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मेरा धर्मग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश

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मनमोहन कुमार आर्य

   मनुष्य मननशील प्राणी को कहते हैं। जो मनुष्य योनि में जन्म लेकर भी मनन नहीं करता और परम्परागत विचारधारा व मान्यताओं को आंख बन्द कर स्वीकार करता है ऐसे मनुष्य की आकृति  वाले प्राणी को अनेक अविवेकपूण परम्पराओं के बुद्धि और तर्क संगत अर्थात् सत्य पर आधारित न होने के कारण मनुष्य अर्थात् सत्यासत्य विवेकी मनुष्य नहीं मान सकते। मनुष्य जीवन का महत्व तभी है जब मनुष्य किसी भी मान्यता को स्वीकार करने से पहले उसकी सत्यता अर्थात् यथार्थता को जान ले और सत्य होने पर ही उसका आचरण करें। जो मनुष्य ऐसा करते हैं वह धन्य होते हैं और जो ऐसा नहीं करते अर्थात् असत्य व अविवेकपूर्ण परम्पराओं व मान्यताओं का निर्वाह करते हैं, वह मनुष्य होकर भी अपने पूर्व जन्मों के शुभ कर्मों से प्राप्त सर्वोत्तम मनुष्य जीवन को वृथा गंवाते हैं। ऐसे मनुष्यों के सम्पर्क में जो आता है उनका जीवन भी उन जैसा ही होने की संभावना रहती है जिससे वह मनुष्य अपना जीवन तो वृथा करता ही है, अपनी सन्ततियों एवं अन्यों का जीवन भी वृथा करने का पाप अपने सिर पर लेता है। अतः सभी मनुष्यों, धर्माचार्यों, मताचार्यों और बुद्धिजीवियों का कर्तव्य है कि वह निष्पक्ष होकर सत्यासत्य की परीक्षा कर सत्य को ही स्वीकार करें और असत्य का न केवल तिरस्कार वा त्याग ही करें, चाहें वह बड़े से बड़े महापुरुष व युगपुरुष द्वारा प्रवर्तित ही क्यों न हो, अपितु इसके साथ साथ उसका खण्डन व प्रचार कर दूसरे लोगों को भी पाप के कूप में गिरने से बचाना चाहिये।

 

मनुष्य जब जन्म लेता है तो उसे किसी भाषा का ज्ञान नहीं होता है, अन्य विषयों के ज्ञान होने का तो प्रश्न ही नही होता। सबसे पहले वह अपनी माता से उसकी भाषा, मातृभाषा, को सीखता है जिसे आरम्भिक जीवन के दो से पांच वर्ष तो नयूनतम लग ही जाते हैं। इसके बाद वह भाषा ज्ञान को व्याकरण की सहायता से जानकर उस पर धीरे धीरे अधिकार करना आरम्भ करता है। भाषा सीख लेने पर वह व्यक्ति उस भाषा की किसी भी पुस्तक को जानकर उसका अध्ययन कर सकता है। संसार में मिथ्या ज्ञान व सद्ज्ञान दोनों प्रकार के ग्रन्थ विद्यमान हैं। मिथ्या ज्ञान की पुस्तकें, भले ही वह धार्मिक हां या अन्य, उसे असत्य व जीवन के लक्ष्य से दूर कर अशुभ कर्म वा पाप की ओर ले जाती हैं। सद्ग्रन्थों में ही यह शक्ति होती है कि वह मनुष्य को उसके जीवन के लक्ष्य सहित जीवन निर्वाह के लिए कृषि, वाणिज्य, चिकित्सा, भवन निर्माण, अध्यापन, ज्ञान-विज्ञान के प्रचार व प्रसार सहित लोगों को न्याय दिलाने व किसी से होने वाले अन्याय को दूर करने की शिक्षा व ज्ञान को प्रदान करती हैं। जो व्यक्ति सद्ज्ञान को प्राप्त हो जाता है उसके जीवन का कल्याण होता है और जो मिथ्याज्ञान वाले जाल ग्रन्थों में फंस जाता है उसका जीवन नष्ट व बर्बाद हो जाता है। अतः जीवन में स्वार्थी, लोभी, धर्मान्ध, मतान्ध, अज्ञानी, दुष्कर्मियों आदि के चक्र में नहीं फंसना चाहिये। आजकल यह सब लोगों को अपनी अपनी ओर खींचने में लगे हुए हैं। मनुष्य को सद्ग्रन्थों का ज्ञान प्राप्त अपनी ज्ञान की आंखों से वस्तुओं व मान्यताओं की परीक्षा करनी चाहिये और तर्क की कसौटी पर सत्य बातों को ही स्वीकार करना चाहिये जैसा कि स्वामी दयानन्द व उनके अनुयायी करते हैं।

 

संसार के साहित्य पर दृष्टि डालें तो विश्व के समग्र साहित्य में ‘सत्यार्थप्रकाश’ के समान सत्य मान्यताओं व धर्माधर्म, कर्तव्याकर्तव्य, ईश्वरोपासना, यज्ञ-अग्निहोत्र व अन्य सभी विषयों का यथार्थ ज्ञान प्राप्त कराने वाला कोई दूसरा ग्रन्थ नहीं है। सत्यार्थप्रकाश को सामान्य व्यक्ति भी पढ़कर उसके मूल भावों को जान सकता है व उन्हें आत्मसात कर सकता है। आप विश्व का साहित्य पढ़ लीजिए और सत्यार्थप्रकाश पढ़ लीजिए, सत्यार्थप्रकाश सब पर भारी पड़ता है। ईश्वर का सत्य व यथार्थ स्वरूप, जीवात्मा का स्वरूप, प्रकृति का स्वरूप व सृष्टि विषयक ज्ञान की आवश्यकता हो तो एक बार सत्यार्थप्रकाश अवश्य पढे। आज हमारे वह महापुरुष जिनकी हमारे भाई-बन्धु पूजा करते हैं, जीवित होते तो वह सत्यार्थप्रकाश की महिमा का अवश्य गान व प्रचार करते। सत्यार्थप्रकाश एक ऐसा ग्रन्थ है जिसमें सभी मान्यतायें वेदों की मान्यताओं के अनुरुप व उसकी पोषक हैं। जन्म से मृत्यु तक के प्रायः सभी व्यवहारों पर प्रामाणिक जानकारी सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ में प्राप्त होती है। आईये, सत्यार्थप्रकाश में वर्णित कुछ विषयों पर एक दृष्टि डाल लेते हैं। सत्यार्थप्रकाश में सत्यार्थप्रकाश के लेखन का प्रयोजन, ईश्वर नाम व्याख्या, मंगलाचरण समीक्षा, बाल शिक्षा विषय, भूतप्रेत आदि निषेध, जन्म पत्र सूर्यादि ग्रह समीक्षा, अध्ययन अध्यापन विषय, गुरुमंत्र वा गायत्री मंत्र की व्याख्या, प्राणायाम शिक्षा, सन्ध्या अग्निहोत्र उपदेश, उपनयन समीक्षा, बह्मचर्य उपदेश, पठन पाठन की विधि, ग्रन्थ प्रमाण अप्रमाण विषय, स्त्री-शूद्र अध्ययन विधि व वेदाध्ययन में इनका अधिकार, दूर देश में विवाह से लाभ, अल्प वय में विवाह का निषेध, गुण कर्म अनुसार वर्ण व्यवस्था, स्त्री पुरुष व्यवहार, पंच महायज्ञ, पाखण्ड तिरस्कार, प्रातः जागरण, गृहस्थ धर्म उपदेश, पण्डित व मूर्ख के लक्षण, पुनर्विवाह व नियोग विषय, वानप्रस्थ व संन्यास आश्रम विधि, राजधर्म विषय, दण्ड व्यवस्था, 18 व्यसनों का निषेध, युद्ध करने के प्रकार, राष्ट्र रक्षा की विधि, कर ग्रहण प्रकार, ईश्वर विषय, ईश्वर स्तुति प्रार्थना उपासना, ईश्वर ज्ञान प्रकार, ईश्वर का अस्तित्व, जीवात्मा की स्वतन्त्रता, ईश्वर व जीव में भिन्नता, ईश्वर की सगुण व निगुण उपासना, वेद विषय विचार, सृष्टि उत्पत्ति आदि विषय, मनुष्यों की आदि सृष्टि के स्थान का निर्णय, ईश्वर द्वारा जगत का धारण, विद्या-अविद्या-बन्धन-मोक्ष विषय, आचार-अनाचार-भक्ष्य-अभक्ष्य विषय आदि अनेकों विषयों का विशद वर्णन है। सत्यार्थप्रकाश पढ़कर इन सभी विषयों का यथार्थ ज्ञान उपलब्ध होता है। यह समस्त ज्ञान विश्व के किसी एक ग्रन्थ में एक स्थान पर उपलब्ध नहीं होता। सत्यार्थ प्रकाश के अन्त के चार अध्यायों में भारतवर्षीय मत-मतान्तरों सहित नास्तिक वाममार्गियों, चार्वाक, बौद्ध, जैन, ईसाई व मुस्लिम मत की समालोचना भी पाठकों के लिए सत्य व असत्य का सरलता से निर्णय करने के लिए दी गई है। इस ग्रन्थ का अध्ययन कर मनुष्य सत्य धर्म, सत्य मान्यताओं एवं विचारधारा का निर्णय कर सकता है।

 

सत्यार्थप्रकाश का अध्ययन करने से यह ज्ञात होता है कि मनुष्य को  प्रातःकाल लगभग चार बजे शय्या का त्याग कर देना चाहिये। शौच से निवृत होकर वायुसेवन के लिए जाना चाहिये, व्यायाम व प्राणायाम आदि कर ईश्वर का ध्यान ‘सन्ध्योपासना’ व दैनिक अग्निहोत्र करना चाहिये। गृहस्थ के व्यवहारों सहित बच्चे, बड़ों व वृद्धों के कर्तव्यों का ज्ञान भी सत्यार्थप्रकाश सहित ऋषि दयानन्द के अन्य ग्रन्थों में प्राप्त होता है। परोपकार, वृद्धों की सेवा, पात्रों को दान, देशभक्ति, अन्धविश्वासों के प्रति उपेक्षा भाव की शिक्षा भी सत्यार्थप्रकाश पढ़कर मनुष्य को प्राप्त होती है। देश के इतिहास विषयक अनेक तथ्यों का ज्ञान सत्यार्थप्रकाश से होता है जो अन्यथा नहीं होता। सत्यार्थप्रकाश ऐसा ग्रन्थ है जिसने देश में वैदिक सनातन धर्म व पौराणिकों की रक्षा की है। सत्यार्थप्रकाश ऐसा ग्रन्थ है जिसने अन्य सभी मतों को उनके धर्म व मत का यथार्थ स्वरूप भी बताया है जो कि वैदिक धर्म से किंचित भी अच्छा नहीं है। सत्यार्थप्रकाश वेदों की प्रत्येक मान्यता व सिद्धान्त को बुद्धि की कसौटी पर कस कर उसे तर्क व सृष्टि क्रम के अनुरूप सिद्ध करता है और उसे ही मानने का प्रचार करता है। देश की आजादी और देश से छुआछूत, जन्मना जातिवाद, अवतारवाद, मूर्तिपूजा, फलित ज्योतिष, मृतक श्राद्ध व सभी अवैदिक मान्यताओं का सत्य स्वरूप सत्यार्थप्रकाश देश व विश्व के लोगों के सामने रखता है और सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग करने की प्रेरणा करता है। सत्यार्थप्रकाश ने देश में चल रहे ईसाई व मुस्लिम धर्मान्तरण पर सत्य के प्रचार व वैदिक धर्म की श्रेष्ठता दर्शा कर उस पर किंचित अंकुश लगाया है। देश को आजाद कराने का मूल मंत्र भी स्वामी दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश सहित अपने अन्य ग्रन्थों में दिया है।

 

सत्यार्थ प्रकाश ग्रन्थ संसार में सूर्य के समान है जो अज्ञानान्धकारजनित असत्य, मिथ्या मान्यताओं व अन्धविश्वासों को दूर कर सत्य मान्यताओं का प्रकाश करता है। सत्यार्थ प्रकाश की शरण में आने वाला मनुष्य आत्मा व ईश्वर के यथार्थ स्वरूप को जानकर ईश्वरोपासना व वैदिक कर्तव्यों के पालन से अशुभ कर्मों को छोड़कर शुभ वा पुण्य कर्मों को करके व स्वाध्याय करके अविद्या से छूट कर मोक्ष को प्राप्त होता है। यह लाभ संसार के किसी अन्य मत का अनुकरण व अनुसरण करने से प्राप्त होना बुद्धि व तर्क से सिद्ध नहीं होता। अतः दुःखों से सर्वथा मुक्ति चाहने वाले मनुष्यों को  दुःखों से निवृत होने, जीवन में अभ्युदय को प्राप्त होने तथा मृत्योत्तर जीवन में जन्म व मरण के चक्र से छूट कर मोक्ष को प्राप्त करने के लिए सत्यार्थप्रकाश तथा वेदों की शरण में आना चाहिये। जो आयेगा वह लाभान्वित होगा। जो नहीं आयेगा, वह मत-मतान्तरों में भटकेगा तो उसे अविद्या से होने वाली हानियों को सहन करना होगा। ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, जन्म व मृत्यु का देने वाला है। कोई भी मनुष्य उसके न्याय से बच नहीं सकता। अतः सत्यार्थप्रकाश को पढ़कर अपने जीवन का निर्णय स्वयं लें। सत्यार्थप्रकाश पढ़े और उसके बाद दुनियां के सारे मत-पन्थों के धर्म ग्रन्थों को पढ़े़ं, कोई आपत्ति नहीं है। सत्य को जान लेने के बाद असत्य का प्रभाव नहीं होता। जिसे अपनी आत्मा की उन्नति व उससे होने वाले लाभों का ज्ञान है वह सत्य को ही स्वीकार करता है और असत्य को विष जानकर उसी प्रकार से छोड़ देता है जैसे की विष मिले हुए अन्न को साधारण मनुष्य भी छोड़ देता है, उसे खाता नहीं है।

 

सत्यार्थ प्रकाश के महत्व के बारे में और भी बहुत कुछ कहा जा सकता है। सत्यार्थप्रकाश को पढ़कर वेदों का तात्पर्य विदित हो जाता है। वेदों को अवश्य पढ़ना चाहिये। वेदों का पढ़ना-पढ़ाना और सुनना सुनाना सब मनुष्यों वा आर्यों का परम धर्म है। जो इसका पालन करते हैं वह अविद्या से दूर होकर विद्या व कर्मोपासना से मोक्ष वा मुक्ति को प्राप्त होकर अपने जीवन को सफल करते हैं। सत्यार्थप्रकाश आज आधुनिक मनुष्यों सभी का धर्मग्रन्थ हैं। यह ऋषि दयानन्द द्वारा वेद मन्थन से प्राप्त नवनीत के समान है। एक बार सबको सत्यार्थप्रकाश को समझकर इसका अवश्य अध्ययन करना चाहिये जिससे मृत्यु के समय व बाद में पछताना न पड़े। स्वयं तो सत्यार्थ प्रकाश पढ़े ही, साथ ही दूसरों को पढ़ाकर भी पुण्य का भागी होना चाहिये। ओ३म् शम्।

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