मानसिक जातियां–भाग दो

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Nicholas B. Dirks की पुस्‍तक Castes of Mind पर आधारित

डॉ. मधुसूदन

एक : उद्देश्य

कोई, अगर पूछें, कि, इस प्रस्तुति का उद्देश्य क्या है? उद्देश्य है, इस अलग दृष्टिकोण को प्रस्तुत करना, जिसे मैंने भी कभी सोचा न था।

और उद्देश्य है, राष्ट्र हितैषियों को, चिंतन के लिए, स्वस्थ बहस के लिए आमन्त्रित करना। ऐसी स्वस्थ बहस सत्य को खोजने में योगदान देती है। वाद-विवाद ऐसा योगदान नहीं दे सकता। वाद-विवाद एक वकालत होती है। अपने अपने पक्ष को ही जिताने की वकालत। मैं स्वस्थ बहस में, विश्वास करता हूँ। यही भारतीय परम्परा है। ”वादे वादे जायते शास्त्र बोध :” अर्थ है, वाद-संवाद से, स्वस्थ बहस से सत्य का बोध होता है।

जब अमूर्त विचारों को शब्द देह मिलता है, तो चिन्तन-मनन-मन्थन-संवाद इत्यादि, आप ही आप शुरू हो जाता है। इस उद्देश्य से ही, विचार रखे जा रहे हैं। यही एकमेव सत्य है, ऐसा ठप्पा इस पर मैं नहीं मारता। विचारों को सुनने-पढने के बाद, आप इन विचारों को स्वीकार करने के लिए, बाध्य नहीं है। आपने इन विचारों को सुना या पढा यह मेरे लिए कम संतोष जनक नहीं। इसी से मेरा उद्देश्य सफल मानता हूँ।

दो: अलग दृष्टिकोण

आज मुझे भी जो ”हितकर” लगता है, हो सकता है, कि, वही, कल आप सभी बंधुओं के विचार सुनने पर, ”हितकर” ना भी लगे, तो मैं अपना मत ज़रूर बदल सकता हूं।

मानता और जानता हूँ, कि अलग दृष्टिकोण को अधिक सहानुभूति से देखना होता है, कहीं वह सच ना निकल जाए? अहंकार को अपने कथन से जोडकर विचारना भी सच खोजनेवालों के लिए श्रेयस्कर नहीं होता, यह भी मैं जानता हूँ।

तीन : धूर्त-कथा

एक लोक प्रसिद्ध धूर्त-कथा है; जिस कथा में, एक सीधा-सादा ग्रामीण, एक बकरी का बच्चा कांधे पर लादकर जा रहा होता है। रास्ते में तीन ठग, उस ग्रामीण को भरमाकर उसका बकरी का बच्चा हथिया लेते हैं? तीनों ठग बारी बारी से उसे यह पूछते हैं, कि भाई यह कुत्ते को कंधे पे लादकर कहां जा रहे हो? पहली बार ठग के ऐसा पूछने पर, उसे विश्वास नहीं होता। कुछ आगे जाने पर, दूसरा ठग भी दूसरी बार वही प्रश्न पूछता है, तो, उसे कुछ संदेह होना प्रारंभ होता है। पर, जब तीसरी बार यही प्रश्न पूछा जाता है, तो वह भ्रमित हो जाता है, और कुत्ता मान कर, उस बकरी के बच्चे को कंधेसे उतार कर झिडक कर छोड देता है। उसे छोडते ही, ठग उसी बच्चे को उठाकर भाग जाते हैं।

चार : अधोगति का मूल?

हमारी स्थिति इसी ग्रामीण जैसी है।

किसी झूठ को बार-बार कहे जाने से वह सच लगने लगता है।

बार बार हमें कहा जाता है, कि आपकी वर्ण व्यवस्था अधोगति का कारण है। आपकी जाति-व्यवस्था आपके पतन का कारण है, यहां तक कि एक बहुत ख्यातनाम स्वामी जी ने एक प्रादेशिक भाषा में पुस्तक लिखी, नाम है ”वर्ण व्यवस्था, अधोगति नुं मूळ” अर्थ है ”वर्ण व्यवस्था अधोगति का मूल”

जब एक बुद्धि मान स्वामीजी को भी ऐसा लगता है। तो सर्व सामान्य जनों की क्या कही जाए? मैं भी ऐसे ही मानता था, इस ”Castes of Mind” पढने से पहले। अभी भी कोई निश्चित भूमिका पर नहीं पहुंचा हूँ।

पांच: धूर्त अंग्रेज़

१८५७ के स्वतंत्रता संग्राम के अंत में, जब धूर्त अंग्रेज़ ने देखा कि, सारा भारत जाति-पांति के धर्म-मज़हब के पंथ-संप्रदाय के भेदों को पाटकर एकजुट हो कर विदेशी सत्ता से लडने के लिए कटिबद्ध हुआ था; तो, समाज पुनः इसी प्रकार संगठित होकर दूसरे स्वतन्त्रता संग्राम की संभावना को जड-मूल से क्षीण करने के लिए, उसने अनेक उपाय खोजे। तो उसने ”फूट डालो और राज करो” इस नीति का ही आश्रय लेकर, समाज को विघटित; और जाति व्यवस्था को विकृत करनेका प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष, धूर्त प्रयास किया।इस नीति के अंतर्गत जाति का ही उपयोग अंग्रेज़ शासन ने अपने हित में, सामाजिक व्यवस्था को विकृत करने में किया। जिस से शासन क्षमता में वृद्धि तो हुयी, पर जिस स्वस्थ जाति व्यवस्था ने भारत की परकीय धर्मांतरण और सांस्कृतिक आक्रमणों से युगानुयुगों से रक्षा की थी, उसी में विकृति आयी। इस कुत्सित, रीति-नीति से शासन टिकाने में उसे सहायता तो हुयी, पर भारत की स्वस्थ जाति व्यवस्था ऐसी गडबडा गयी-ऐसी विकृत हुयी, कि इसके परिणाम से, आज तक भारत मुक्त हो कर स्वस्थ नहीं हो पाया है।

छ: १८५७ के बाद

(Page 178-180) १८५७ के बाद, जाति के संदर्भ में ब्रीटीश रूचि नए प्रकार से गहरी हुयी। जिला जिला के रिकार्ड स्थानिक जातियों के सविस्तर वर्णनों से, उनकी रीति-रूढियों से, भरे गए। राज्य संचालित सर्वेक्षण जाति केंद्रित हुआ। और १९७२ की जनगणना आते आते तो जाति ही अन्वेषण का प्राथमिक हेतु ही बन गयी। १८७२ की जनगणना में तो जाति आधारित वर्गीकरण ही प्राथमिक महत्व का हो गया था। (Page 15)

उसी प्रकार से १८५७ के बाद (Martial Races)-लडाकु जातियों की खोज की गयी। जिस के आधार पर, पंजाबी, सिख, नेपाली गुरखा, पठान, डोगरा और राजपूत, इत्यादि जातियों को वरीयता (Priority) दी गयी। और उनकी अलग अलग इकाइयां जैसे सिख रेजिमेंट, गुरखा रेजिमेंट इत्यादि गठित किए गए। किसी प्रदेश में आंदोलन होने पर अलग प्रदेश के रेजिमेंट को भेजना प्रारंभ हुआ।

दक्षिण की जातियों को सेना से दूर ही रखा गया। दक्षिण की जातियां सेना के लिए अयोग्य मानी गयी। MacMunn कहता था, कि उत्तर की जातियां अधिक लडाकू और स्वामी भक्त होती हैं। पंजाबी, सिख, राजपूत, नेपाली, गुरखा इत्यादि तो स्वामी भक्ति पर कुरबान हो जाते थे। इसलिए, मद्रासी बटालियनों को ४० से घटाकर २४ कर दिया गया।(Page 178-180)

सात: परिणाम

इसी की अलग अभिव्यक्ति थी, इस्लाम के अनुयायियों को अलग सुविधाएं देना, भारतीय राजे रजवाडों को मान सम्मान देकर जनता से अलग करना, उन्हें इंग्लैंड में पढने के लिए (जैसा) सुविधाएं उपलब्ध कराकर सामान्य जनता से अलग करते हुए समाजमें फूट डालना, अंग्रेज़ी पढे हुए लोगों को भी जनता से अलग सम्मान दिया जाना, इत्यादि।

अंग्रेज़ी पढा हुआ आज भी, यदि अपने आप को श्रेष्ठ मानता है, तो उसका कारण क्या है? यह उसी नीति का अवशेष है।

आज यदि हमारा शासन, वित्त-मंत्री, गृह मंत्री, इत्यादि, अंग्रेज़ी में बोलते है, तो उसका कारण कहां छिपा हुआ है?

भ्रष्टाचार का एक महत्व पूर्ण कारण भी ”अंग्रेज़ी” है। यह हमें स्वीकार करने में कठिनाई नहीं होनी चाहिए।

कुछ लोग हम में से अंग्रेज़ी पढे हुए हैं। उन में से बहुसंख्य अपने को बाकी जनता से अलग थलग समझने लगते हैं। वे अपने आप को ”अति शिक्षित” समझते है, पर जिस जनता के वे सेवक हैं, उन्हें हीन समझते हैं।

अपनी ही जनता से दूर की पहचान में बडप्पन का अनुभव करते हैं। गोरे रंग के प्रति गौरव भाव और काले रंगके प्रति हीन भाव, यह भी तो उसीका परिणाम हो सकता है। क्यों? क्यों? क्यों?

आठ :मिशनरी और जातियां

मिशनरी और जातियां। (Page 130 C M ) भारतीय-विद्या-विशेषज्ञ (Indologist), मॅक्समूलर के अप्रैल-१८५८ के निबंध में लिखते हैं, कि विप्लव का कारण जाति मानी गयी थी। एक मत कहता है, कि जाति को कम महत्व दिया गया, दूसरा कहता है, कि ज्यादा दिया गया।

पर चरबी लगी काडतूस जिसमें सुअर और गौ की चरबी लगी थी, उसे बन्दूक में भरने से पहले, फौजियों को दांतोसे फाडनी पडती थी। सैनिक इसे जान बुझकर उनकी जाति भ्रष्ट करने की गयी, साजिश मानते थे। इसी कारण, सैनिक अत्यधिक क्रोधित थे, उन्हें लगता था कि ऐसा करने से उन्हें अपनी जाति गँवानी पडेगी। {माना गया कि इसी कारण विद्रोह हुआ। }१८५७ की आज़ादी की (उनका शब्द विप्लव) लडाई का प्रमुख कारण न्य़ूनाधिक मात्रा में जाति माना गया था।

नौ: जाति कुचलो, धर्मांतरण के लिए।

इस पर एक उपचार के रूप में, मिशनरियों का कहना था, कि ”शासन ने, जाति पर प्रखर हमला बोल कर, कुचल देनेका समय आ गया है।”

मिशनरी शिकायत करते ही रहते थे, कि

”जाति धर्मान्तरण के काम में सबसे बडी बाधा है, और जाति से बाहर फेंके जाने का भय धर्मान्तरण में सबसे बडा रोडा है।”

कुछ मिशनरियों ने तर्क दिए थे, ”और जातियों को बल पूर्वक तोड देने की सिफारिश की थी,” निश्चित ही, धर्मांतरण को, आसान करने के लिए।

पर, शासकों को यही, (पादरियों का ) विवेचन बलवे (विप्लव) का कारण लगने लगा था। बहुत सारे मिशनरियों ने, इस स्वर्ण अवसर का लाभ उठानेकी दृष्टि से सिफारिश की थी, कि–”भारत पर ईसाइयत बल पूर्वक लादी जानी चाहिए, इस ”विद्रोह के रोग” के उपचार के लिए, ना कि दंड (सज़ा) के लिए। {दया वान जो ठहरे ! वे शासन को भी उकसाने में लगे हुए थे।-लेखक}

दस: मिशनरी पाठ्य क्रम का रचयिता।

मिशनरी पाठ्य क्रम का रचयिता, मिशनरी अलेक्ज़ान्डर डफ़, १८२९ में भारत आया तब से जाति का कटु-निंदक था। उसे चिन्ता बनी रहती थी, कि उसकी ईसाई पाठ-शालाओ में आने वाले छात्र केवल नी़ची जातियों के ही क्यों आते है? (यह ”नीची जाति” उन्हीं का शब्द है, मेरा नहीं।)

कहा करता था, कि, ”मूर्ति-पूजा और अंध-विश्वास, इस महाकाय (हिन्दु) समाज के ढाँचे के, ईंट और पत्थर है; और जाति है, इस ढांचे को जोडकर रखनेवाला सिमेन्ट।”

पर उसी ने प्रस्तावित करने के कारण, १८५० की, मद्रास मिशनरी कान्फ़रेन्स ने, अपने (रपट) वृत्तान्त में लिखा था, कि ”यह जाति ही, इसाइयत के दिव्य संदेश (Gospel) को, भारत में, फैलाने में सबसे बडी बाधाओं मे से एक है।”

आगे कहता है,

”यह जाति कहां से आयी पता नहीं, पर

अब यह हिन्दु धर्म का अंग बन चुकी है।”( page 131)

ग्यारह : नेहरू जी

”डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया” में नेहरू जी भी मानते हैं, कि, ”इसी जाति व्यवस्था ने, बुद्ध धर्म के प्रबल आघात को, और अनेक शताब्दियों के अफ़गानी और मुगली शासन के जोरदार थपेडों को, झेला था; और इस्लाम को फैलने से रोका था।”

पर वे स्वीकार करते थे, कि आखिर जाति भी आर्थिक कारणों से ढहना शुरू हो गयी है, पर नेहरू जी भी कि- ”जाति के ढहने से क्या, क्या बेलगाम (अनियंत्रित ) बदलाव आएंगे और वे कैसे होंगे?” इस विषय में दुविधा थी। (page 3)

बारह: विवेकानन्द जी

पर स्मरण है, कि विवेकानन्द जी कहते हैं,

”पुरानी परम्पराओं को ध्वस्त करने के पहले, उनके स्थान पर जो नयी परम्परा स्थापन की जा रही है, वह पुरानी परम्परा से अधिक अच्छी है या नहीं?” उसकी सफलता का क्या इतिहास है? वह टिकेगी या नहीं? इसके बारे में क्या अध्ययन किया है?

क्या उत्तर है?

क्रमश:

9 COMMENTS

  1. आदरणीय मधुसुदन जी ने बहुत ही महान कार्य किया है इस लेख के द्वारा. वाकई अंग्रेजो ने बहुत बड़ा सध्यंत्र किया था इस देश पर राज करने के लिए. इसी जाती व्यवस्था के नाम पर हिन्दू धर्म को पूरी दुनिया में बदनाम करने की कोशिश की जाती रही है.

  2. विद्यार्थी जीवन छूटे बहुत लम्बा समय बीत चुका है. प्रोफ मधुसूदन जी के लेख पढ़ कर ऐसा लगने लगा है की मुझे फिर से एक परम आदरणीय विद्वान आचार्य की कृपा से ऊनकी क्लास में बैठने की अनुमति मिल गई है और एक और विषय पर मुझे अपने अज्ञान को दूर करने का शुभ अवसर अनायास ही प्राप्त हो रहा है. अनेक धन्यवाद

  3. जातीयता का विचार व्यक्ति के मन में इस तरह थोप दिया जाता है की वो विचार ही उसके लिए सीमा रखा बन जाता है इससे बचने के लिए धर्म का आचरण करना सीखे

  4. diksha जी सविनय धन्यवाद। आप की अपेक्षाओं को पूरी करने का प्रयास करूंगा। वैसे मैं अपनी ही जिज्ञासाओं की पूर्ति हेतु पढ रहा था, पर फिर प्रवक्ता का सफल माध्यम बहुत लाभकारी प्रमाणित हो रहा है, जो मैं ने सोचा न था। प्रवक्ता के कारण ही, संक्षेप में ही सही, पर, पुस्तक का केंद्रीय विचार सरलता से सभी पाठकों तक पहुंचाया जा सकता है।
    यह बहुत बडी उपलब्धि है। फिरसे आपका धन्यवाद करता हूं।

  5. विद्वान लेखक और विचारक प्रो. मधुसूदन जी ने अद्भुत कार्य किया है. इस विषय पर विश्व में आज तक जो भी लेखन हुआ, वह हम भारतीयों के लिए अज्ञात था. इस बंद खिड़की हो खोलने का एक अविस्मर्णीय कार्य इनके द्वारा हुआ है. इस हेतु अभिनन्दन. अगली कड़ी की प्रतीक्षा रहेगी. ## धर्मपाल जी के शोध ग्रंथों के अनुसार एडम और मैकाले द्वारा १८२० से १८३५ तक किये गए सर्वेक्षणों के अनुसार उन्हें भारत में एक भी अस्पृश्यता का प्रमाण नहीं मिला. ”द ब्यूटीफुल ट्री” नामक पुस्तक में दी सर्वेक्षण रपटों के अनुसार मद्रास प्रेजीडैन्सी में तब की (१८२०-१८३५) पाठशालाओं में लगभग २०% द्विज (स्वर्ण) तथा ८०% अन्त्यज (शूद्र) एक साथ पढ़ते-पढ़ाते थे. अनेक शिक्षक तो शूद्र से भी निम्न जाती के चंडाल थे. शिक्षकों और छात्रों में लगभग यही अनुपात था. केवल चेन्नई के विद्यालयों में ब्राहमण शिक्षक और छात्र ४०% के आसपास थे. पर विशेष बात यह है कि शूद्र और चांडाल छात्र भी उनके साथ बिना भेदभाव के रहते पढ़ते थे. सर्वेक्षणों के अनुसार मुस्लिम छात्र-छात्राएं भी अनेक पाठशालाओं में साथ पढ़ते थे. ऐसा लगता है कि जातियों में समाज का विभाजन तो था पर उनमें अस्पृश्यता, छुआ-छूत आदि तब तक प्रचलित नहीं हुए थे. कार्यों के विभाजन के अनुसार बनी जातियों के बंधन बहुत पक्के नहीं थे. एक जाती का व्यक्ति अपने व्यवसाय को बदल कर दुसरे व्यवसाय में चला जाता था. तभी तो शूद्र और चंडाल शिक्षक भी थे, बल्कि एक समय तो ब्राहमणों से अधिक थे ( जब के अंग्रेजों के सर्वेक्षण उपलब्ध हैं) अतः प्रो मधुसूदन जी द्वारा दिए प्रमाणों व निष्कर्षों के अनुसार यह अस्पृश्यता का रोग १८५७ की क्रान्ति के बाद भारत में बड़ी मेहनत से कुटिल अंग्रेजी शासकों व ईसाई प्रचारकों, पादरियों द्वारा फैलाया गया. भारत के लियी आज एक अभिशाप बन चुके इस रोग की जड़ों तक पहुँचने के प्रयास इसकी जड़ों को उखाड़ने में सहायक सिद्ध हो सकते हैं. ऐसा न हुआ तो भी सच तो सामने आना ही चाहिए फिर वह अछा-बुरा जो भी हो. सच को छुपाने के प्रयास तो बेईमानी है और अनैतिक है. क्या हम इतिहास में भी षड्यंत्रों को सहन करेंगे ? सच पर १५० साल से डाले गये पर्दों को उठाने का समय लगता है कि निकट आ गया है जिसमें प्रो. मधुसूदन जी का कार्य एक मील पत्थर साबित हो सकता है. शुभकामनाएं व साधुवाद !

  6. vimlesh जी धन्यवाद| ३ रे लेखा की प्रतीक्षा कीजिए| पर एक माह दीर्घ प्रवास पर रहूंगा| मैं तब तक प्रति क्रियाओं की बाट देखूंगा|
    और-
    Himwant जी आपकी बात बिलकुल सही मानता हूँ| भेद करने वाला कभी भाषा, कभी प्रदेश, कभी आर्थिक स्तर, कभी पढ़ाई, या अंग्रेजी पढ़ाई, अगड़ा, पिछड़ा, —-ऐसे अनेक कारणों से भेद कर सकता है| तो क्या हरेक कारण को मिटा दें? मूल भेद मनमें ही है| भेद करनेवाला किसी भी कारण से भेद कर लेगा|
    उचित संस्कार से भेद मिटाना ही श्रेयस्कर होगा| इससे जनता भी संस्कारित हो जायगी| भेद की जड़ मनमें है| वहांसे भेद मिटने पर सभी कारणों से भेद मिट सकता है| बाकी शोर्ट कट कुछ नहीं कर पाएँगे| आगे और लेखों की प्रतीक्षा करें| पर अगला महिना दीर्घ प्रवास पर हूँ|

  7. बहुत अच्छे. जातीय विभेद का हम इलाज कर पाए तो जाती व्यवस्था के अपने फायदे है.

  8. मधुसुदन जी शत शत नमन
    ज्ञान चक्षु उघारने के लिए किन्तु अफ़सोस समाज के कुछ पढ़े लिखे लोग इस शाश्वत सत्य को स्वीकार न करके अपना श्रेस्ठाव दिखायेंगे .

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