‘प्रवक्ता’ के पाँच वर्ष / आर. सिंह

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pravaktaमैंने ख़तना कहानी लिखी थी,पर मुझे शक था कि इसे ‘प्रवक्ता डॉट कॉम ‘ में जगह मिलेगी, क्योंकि कहानी एक ऐसे यथार्थ की ओर इंगित करती थी,जिसे स्वीकारना आसान नहीं था. पर यह क्या? कहानी तो दूसरे ही दिन प्रवक्ता के पृष्ठों पर थी.

तो यह है प्रवक्ता, एक युवा टीम के अथक परिश्रम से दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की करती हुई.

प्रवक्ता से मेरा संपर्क करीब चार वर्ष पहले हुआ था. प्रवक्ता उस समय महज एक वर्ष की थी और आज जब वह पाँच वर्ष पूरा करने जा रही है, तब भी ऐसा लग रहा है, जैसे यह कल की बात हो. संपर्क भी शायद अचानक ही था. न जाने कैसे उसका एक अंक मेरे मेल में आ गया था. एक बार देखने की उत्कंठा ने मुझे उसके साथ हमेशा के लिए जोड़ दिया. मैं कोई कहानी लेखक या कवि नहीं हूँ. जब कभी कुछ विचार मन में आते थे, तो मैं अपने नोट बुक में उन्हें अंकित कर लिया करता था. वे सब रचनाएँ यों ही मेरे पुराने धरोहर के रूप में इधर उधर पड़ी हुई थी. उनमें से एक रचना को मैंने प्रवक्ता में यों ही भेज दिया था और प्रकाशित भी हो गयी थी. उसके कुछ विवर भी हो गये थे. इसके बाद तो वे सब रचनाएँ एक-एक कर प्रवक्ता में जातीं रहीं और उनको आवश्यकता से अधिक सम्मान मिलता रहा.

पर यह तो प्रवक्ता से संपर्क से बहुत बाद की घटनाएँ है. मूल रूप से मैं टिप्पणीकार हूँ और वक्त-बेवक्त मैं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में अपनी टिप्पणी भेजता रहता हूँ. पहले कम प्रकाशित होती थी,पर अब ई-एडिशन में प्रकाशित हो ही जाती हैं. प्रवक्ता में भी मैंने पहले टिप्पणी करना आरम्भ किया था. उस समय बड़े अच्छे अनुभव हुये. कुछ मीठे तो कुछ कड़वे भी. कुछ लोगों को पसंद आए, तो कुछ प्रवेक्षकों से लताड़ भी मिली. पर इससे मेरे अनुभव में वृद्धि होती रही.

अजब है यह प्रवक्ता भी. विभिन्न विचारों का ऐसा समन्वय बहुत कम ही दृष्टिगोचर होता है. युवा संपादक संजीव जी की व्यक्तिगत विचारधारा प्रवक्ता पर कभी हावी नहीं हुई इसके लेखकों और पाठकों में वामपंथी भी हैं तो दक्षिणपंथी भी. कट्टर धार्मिक हैं, तो उदार वादी भी. वामपंथ और दक्षिणपंथ की लड़ाई ने तो कभी कभी ऐसा ज़ोर पकड़ा है कि प्रवक्ता के पुराने सहयोगियों ने इससे किनारा करने की भी धमकी दे डाली,पर प्रवक्ता प्रबंधकों पर इसका भी कोइ प्रत्यक्ष प्रभाव दृष्टिगोचर नहीं हुआ.

मैंने भी अपने पुराने लबादे से बाहर निकल कर कुछ सामयिक आलेख और कहानियाँ लिखी और उनको प्रवक्ता में जगह मिलती गयी. मेरा एक आलेख भी उसी समय आया था, जिसे प्रवक्ता में स्थान देना आसान नहीं था,पर वह भी प्रकाशित हो गया था.

अच्छा लगता है, जब बड़े-बड़े विद्वानों की संगत मेरे जैसे आम इंसान को नसीब हो जाती है. इसके लिए मैं प्रवक्ता का आभारी हूँ और उसकी दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की की सतत कामना करता हूँ.

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