तिब्बत द्वारा कृतज्ञता ज्ञापन-जाग मछन्दर गोरख आयाः डा0 कुलदीप चन्द अग्निहोत्री

dalai-lamaआज से 50 साल पहले तिब्बत के धर्म गुरू और राज्य अध्यक्ष दलाई लामा अपना देश छोड़कर भारत में आये थे। उनके साथ उनके लाखों अनुयायी भी तिब्बत छोड़ गये। जिस समय दलाई लामा आये थे उस समय उनकी आयु 24 वर्ष की थी। आज वे 74 वर्ष के हो गये हैं और तिब्बती स्वतंत्रता संघर्ष की आधी शताब्दी पूरी हो चूकी है। निर्वासित तिब्बती सरकार कृतज्ञता से भारत का धन्यवाद कर रही है। इसके लिए भारत वर्ष में कृतज्ञता ज्ञापन कार्यक्रमों का आयोजन किया जा रहा है।

तिब्बत तो धर्म की रक्षा के लिए लड़ रहा है। परन्तु भारत सरकार क्या कर रही है। क्या उसने धर्म का रास्ता छोड़ दिया है। आज जब तिब्बत भारत के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन कर रहा है तो भारत सरकार को भी धर्म के रास्ते पर चल कर तिब्बत के पक्ष में खड़े होना चाहिए। तिब्बत के साथ खड़े होने में भारत का अपना स्वार्थ भी है। क्योंकि तिब्बत की स्वतंत्रता से ही भारत की सुरक्षा जुड़ी हुई है।

दलाई लामा अपने भाषणों में भारत को गुरू और तिब्बत को चेला बताया करते हैं और उनका यह भी कहना है कि चेले पर जब संकट आता है तब वह गुरू की शरण में ही आता है। गुरू का कर्तव्य क्या है इसकी बहुत विस्तार से चर्चा तो दलाई लामा नहीं करते क्योंकि शायद वो सोचते होंगे कि भारत जैसा प्राचीन देश गुरू के फर्ज को तो अच्छी तरह जानता ही होगा। बाकी जहॉ तक चेले के कर्तव्य का मामला है उसे निर्वासित तिब्बती सरकार निभा ही रही है। दलाई लामा कृतज्ञता ज्ञापन में पंडित जवाहर लाल नेहरू और कर्नाटक के उस समय के मुख्यमंत्री श्री निजलिंग्गपा का विशेष तौर पर समरण करते हैं। यह समय लाखों तिब्बती अपने परिवारों समेत भारत में आये थे उस समय नेहरू ने उनको बसाने और उनके बच्चों की शिक्षा के लिए बहुत प्रयास किये थे। निजलिंग्गपा ने भी कर्नाटक में तिब्बतियों की बस्तियॉ बसाने के लिए व्यक्तिगत प्रयास किये थे। यह भारत की तिब्बतियों के प्रति मानवीय दृष्टिकोण से की गई सहायता थी। यह ठीक है कि तिब्बत को उस वक्त इसकी भी जरूरत थी लेकिन उसे उस समय भी और आज भी सबसे ज्यादा जरूरत राजनैतिक और कुटनीतिक सहायता की है जिस पर नेहरू से लेकर आज तक कि सभी सरकारे मौन ही रही और अभी भी मौन ही हैं। दलाई लामा का यह दर्द कृतज्ञता ज्ञापन करते समय भी कहीं न कहीं फुट ही पड़ता है।

उनका कहना है कि बुध्द की 2500 वीं जयंती के अवसर पर 1956 में जब वे भारत आये थे तब उन्होंने पंडित नेहरू को तिब्बत की वास्तविक स्थिति और चीन के खतरनाक इरादों से अवगत करवा दिया था। तब तिब्बत के प्रमुख लोगा यह चाहते थे कि दलाई लामा इसी समय भारत में शरण ले लें और भारत सरकार चीन के साथ तिब्बत का मसला उठाये। लेकिन पंडित नेहरू उस समय भी दलाई लामा को ल्हासा में जाकर तिब्बती संघर्ष को जारी रखने की सलाह दे रहे थे। बकौल दलाई लामा एक दिन पंडित नेहरू 17 सूत्रीय करार, जो चीन ने तिब्बत पर जबरदस्ती थोपा था, की प्रति लेकर सर्कट हाउस में आये। उन्होंने उस करारनामे की कुछ धाराओं को विशेष रूप से रेखांकित किया हुआ था और वे मुझे समझाने लगे कि इन मुद्दों पर तिब्बत की सरकार कानून रूप से चीन सरकार से न्याय प्राप्ति के लिए संघर्ष कर सकती है। नेहरू शायद यह तो चाहते थे कि तिब्बत चीन के चुंगल में न जाये परन्तु इसके लिए वह तिब्बत को अपने ही बलबुते पर चीन से लड़ने की सलाह दे रहे थे और वे आशा करते थे कि तिब्बत ऐसा करे। तिब्बती सरकार तो चीन की विस्तारवादी और साम्राज्यवादी प्रकृति से पूरी तरह वाकिफ थी परन्तु नेहरू शायद जान कर भी अनजान बन रहे थे। बकौल दलाई लामा ही उसी प्रवास के दौरान बंगलौर में निजलिंग्गपा ने उनके कान में कान में कहा कि आप आजादी की लड़ाई लड़ों हम आपके साथ हैं। इसी प्रवास में जय प्रकाश नारायण ने दलाई लामा को आश्वस्त किया कि संकट की घड़ी में हम आपके पीछे खड़े होंगे। दलाई लामा जब प्रवास पूरा करके जाने लगे तो सिक्किम में भारत सरकार के उस समय के पोलिटीकल आफिसर ने पूरे जोश से कहा कि आप चिन्ता न करें, हम आपके सहायक हैं। दलाई लामा तो अमेरिका का समरण भी करते हैं। उनका कहना है कि अमेरिका के संदेश भी आते रहे कि किसी भी संकट में अमेरिका तिब्बत के साथ खड़ा होगा। उसके बाद दलाई लामा और उनकी सरकार ने लगभग अकेले अपने बलबूते ही तीन चार साल तक चीन के साथ लोहा लिया। फिर दलाई लामा जोर से हंसते हैं। जब सचमुच 1959 10 मार्च को तिब्बत के लोगों ने चीन के खिलाफ विद्राह कर दिया तब हमारे साथ कोई खड़ा नहीं हुआ। चीन भी शायद जानता ही होगा कि ऐसे मौके पर तिब्बत के साथ कोई खड़ा नहीं होगा। दलाई लामा की इस हंसी के पीछे न जाने कितना दर्द छिपा हुआ है। एक बौध्द भिक्षु की दर्द से भरी हंसी भारत सरकार को एक ही झटके में बेनकाब कर देती है। दलाई लामा की दाद देनी होगी कि 50 सालों की इस सफर में वे दर्द भी पीते रहे और लड़ते भी रहे।

बहुत से लोग प्राय: कहा करते हैं कि तिब्बत की आजादी की लड़ाई तिब्बतियों को तिब्बत के भीतर रह कर ही लड़नी होगी। पिछले 60 सालों में 10 लाख तिब्बती चीनी सेना द्वारा मारे जा चुके हैं। जो कौम आजादी की लड़ाई नहीं लड़ती उसके 10 लाख लोग मारे नहीं जाते। केवल दलाई लामा की जय कहने पर चीन की जेलों में 5 से लेकर 10 सालों तक नारकीय यातना भोगनी पड़ती है। और हजारों तिब्बती यह भोग रहे हैं। 60 सालों के चीनी प्रयत्नों के बावजूद मठों से जब चीवर धारण किये भिक्षु धम्म का जय घोष करते हुए निकलते हैं तो उन्हें गोली खानी पड़ती है। आज तिब्बत के हर मठ में ऐसे भिक्षुओं की सूची मिल जायेगी जो धम्म के लिए शहीद हो गये। तिब्बत की स्वतंत्रता की लड़ाई वास्तव में धर्म और अधर्म की लड़ाई है। भारत अपने पूरे इतिहास में धर्म का ध्वज वाहक रहा है। वैसे भी तिब्बत और भारत की संस्कृति, इतिहास और आस्था एक समान है। उसके तीर्थ सांझे हैं और उसके प्रतीक सांझे हैं। तिब्बत की पराजय भारतीय संस्कृति की पराजय ही होगी। तिब्बत की पराजय धर्म की पराजय मानी जायेगी। यह अधर्म की जीत होगी। शास्त्रों में कहा गया है धर्म उसी की रक्षा करता है जो धर्म की रक्षा करते हैं। तिब्बत तो धर्म की रक्षा के लिए लड़ रहा है। परन्तु भारत सरकार क्या कर रही है। क्या उसने धर्म का रास्ता छोड़ दिया है। आज जब तिब्बत भारत के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन कर रहा है तो भारत सरकार को भी धर्म के रास्ते पर चल कर तिब्बत के पक्ष में खड़े होना चाहिए। तिब्बत के साथ खड़े होने में भारत का अपना स्वार्थ भी है। क्योंकि तिब्बत की स्वतंत्रता से ही भारत की सुरक्षा जुड़ी हुई है। परन्तु भारत को तिब्बत का साथ इस लिए नहीं देना चाहिए कि इसमें उसका अपना स्वार्थ है यदि ऐसा किया तो यह अनैतिक हो जायेगा। भारत को तिब्बत का साथ इसलिए देना है कि यह धर्म का युद्व है। 21 वीं शताब्दी के प्रवेशद्वार पर ही भारत को यह घोषित करना होगा कि भविष्य के लिए वह धर्म का रास्ता चुनता है या उन्हीं पश्चिमी शक्तियों का पिछलग्गू बनता है जो राजनीति को धर्म नीति नहीं बल्कि स्वार्थ नीति मानते हैं। विश्व इतिहास में भारत की पहचान इसी धर्म नीति के कारण रही है। उसे अपनी इस पहचान को पुन: स्थापित करना होगा। तिब्बत इसकी कसौटी है और तिब्बतियों द्वारा कृतज्ञता ज्ञापन सोये भारत को जगाने का एक और उपक्रम है। जाग मछन्दर गोरख आया। (नवोत्थान लेख सेवा हिन्दुस्थान समाचार )

3 COMMENTS

  1. श्री अग्निहोत्री जी ने बहुत बढ़िया लेख लिखा है और आम व्यक्ति भी तिब्बत चीन विवाद को आसानी से समझ सकता है.
    हमारे देश ने इतिहास से कही सबक नहीं लिया. कभी किसी मौके का फायदा नहीं उठाया. अंग्रजो के झूठा आश्वासनों में आकर प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध में लाखो भारतीयों ने अपनी जाने गवा दी. आज जब तिब्बत को सहारा देकर कूटनीति के तहत चाइना को समझाने का वक्त है की “ऐ चार फूटे चीनियों, अबकी बार १९६२ की घटना दुहराने की गलती की तो मार-मार कर ढाई फूटे कर देंगे”. किन्तु हमरी वर्तमान सरकार में किस्मे हिम्मत की ऐसा बयां दे दे.

  2. तिब्बती मुद्दा हमारे लिए उतनाही ख़ास होना चाहिए ,जितना अमेरिका के लिए इसराइल है.

  3. अग्निहॊत्री जी का तिब्बत कॆ ऊपर लॆख भारतीय मीदिया द्वारा उपॆशित विश्य को मजबुती सॆ रखता है। भारत सरकार नॆ तिब्बत कॆ प्रति कॆवल भावनात्मक सहानूभूति दिखयी है।जबकि तिब्बत् कॊ भारत् सॆ राजनीतिक और् कूत्नीतिक सहायता की भी आवश्यकता है।सघ कॆ द्वितीय सरसघचालक गुरुजी गॊलवलकर नॆ 1962 की लड़ाई कॆ बाद् कहा था की “चीन नॆ भारत कॆ साथ विश्वासघात नही किया क्यॊकि चीन पर भारत कॊ कभी भरॊसा था ही नही बल्कि भारत नॆ तिब्बत् कॆ साथ विश्वासघात किया क्यॊकि तिब्बत् कॊ कॆवल भारत पर ही भरॊसा था”।दुखद् बात् तॊ यॆ है कि1956 सॆ अनॆक् सरकारॆ आयी और गयी पर किसी नॆ भी तिब्बत मुद्दॆ पर मजबूती सॆ बात् करनॆ की हिम्मत नही की।

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