विचारों का ढूला और अभिव्यक्ति का जन्तर मन्तर

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प्रवक्ता डॉट कॉम की पांचवीं वर्षगांठ पर 

विजय कुमार

pravaktaआपातकाल में कांग्रेसी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा लोकतंत्र की हत्या और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे देशभक्त संगठन पर लगाये गये प्रतिबंध के विरुद्ध अपने साथियों सहित सत्याग्रह कर मैं पौने चार महीने डी.आई.आर. के अन्तर्गत मेरठ जेल में रहा।

वहां सबसे अधिक तो संघ और जनसंघ वाले ही थे। चौधरी चरणसिंह का गृह जिला होने के कारण उसके बाद सर्वाधिक संख्या उनके लोगों की थी। उन दिनों वे किस दल में थे, ध्यान नहीं। क्योंकि दल बनाने और बदलने में यह परिवार कुख्यात है। ऐसा कोई दल नहीं है, सत्ता के लिए जिससे इन्होंने मित्रता कर फिर धोखा न दिया हो। इनके साथ ही कुछ नक्सली, सर्वोदयी, आनंदमार्गी और जमात-ए-इस्लामी वाले भी थे। उनमें से कई आगे चलकर विधायक और सांसद बने। इन दिनों भी संसद और उ.प्र. की कैबिनेट में मेरठ जेल के कुछ साथी हैं।

हमारी बैरक में सबको सोने के लिए तीन फुट चैड़ा और छह फुट लम्बा एक पक्का चबूतरा (ढूला) मिला हुआ था। चाहे कोई सुने या नहीं; पर कई लोग शाम को उस ढूले पर खड़े होकर भाषण देते थे। ऐसे एक वक्ता का कहना था कि राजनेता को भाषण देना जरूर आना चाहिए। इसीलिए मैं इसका अभ्यास कर रहा हूं।

प्रवक्ता भी विचारों का ऐसा ही एक ढूला है, जहां हर व्यक्ति अपनी बात कह सकता है। जो लोग लेखन या पत्रकारिता में आगे बढ़ना चाहते हैं। उनके अभ्यास के लिए यह अच्छा स्थान है।

एक और तरह से सोचें, तो सभी राज्यों की राजधानी में विधानसभा के आसपास कुछ स्थान निर्धारित होते हैं, जहां लोग धरने, प्रदर्शन, अनशन आदि कर सकते हैं। विधानसभा चलते समय यहां खूब रौनक रहती है। स्थान निश्चित होने से प्रदर्शनकारी और पत्रकार, दोनों को सुविधा रहती है। लखनऊ में इसके लिए गांधी जी और सरदार पटेल की मूर्तियां हैं, तो दिल्ली में जंतर-मंतर है। आप किसी के समर्थन में हैं या विरोध में, यहां आपका स्वागत है। यदि प्रदर्शन किसी बड़ी संस्था या राजनीतिक दल द्वारा आयोजित हो, तो वहां भारी भीड़ और जिन्दाबाद-मुर्दाबाद का शोर होता है। प्रदर्शन शासन के विरोध में हो, तो फिर धक्कामुक्की, लाठी या पानी की बौछार भी सहनी पड़ती है; लेकिन यदि आपके साथ कोई बड़ी संस्था नहीं है, तो भी ये स्थान आपको निराश नहीं करते।

प्रवक्ता भी अभिव्यक्ति का ऐसा ही जंतर-मंतर है। अतंरजाल (इंटरनेट) के कई ठिकानों पर वैचारिक लेख का विरोध करते हुए कई लोग अपने दिल और दिमाग की गंदगी के साथ अपने घरेलू या संस्थागत कुसंस्कार भी उलीच देते हैं; लेकिन प्रवक्ता का मंच इस दृष्टि से अच्छा है कि यहां लोग शिष्ट विरोध करते हैं।

बहुत से पत्र, पत्रिकाएं तथा अतंरजालीय ठिकाने वैचारिक स्वतंत्रता का ढिंढोरा पीटते हुए भी अपने खोल से बाहर नहीं निकलते। कुछ पत्रिकाएं तो नये लेखकों को यह समझाती हैं कि वे कुछ ऐसा लिखें, जिससे पत्रिका का इच्छित निष्कर्ष निकल सके। वैचारिक प्रतिबद्धता वाले पत्रों का होना गलत नहीं है; पर फिर उन्हें यह पाखंड नहीं करना चाहिए। यह वैचारिक भ्रष्टाचार है।

प्रवक्ता स्वयं को ‘अभिव्यक्ति का अपना मंच’ कहता है। अपने लिए यह विशेषण उसने ठीक ही चुना है। मंच का कोई निजी विचार नहीं होता। हां, उस पर आकर लोग निजी विचार प्रकट कर सकते हैं; लेकिन प्रवक्ता के संचालकों की विचारधारा स्पष्ट होते हुए भी वे मंच की भूमिका निभाते हुए सबको लिखने और टिप्पणी करने का अवसर दे रहे हैं। मैं समझता हूं कि उदारता के यह संस्कार उन्हें उस संगठन से मिले हैं, जिसमें उनकी जड़ें हैं।

लेकिन इस मंच के संचालक स्वयं को सम्पादक कहते हैं। अतः उनसे कुछ विस्तृत भूमिका की अपेक्षा की जाती है। जैसे खान से निकले अनगढ़ हीरे को कुशल कारीगर कांट-छांट और चमका कर लाखों रु. का बना देता है। ऐसे ही सम्पादक भी रचना की भाषायी और तथ्यात्मक अशुद्धियों को दूर करने, उसमें दिये उद्धरण, दोहे, सुभाषित, शेर आदि को जांच कर ठीक करने, शीर्षक व उपशीर्षक लगाने, कविता के छंद, गति और लय आदि को सुधारने का काम करता है; पर इसके लिए अत्यधिक अध्ययनशीलता, लगन, छंदानुशासन की जानकारी और संदर्भ ग्रन्थों की आवश्यकता होती है।

जो तपस्वी सम्पादक निष्ठापूर्वक ऐसा करते हैं, उनकी आंखों पर मोटा चश्मा चढ़ जाता है। उनके कंधे झुक जाते हैं और वे पायल्स के रोगी हो जाते हैं; पर वे ही लेखकों की नयी फसल भी तैयार कर पाते हैं। मैं भाग्यवान हूं कि मुझे लखनऊ से प्रकाशित मासिक पत्रिका ‘राष्ट्रधर्म’ के सम्पादक श्री आनंद मिश्र ‘अभय’ के साथ नौ वर्ष रहने का अवसर मिला। वे ऐसी ही एक विभूति हैं।

लेकिन प्रवक्ता का यह पक्ष कुछ दुर्बल है। सब्जी बेचने वाला भी मंडी से सब्जी लाकर उसे धो और पोंछकर सुंदरता से रखता है; पर प्रवक्ता के सम्पादक हर रचना को ‘यथावत’ प्रस्तुत कर देते हैं। या तो इसके पीछे समय का अभाव है या कुछ और; पर यदि यह उनकी नीति है, तो वे स्वयं को संचालक या संयोजक कहें, सम्पादक नहीं। वैसे भी मंच पर वक्ता, प्रवक्ता, अध्यक्ष, मुख्य अतिथि, संयोजक या संचालक आदि ही होते हैं, सम्पादक नहीं।

एक बात और। किसी ने कहा है, ‘पसंद अपनी-अपनी, खयाल अपना-अपना’। कम से कम मुझे तो प्रवक्ता पर वैचारिक लेख और सार्थक व्यंग्य या कहानी ही अच्छे लगते हैं। बैंगन की चटनी और करेले का मुरब्बा नहीं। इसके लिए और भी कई स्थान हैं। कला, साहित्य और ज्ञान-विज्ञान की हजारों विधाएं हैं। आप किस-किस को अपने मंच पर स्थान देंगे ? अनाज मंडी में लोग अनाज लेने ही जाते हैं, मिठाई नहीं। इसलिए प्रवक्ता को विचारों की अभिव्यक्ति का मंच ही बना रहने दें; चटनी या अचार की दुकान नहीं।

संस्कृत में एक सुभाषित है –

प्रारभ्यते न खलु विघ्नभयेन नीचैः

प्रारभ्य विघ्नविहिता विरमन्ति मध्याः।

विघ्नैः पुनः पुनरपि प्रतिहन्यमानाः

प्रारभ्य चोत्तमजना न परित्यजन्ति।।

(निम्न श्रेणी के लोग विघ्न के डर से काम प्रारम्भ ही नहीं करते। मध्यम श्रेणी वाले विघ्न आने पर बीच में ही छोड़ देते हैं; पर उत्तम श्रेणी के लोग बार-बार विघ्न आने पर भी उसे नहीं छोड़ते।)

वैचारिक संभ्रम और संघर्ष के इस कठिन समय में प्रवक्ता के संचालक गत पांच वर्ष से लगातार अपने निर्धारित मार्ग पर चल रहे हैं, इसके लिए उन्हें बधाई एवं शुभकामनाएं।

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