मिशन उत्तर प्रदेश — विधानसभा चुनाव 2017

Uttar-Pradesh-Election-2017राज्य में मुसलमानों और दलितों का वोट शेयर बहुत अहमियत रखता है। इस पृष्ठभूमि में मुसलमानों या दलितों को वोट देने से पहले न केवल राज्य के समीकरण को समझने की जरूरत है बल्कि अपनी स्थिति का भी खूब अच्छी तरह अनुमान होना चाहिए। साथ ही जो वादे पिछली सरकारों ने उनसे किए थे लेकिन पूरे नहीं किए, उन्हें भी याद रखना चाहिए।
यह सही है की उत्तर प्रदेश भारत का सब से बड़ा राज्य है और बड़ा होने के नाते राजनीतिक क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता आया है। वहीं यह भी सत्य है कि राज्य में ऐसी अनगिनत समस्याएं हैं जिनका समाधान ज़रूरी है लेकिन ऐसा होता नजर नहीं आ रहा है। आजकल राज्य में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा बने हुए हैं और इसी को मद्देनजर रखते हुए छोटे और बड़े सभी राजनीतिक दल सक्रिय दिख रहे हैं। 2017 में उत्तर प्रदेश में होने वाले चुनाव के लिए बिसात बिछने लगी है। सबसे बड़ी लड़ाई जीतने के लिए इस बिसात पर जाति की गोटियां बैठानी शुरू की जा चुकी हैं। इसमें विकास की बात करने वाली भाजपा भी दौड़ में आगे निकलने के लिए पूरी ताकत के साथ रेस में शामिल है।
तथ्य यह है कि बिहार की हार के बाद भाजपा उत्तर प्रदेश को हाथ से जाने नहीं देना चाहती, इस पृष्ठभूमि में उनके नेता मंच पर तो विकास की बात करते हैं पर समीकरण जातीय ही बैठा रहे हैं। प्रदेश में पिछड़ों, अति पिछड़ों, दलितों के लगभग 50 % वोट हैं। इनमें से यादव 19 % निकाल दें तो भी यह प्रतिशत बहुत है जिसे बीजेपी ज़्यादा से ज़्यादा अपनी तरफ गोलबंद करने में जुटी है। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि बिहार चुनाव में भाजपा इसी जाति की कश्ती में सवार होकर डूब चुकी है। अब एक बार फिर उत्तर प्रदेश के चुनाव में इसी कश्ती में सवार होने की तैयारी कर रही है। ऐसे में देखने वाली बात यह होगी कि उत्तर प्रदेश में यह कश्ती चुनावी वैतरणी पार कर पाती है या नहीं।
नरेंद्र मोदी के मंत्रियों में हुई हाल की फेरबदल में भी उत्तर प्रदेश पर विशेष ध्यान दिया गया है। कारण यही है कि प्रदेश के जिन तीन सांसदों को मंत्री बनाया गया है, उनमें दो पूर्वी और एक मध्य (या अवध) क्षेत्र से हैं, और तीनों ही पहली बार लोकसभा के लिए 2014 में चुने गए। यदि प्रशासनिक क्षमता और पार्टी में सक्रियता के नजरिये से देखा जाए, तो तीनों ही भारतीय जनता पार्टी में स्थानीय और सीमित प्रभाव के नेता हैं, लेकिन अपने क्षेत्र में अपनी जाति के लोगों पर प्रभाव डालने में सक्षम माने जाते हैं। मिर्जापुर की सांसद अनुप्रिया पटेल अपनी पार्टी ‘अपना दल’ के आतंरिक विवादों के कारण चर्चित रही हैं, अनुप्रिया कुर्मी समुदाय की प्रमुख नेता हैं और पिछले कुछ दिनों से बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जो स्वयं एक कुर्मी नेता हैं, उत्तर प्रदेश में वाराणसी और आसपास के क्षेत्रों में शराबबंदी अभियान के तौर पर अपना प्रभाव बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं। इसी प्रकार, शाहजहांपुर से सांसद कृष्णा राज भी अपने क्षेत्र में दो बार विधायक रह चुकी हैं और दलित समुदाय में अपनी जाति की प्रभावशाली नेता मानी जाती हैं। दलित समुदाय को लुभाने में लगी बीजेपी का यह निर्णय भी जाति के समीकरण से ही प्रभावित लगता है। लगभग यही विवरण चंदौली के सांसद महेंद्र पाण्डेय पर भी लागू होता है, जो अपने क्षेत्र में ब्राह्मण समुदाय के प्रभावशाली नेता हैं। इस फेरबदल के पीछे एक और चिंता भाजपा की जो सामने आ रही है वह यह भी है कि इन तीन मंत्रियों से अब कम से कम अपने क्षेत्र में कुछ काम कराए जाने की अपेक्षा की जा रही है। ऐसा इसलिए है कि प्रदेश में 73 लोकसभा सदस्य होने के बावजूद बीजेपी के सांसदों पर, कुछ अपवादों को छोड़कर, अपने क्षेत्र में ही निष्क्रिय होने के आरोप लगते रहते हैं। हाल ही में ऐसी रिपोर्ट भी आई हैं कि कई सांसदों ने गोद लिए हुए गांवों में अभी तक कोई विशेष काम नहीं करवाया, और कई ने तो अपनी सांसद निधि का भी उचित इस्तमाल नहीं किया है।
वहीं बसपा की बात की जाए जिसकी सुप्रीमो मायावती यह उम्मीद लगाए बैठे हैं कि इस बार राज्य में उनकी सरकार बनने की ज्यादा उम्मीद है, तो मामला यह है कि बसपा खुद अंदर से कमजोर होती नज़र आ रही है, पार्टी नेता एक-एक करके पार्टी छोड़ रहे हैं और मायावती पर आरोप लगाया जा रहा है कि वे पैसे की शौक़ीन हैं, साथ ही स्थानीय से लेकर राज्य तक के ज़्यादहतर नेता पार्टी में पैसे का खेल खुलकर खेलते आए हैं और यही सिलसिला आज भी जारी है। जिसका उल्लेख न सिर्फ भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने यह कहते हुए किया की बसपा मुखिया मायावती ‘नोट छापने की मशीन’ हैं बल्कि यह भी कहा कि “ सपा, बसपा ‘राहु-केतु’ की तरह है। इनके रहते उत्तर प्रदेश का विकास नहीं हो सकता ”। दूसरी तरफ बसपा को नोट छापने वाली मशीन बना दिए जाने के भाजपा के आरोप का विरोध करते हुए बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की मुखिया मायावती ने अमित शाह के आरोप को घोर जातिवादी व ईर्ष्यापूर्ण मानसिकता का द्योतक बताया है। उन्होंने कहा कि बसपा ने बहुजन समाज को ‘लेने वाले’ से ‘देने वाला’ समाज बनाया है। पार्टी उन्हीं के थोड़े-थोड़े आर्थिक सहयोग से अपने मानवतावादी अभियान को लगातार आगे बढ़ा रही है, जबकि खासकर भाजपा, कांग्रेस और उनकी सरकारें बड़े-बड़े पूंजीपतियों से धन लेने के कारण उनकी गुलामी करती हैं।
बसपा अध्यक्ष मायावती ने यह भी दावा किया कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सरकार गरीबों, मजदूरों, किसानों, दलितों, पिछड़ों तथा धार्मिक अल्पसंख्यकों में से ख़ासकर मुस्लिम और ईसाई समाज के लोगों के हितों के ख़िलाफ तथा पूंजीपतियों के लिए ही काम करने की वजह से अपनी विश्वसनीयता खोती जा रही है। इसी वजह से विभिन्न राज्यों के विधानसभा चुनावों में उसकी लगातार हार हो रही है। वहीं पिछले दो वर्षों में विदेश भ्रमण कर अपनी ‘इमेज मेकओवर’ को जितना महत्व दिया है उससे भी स्पष्ट होता है कि उन्हें देश की ज्वलन्त समस्याओं जैसे बढ़ती महंगाई, गरीबी, बेरोजगारी, सड़क, बिजली, पानी, सूखा तथा बाढ़ आदि को प्राथमिकता के आधार पर दूर करने की कितनी चिन्ता है ? इन परिस्थितियों में अगर मायावती की बात मान भी ली जाए जो उन्होंने अमित शाह, मोदी और उनकी सरकार के बारे में कही, और जो बहुत हद तक सही भी है, इसके बावजूद बसपा से बाग़ी हुए स्वामी प्रसाद मौर्य और परमदेव यादव की बातों को कैसे नज़र अंदाज़ किया जासकता जिसमें उन पर पैसा लेकर ओहदा देने की बात सामने आई है ?
उत्तर प्रदेश में होने वाले विधानसभा चुनाव में बेहतर प्रदर्शन और सफलता की इच्छा लिए कांग्रेस पार्टी भी पिछले सालों के मुकाबले इस बार कुछ ज्यादा ही चिंतित नजर आ रही है। इसकी एक वजह तो पार्टी की लोकसभा में कमजोर स्थिति है तो वहीं राज्यसभा में उसकी मौजूदा स्थिति बरकरार रहे यह इच्छा भी हो सकती है। यही कारण है कि इस बार विशेष निर्णय लिए गए हैं, राजनीतिक रणनीतिकार और सलाहकार प्रशांत कुमार की मदद ली जा रही है, प्रियंका गांधी को मैदान में उतारने और बड़े पैमाने पर रैलियों को संबोधित करने की बातें सामने आ रही हैं, साथ ही जातिगत राजनीति में वह भी किसी से पीछे नहीं रहना चाहती। कांग्रेस ने आगामी उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के मद्देनजर राज बब्बर को प्रदेश कांग्रेस का नया अध्यक्ष बनाया है, और यह भी सही है कि उनकी पहचान किसी जाति से नहीं जुड़ी है। इसके बावजूद राजाराम पाल, भगवती प्रसाद, राजेश मिश्र और इमरान मसूद को उपाध्यक्ष बनाकर कांग्रेस ने जाति और धर्म के समीकरण को भी साधने की कोशिश की है।
वक़्त से पहले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के बारे में बहुत कुछ तो नहीं कहा जा सकता लेकिन यह बात ते है की भाजपा के अलावा जिन पार्टियों को भी कामयाब होना है उनके लिए मुसलमानों और दलितों का वोट शेयर बहुत अहमियत रखता है। इस पृष्ठभूमि में मुसलमानों या दलितों को वोट देने से पहले राज्य के समीकरण और इसमें अपनी स्थिति अच्छी तरह समझ लेना चाहिए। साथ ही जो वादे पिछली सरकारों ने उनसे किए थे लेकिन पूरे नहीं किए, उन्हें भी याद रखना चाहिए। तथा पिछले पांच सालों में जो नुक़्सानात हुए हैं, उसकी भरपाई की भी रणनीति तैयार करनी चाहिए। क्यों की सुनने में यही आ रहा है कि भाजपा और सपा ने पर्दे के पीछे हाथ मिलाने का फैसला कर लिया है। अब अगर आप इन दो राजनीतिक दलों के इस फैसले से सहमत हैं तो आंख बंद करके किसी एक के पक्ष में भी मतदान कर सकते हैं। परन्तु यह बात हमेशा याद रखें कि वोट देने का अधिकार, व्यक्तिगत है, सामूहिक नहीं। और इसलिए भी कि हम एक लोकतांत्रिक देश में रहते हैं, जहां सरकारें “नागरिकों की पसंद” से बनाई जाती हैं

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here