– गंगानन्द झा
डॉक्टर कल्याणी दास मिश्र
मनुष्य ने भगवान से कहा—“विधाता! तुम्हारी दुनिया तो बहुत ही निर्मम और हृदयहीन है। इसको रहने लायक बनाने के लिए मैं कुछ नहीं कर पा रहा।“
भगवान ने मनुष्य से कहा— “कुछ और करने के बजाय बस तुम अपने आपको थोड़ा बेहतर बना लो।“
दिल्ली के जंतर मंतर और रामलीला मैदान से बहुत दूर देश के अख्यात स्थानों में हमेशा से बहुत सारे लोग हैं जो अपने आपको थोड़ा और बेहतर बनाने के व्रत को अंजाम देते रहते हैं।
आज जीवन-पथ के विभिन्न पड़ावों की ओर मुड़ कर देखने पर यह बात जाहिर होती है कि सन 1961 ई में हमारा सिलचर जाना नियति ने तय किया हुआ था। यहाँ हमें डॉ. कल्याणी दास मिश्र का सान्निध्य मिला था।
असम के बराक उपत्यका में अवस्थित सिलचर के जी.सी.कॉलेज में व्याख्याता पद पर नियुक्त हुआ था। हमारे लिए एकदम अपरिचित जगह थी। इधर अपने परिवार और समाज मे भी उस समय हमें अपने आपकी स्वीकृति की चुनौती का समाना था। हम सिलचर आए थे तो हमारा बेटा तीन मास का शिशु था, उसकी माँ को प्रसूति-ज्वर हो जाया करता था; यहाँ आते ही डॉक्टर की जरुरत हुई । ढूँढ़ने निकला तो एक नेम प्लेट पर निग़ाह गई — डॉ. श्रीमती कल्याणी दास (मिश्र) । डॉक्टर से हम मिले और फिर डॉक्टर-रोग-इलाज का रिश्ता कायम हुआ । एक दिन ऐसा हुआ कि बब्बू की तबियत खराब होने पर जब डॉक्टर को बुलाने गया तो वे नहीं मिली, मालूम हुआ कि वे शहर से पाँच मील दूर अपने पति के साथ ग्रामाञ्चल में रहती थीं । हर अपराह्न चार घण्टों के लिए वे दोनों रिक्शे से शहर के क्लिनिक आते और फिर लौट जाते । मैं निराश होकर लौट आया । बच्चे की तबियत के ठीक न होने के कारण हम काफी तनाव में थे, इन्तज़ार कर रहे थे कि शाम हो तो डॉक्टर के पास एक बार पुनः प्रयास करूँ : तभी पूर्वाञ्चल के वैशाख महीने की कालवैशाखी का नज़ारा उपस्थित हुआ, प्रचण्ड आँधी उठी । हम खिड़की दरवाजा बन्द कर घर के अन्दर सहमे-से थे कि तूफान के शोर के बीच से डाक्टर दास का कण्ठ-स्वर उभड़ता-सा लगा, “ मैं ठीक स्थान पर आई हूँ न ?” दरवाजा खोलते ही देखा कि उस तूफान से जूझती हुई डॉक्टर अपनी परिचारिका के साथ आ रही थीं । उन्हें अपने क्लिनिक से मेरे बारे में पता चला था तो हमारा आवास ढूँढ़ती हुई आई थीं । हमे उनसे बड़ी दीदी-सुलभ स्नेहसिक्त शासन का सहज एहसास हमारे सिलचर प्रवास की पूरी अवधि में बना रहा था । बाद में जब मैंने उनसे रोगियों की असुविधा की चर्चा की थी तो उन्हौंने अपनी स्थिति स्पष्ट करने के लिए कहा था कि नगर के लोगों को अन्य अनेक चिकित्सक मिल जाएँगे, पर ग्रामांचल में यह सुविधा उपलब्ध नहीं है, इसलिए मैं यथासाध्य करने के लिए एक ग्रामांचल में रहती हूँ । वहाँ एक मातृ-शिशु चिकित्सा केन्द्र कायम करने के लिए वे प्रयासरत थीं। कालक्रम में उनकी तपस्या सार्थक और सफल हुई। उस ग्रामाञ्चल में एक बड़ा अस्पताल डॉ. सुन्दरीमोहन दास सेवा भवन आज आसपास के जिलों एवम् राज्यों के साघनहीन तबकों के लोगों को उच्च कोटि की चिकित्सा अपलब्ध करा रहा है। डॉ. कल्याणी के निधन के आज बाइस साल हो गए हैं, पर उनके आदर्श से अनुप्राणित विशेषज्ञ चिकित्सकों की टीम सेवा भवन को समर्पित भाव से सञ्चालित कर रही है।
डॉ. कल्याणी दास और उनके पति श्री वीरेश मिश्र कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इण्डिया के प्रथम पंक्ति के सदस्य थे। पर उनलोगों को समाज के सभी वर्गों से सम्मान और सहयोग मिलता रहा था।
सन 1962 का साधारण निर्वाचन आया । स्थानीय कम्युनिस्ट पार्टी के जिला सचिव श्री अचिन्त्य भट्टाचार्य राज्य विधान सभा के सदस्य पद के प्रार्थी थे । मतदाताओं में चाय बागान के हिन्दी भाषी क्षेत्रों से आए श्रमिकों की भूमिका प्रभावी हुआ करती थी । स्थानीय कम्युनिस्ट पार्टी के पास इन्हें लामबन्द करने के लिए उपयुक्त नेता नहीं थे, कदाचित यही वजह रही होगी कि मुझसे अनुरोध किया गया कि मैं उनके साथ एक चाय बागान में प्रचार कार्य में सम्मिलित होऊँ । यहाँ पर यह चर्चा प्रासंगिक होगी कि उन दिनों कम्युनिस्ट पार्टी के साथ सम्बन्धित रहना प्रशासन की दृष्टि में देश-हित के विरुद्ध रहना समझा जाता था, विशेषकर देश के पूर्वांचल में ।
इसलिए चुनाव प्रचार में सक्रिय भागीदारी करने के लिए मैं उत्साहित नहीं था, फिर भी चक्षु-लज्जावश सहमत हो गया था। मैं तयशुदा दोपहर को पार्टी कार्यालय पँहुचा, वहाँ डॉक्टर कल्याणी दास जीप के पास खड़ी जैसे मेरी प्रतीक्षा कर रही थीं । मुझे देखते ही उन्होंने मुझे लगभग डाँटते हुए कहा, “वक्तृता देने जा रहे हैं न ? जाइए , पुलिस नाम नोट करेगी, नौकरी जाएगी, बस पत्नी का हाथ पकड़कर बच्चे को कन्धे पर बैठाकर घर चले जाइएगा । ” फिर मेरी प्रतिक्रिया की परवाह किए बग़ैर पार्टी के कार्यालय में दनदनाती हुई गईं और वहाँ उपस्थित लोगों को करीब करीब डाँटती आवाज में कहने लगीं, “ किसने इन्हें कहा है चलने के लिए ?” किसीने दबी-सी आवाज में उत्तर दिया कि चायबागान देखने के लिए इनको जाने का मन था, इसीलिए। डॉक्टर दास ने दृढ़ स्वर में प्रतिवाद किया, “ चाय बागान देखने के और बहुत अवसर मिलेंगे, इस गाड़ी पर बैठने से ही पुलिस इनका नाम नोट करेगी । असल में तुम लोग किसी भले आदमी को सह नहीं पाते, दूर देश से नौकरी करने के लिए यहाँ आए हैं, इनकी नौकरी लिए बग़ैर तुम्हें स्वस्ति नहीं । तुम लोगों से सरोकार रखना जैसे इनका दोष हो गया है । ” फिर तमकती हुई सी मेरे पास आईं और मुझे जैसे निर्देश दिया – “जाइए, घर जाइए।” मैंने स्वस्ति की साँस ली ।