भूली बिसरी यादों को जिंदा करने का षड्यंत्र रचता केंद्र

सिद्धार्थ शंकर गौतम

अयोध्या के विवादित ढाँचे को गिरे २० वर्ष होने जा रहे हैं किन्तु धन्य हैं हमारे देश की राजनीतिक पार्टियां तथा उनके कर्णधार नेता जो बार-बार देश को उस ज़ख्म की याद दिलाते रहते हैं जो धार्मिक उन्माद का एक ऐसा काला सच था जिसे लोग भूलना चाहते हैं| हालांकि हिन्दू-मुस्लिम एकता को वैमनस्यता को शिखर तक ले जाने वाला यह कृत्य निश्चित रूप से लोगों के दिलो-दिमाग पर अमिट छाप की भांति अंकित है किन्तु इतिहास को सीने से छिपाए रखने का क्या फायदा? वर्तमान में जब दोनों ही समुदायों के अधिसंख्य बुद्धिजीवी अयोध्या मामले को कोई ख़ास तवज्जो नहीं देते तब एक बार पुनः लिब्रहान आयोग की नए सिरे से जांच का क्या फायदा? सरकार की ओर से यह तो अदालत की सरासर अवमानना का मामला बनता है जिसमें मामला शीर्ष न्यायालय में है| हाल ही में लिब्रहान आयोग की रपट को सीबीआइ ने एक बार फिर से खारिज कर दिया है। सीबीआइ ने स्पष्ट कर दिया है कि अयोध्या के विवादित ढांचे को गिराने के लिए किसी साजिश के तहत धन जुटाए जाने की आयोग की आशंका निराधार है। सीबीआइ ने पिछले साल ही आयोग की रिपोर्ट के आधार पर पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी समेत कुछ अन्य भाजपा व संघ नेताओं की भूमिका की नए सिरे से जांच से इंकार कर दिया था किन्तु गृह मंत्री पी. चिदंबरम चाहते थे कि इस मामले की नए सिरे से जांच होनी चाहिए।

सीबीआइ के एक वरिष्ठ अधिकारी के अनुसार गृह मंत्रालय के अनुरोध पर ढांचा ध्वंस के लिए जुटाए गए धन के स्रोतों की विस्तृत जांच की गई लेकिन ऐसा कोई सुबूत नहीं मिला जिससे पता चले कि साजिश के तहत बड़ी मात्रा में धन जुटाया गया था। उनके अनुसार, ६ दिसंबर १९९२ को कारसेवा के आयोजन से जुड़ी संस्थाओं एवं ट्रस्टों के सभी खातों की जांच कर ली गई है। कार सेवा के दौरान ट्रस्टों व संस्थाओं के खातों में महज कुछ लाख रुपये ही जमा थे, वो भी लंबे समय में धीरे-धीरे जमा हुए थे। विवादित ढांचा गिराए जाने के सभी पहलुओं की जांच कर साजिश में शामिल भाजपा एवं विहिप नेताओं के खिलाफ १९९३ में चार्जशीट दाखिल की जा चुकी है और अदालती कार्रवाई भी चल रही है। लिब्रहान आयोग ने इनके साथ-साथ पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और अन्य कई भाजपा एवं संघ नेताओं की भूमिका की जांच करने की सिफारिश कर दी थी। सीबीआई के अधिकारियों का मानना है कि ऐसा सिर्फ रिपोर्ट को सनसनीखेज बनाने के लिए किया गया है।

यहाँ गौर करने वाली बात है कि गृहमंत्री पी. चिदंबरम जिस निष्पक्ष जांच हेतु लिब्रहान आयोग की रिपोर्ट को तवज्जो दे रहे हैं उसकी विश्वसनीयता पर ही सवाल उठते रहे हैं| गौरतलब है कि विवादित ढांचा गिराए जाने के दस दिनों के भीतर १६ दिसंबर १९९२ में लिब्रहान आयोग का गठन किया गया था| सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश एमएस लिब्रहान के नेतृत्व में एक सदस्यीय आयोग को ३ माह के भीतर यानि १६ मार्च १९९३ को रिपोर्ट सौंपनी थी किन्तु आयोग तय समय सीमा में रिपोर्ट नहीं दे सका। लिहाजा आयोग को बार-बार विस्तार दिया गया और अंतिम रूप से ३० जून २००९ को न्यायाधीश लिब्रहान ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को रिपोर्ट सौंपी| इस तरह देखा जाए तो लिब्रहान आयोग को विवादित ढांचा गिराए जाने की जांच रिपोर्ट बनाने में १६ वर्ष ७ माह का समय लगा| १६ दिसंबर १९९२ से ३० जून २००९ तक इसे ४८ बार विस्तार दिया गया तथा इसकी ३९९ बैठकें आयोजित हुईं ताकि आयोग अपनी रिपोर्ट तैयार कर सके| इस पूरी कवायद में लगभग ९ करोड़ के आसपास की धनराशि खर्च हुई| ऐसे में गृहमंत्री का लिब्रहान आयोग पर आँख मूँद कर विश्वास करना समझ से परे है| ऐसा प्रतीत होता है कि केंद्र सरकार को जनसामान्य के मूलभूत मुद्दों की अनदेखी के कारण उपजे विवाद से बचाने हेतु चिदंबरम ने पुनः जनता की भावनाओं का दोहन करने का निश्चय किया है| वैसे भी कांग्रेस का यह चरित्र रहा है कि वह भावनाओं की अतिरेकता पर सवार होकर जनता को बरगलाती है| यदि चिदंबरम अपने कर्तव्यों के प्रति इतने ही ईमानदार हैं तो तत्कालीन केंद्र सरकार के विरुद्ध जांच क्यूँ नहीं शुरू करवाते? क्यों २-जी स्पेक्ट्रम घोटाले में अपने पुत्र का नाम आने के बाद से उनके सुर बदले हुए हैं? संघ परिवार तथा भाजपा के शीर्ष स्तर के नेताओं को बदनाम करने की नीयत से अयोध्या का विवादित मुद्दा पुनः उभारने से पूर्व क्या चिदंबरम बोफोर्स में हुई दलाली की जांच निष्पक्षता से कराने का साहस रखते हैं? शायद नहीं| तब क्यूँ चिदंबरम नक्सल समस्या से पार पाने की बजाए अयोध्या मामले के ज़ख्मों को कुरेदने में लगे हैं? क्या यह चिदंबरम की बतौर गृहमंत्री विफलता को नहीं दर्शाता?

दरअसल अयोध्या मामला हो या बोफोर्स या २००२ में गुजरात में हुए दंगे; राजनीतिक दलों ने रहस्यमयी बन चुके इन मुद्दों को हवा देने में कोई कसर नहीं छोड़ी है| सत्ता शीर्ष पर काबिज़ होने की अतिरेक लालसा में राजनीतिक दलों के स्वयंभू नेताओं का शगल रहा है कि कैसे भी इन मुद्दों को लेकर जनभावनाएं भड़काई जाएँ ताकि स्वयं के कार्य सिद्ध हो सकें| देखा जाए तो भारतीय राजनीति में कुछ मामले ऐसे रहें हैं जिनसे राजनीतिक रोटियाँ सिकती रही हैं और आगे भी सिकती रहेंगी| हालांकि जनता अब जागरूक हुई है और इन मामलों को विशुद्ध रूप से राजनीतिक दलों का सत्ता शीर्ष पर पहुंचे का हथकंडा मात्र मानती है| अब ऐसे मामलों के उभरने से ऐसा कुछ नहीं होता जो कानून व्यवस्था को चुनौती दे किन्तु दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंक कर पीता है| अतः ऐसे मुद्दों को उठाने से पूर्व राजनीतिक दलों को अव्वल तो स्वयं के गिरेवाँ में झांककर देख लेना चाहिए; दूसरे देश की वर्तमान स्थिति की ओर भी दृष्टिपात करना चाहिए| इतिहास को जितना कुरेदा जाएगा वह उतनी ही तकलीफ देगा इसलिए अब बरगलाने की राजनीति बंद होनी चाहिए तथा देश में व्याप्त चुनौतियों से कैसे पार पाया जाए इस पर गंभीर मंथन होना चाहिए|

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सिद्धार्थ शंकर गौतम
ललितपुर(उत्तरप्रदेश) में जन्‍मे सिद्धार्थजी ने स्कूली शिक्षा जामनगर (गुजरात) से प्राप्त की, ज़िन्दगी क्या है इसे पुणे (महाराष्ट्र) में जाना और जीना इंदौर/उज्जैन (मध्यप्रदेश) में सीखा। पढ़ाई-लिखाई से उन्‍हें छुटकारा मिला तो घुमक्कड़ी जीवन व्यतीत कर भारत को करीब से देखा। वर्तमान में उनका केन्‍द्र भोपाल (मध्यप्रदेश) है। पेशे से पत्रकार हैं, सो अपने आसपास जो भी घटित महसूसते हैं उसे कागज़ की कतरनों पर लेखन के माध्यम से उड़ेल देते हैं। राजनीति पसंदीदा विषय है किन्तु जब समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारियों का भान होता है तो सामाजिक विषयों पर भी जमकर लिखते हैं। वर्तमान में दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, हरिभूमि, पत्रिका, नवभारत, राज एक्सप्रेस, प्रदेश टुडे, राष्ट्रीय सहारा, जनसंदेश टाइम्स, डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट, सन्मार्ग, दैनिक दबंग दुनिया, स्वदेश, आचरण (सभी समाचार पत्र), हमसमवेत, एक्सप्रेस न्यूज़ (हिंदी भाषी न्यूज़ एजेंसी) सहित कई वेबसाइटों के लिए लेखन कार्य कर रहे हैं और आज भी उन्‍हें अपनी लेखनी में धार का इंतज़ार है।

3 COMMENTS

  1. शासन से या राजनीति से अयोध्या का प्रश्न नहीं सुलझेगा. इस विषय पर पुनः आन्दोलन खडा करना, उससे बीजेपी को दूर रखना आवश्यक है.

  2. यह बिलकुल सच है कि.सरकार,सरकार ही नहीं बल्कि कांग्रेस,इस मुद्दे का राजनीतिकरण कर केवल जनता कि भावनाओं को ,फिर भड़काना चाहती है.यह केवल वोट लेने का असफल प्रयास है,मुसलमान भी अब अछि तरह जानते है.विरोधी दल की छवि ख़राब कर वह सहानुभूति प्राप्त करने का साधन है.पर यह नहीं समझ रहें है की इसका आगे अंजाम क्या होगा.
    वैसे आगे के अंजाम से इन्हें लेना भी क्या.यह तो आज में जीने वाले लोग हैं.जब तक है देश समाज को बाँटने की राजनीति कर अपना उल्लू सीधा कर रहें है.आप द्वारा उठाये गए सभी प्रशन विचारनीय हैं.देश के गृह मंत्री को अपना कर्तव्य यद् नहीं आता .उनका विवेक देश की साम्प्रदायीकता को भड़काने में ज्यादा लगता है,जोड़ने में नहीं.लानत है इन पर.

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