशे का कोई ताल्लुक नहीं हो सकता। लेकिन मेरी बीमारी दूसरी है, शहर के अंदेशे से दुबले होने की तो बिल्कुल नहीं। एक बार लिख कर दोबारा मैं उसे पढ नहीं सकता। मुझे पता होता है कि पहले हल्ले के आलेखन में साफ पानी के साथ काफी मिट्टी भी घुली रहती है । वह स्वयं मुझे भी दूर तक पानी को गंदला करती हुई दिखाई देती रहती है। लेकिन कौन उठ कर उसे साफ करे। आलस्य मेरा चिर मित्र है। जामुन के नीचे लेटे मुँह खोले उसी संतोषी जन की तरह जो मुंह में ही किसी मीठी जामुन के गिरने का इन्तजार करता रहता है। हार कर टेबलेट ख़रीदा तो अब ख़ुद टाइप करना पड़ता है अत: गल्तियां भी बहुत कम होती हैं। नहीं होती ऐसा तो नहीं कह सकता। प्रवक्ता के द्वार फिर खुले।
एक दिन संजीव सिन्हा मिल गये। मैंने प्रवक्ता चलाने की बधाई दे दी। तो भारत भूषण जी के नाम का पता चला। कुल मिला कर काम चोखा चुनौती भरा है। लेकिन इन मित्रों ने इस चुनौती भरे रास्ते को स्वीकारा है और आज के युग में, जहां विचार भिन्नता को व्यक्तिगत शत्रुता का दर्जा दे दिया है, भी एक सर्वसमावेशी व्यास आसन की रचना की है, यही इसकी अपने आप में बडी उपलब्धि है। इसी की संतुष्टि होनी चाहिये ।