प्रमोद भार्गव भाजपा की राष्ट्रीय परिषद की बैठक में एक तरह से सर्वसम्मति से तय हो गया कि प्रधानमंत्री की दौड़ में नरेन्द्र मोदी सबसे आगे हैं। इसलिए उन्होंने मंच से 6 करोड़ गुजरातियों की बजाय सवा सौ करोड़ देशवासियों की बात की। साफ है, मोदी अवाम को बहुसंख्यक बनाम अल्पसंख्यक दृष्टि से नहीं देखेंगे। विकास के इस दौर में समुदायों को वोट बैंक के नजरिये से देखा भी नहीं जाना चाहिए। सदभाव का रास्ता तभी प्रशस्त होगा, जब हम मतदाताओं को धर्म व जाति के दायरों में विभाजित करके देखना बंद करेंगे ? मोदी ने गुजरात के मतदाताओं को दृष्टि की समग्रता दी और वहां के मतदाताओं ने भी मोदी को लगातार तीसरी बार जिताकर संदेश दिया कि वह वोट बैंकी की राजनीति के चंगुल से मुक्त हो रहा है। बैठक में मोदी के आदमकद के बरक्ष वह चौकड़ी बौनी साबित हुर्इ, जो टेबिल पर आंकड़ों का जमा-खर्च करके अपनी अहमियत जताती रही है। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह अपने भाषणों को प्रांतीय दायरे से बाहर लाकर केंद्रीय नेतृत्व को चुनौती नहीं दे पाए। जबकि मोदी केंद्रीय नेतृत्व को ललकारने के साथ, केंद्र में सत्ता-कायमी को लक्ष्य बनाया। लालकृष्ण आडवाणी चुके हुए नेता के रुप में नजर जरुर आए, लेकिन उनकी प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा लगता है, अभी चुकी नहीं है और राजग का अजेंडा आगे बढ़ता है, तो उनकी कोशिश होगी कि मोदी की तुलना में अपेक्षाकृत ज्यादा धर्मनिरपेक्ष मानते हुए, उन्हें अवसर मिले। मोदी के भाषण का लब्बोलुआब और बैठक का अंतिम निष्कर्ष यही है कि थोड़ा-बहुत असमंजस भले ही बना रहे आखिर में मोदी ही भाजपा की ओर से न केवल प्रधानमंत्री पद के प्रमुख दावेदार होंगे, बलिक अप्रत्यक्ष रुप से 2014 के लोकसभा चुनाव की कमान भी उन्हीं के हाथ होगी। टिकट बांटने में भी उनका पर्याप्त दखल रहेगा। इसी लिहाज से मोदी ने केंद्रीय नेतृत्व को अगाह भी किया कि परिवर्तन के लिए देश चल पड़ा है और जनता को निराश करने का अधिकार हमें नहीं है। मोदी का रथ दिल्ली की ओर इसलिए भी कूच करेगा, क्योंकि अब भाजपा, संघ और विहिप के भीतर मोदी समर्थक नेताओं व कार्यकर्ताओं की संख्या लगातार बढ़ती जा हरी है। कभी हिंदू हृदय सम्राट माने जाने वाले मोदी अब भविष्य द्रष्टा और आर्थिक विकास के पुरोधा माने जा रहे हैं। उनके द्वारा दिखाए जा रहे सपनों से छात्र, युवा प्रौढ़ और बढ़ी संख्या में महिलाएं प्रभावित हो रही हैं। यही कारण है कि जिस गोधरा मुददे को लेकर मोदी को सबसे ज्या कटघरे में खड़ा करने की कोशिश की गर्इ हैं, वह अपने रंगत खोकर अप्रासंगिक होता जा रहा है। बलिक जागरुक देशवासी कथित प्रगतिशीलों से सवाल पूछ रहा है कि वे 1984 के सिख विरोधी दंगे, कश्मीर के विस्थापित हिंदू व सिख और असम में बांग्लादेशी अवैध घुसपैठियों ने जिस तरह से वहां जनसंख्यात्मक घनत्व बिगाड़ कर कश्मीर जैसे कठिन हालात पैदा कर दिए हैं, इन मुददों पर क्यों उनके ओंठ सिले रहते हैं ? मुसिलमों की आबादी नियंत्रण के लिए वे परिवार नियोजन की पैरवी क्यों नहीं करते ? जाहिर है, दंगार्इ चरित्र केवल गुजरात तक सीमित नहीं रहा, उसका विस्तार पंजाब कश्मीर, तमिलनाडू, केरल और असम तक है। इन मुददों को हठपूर्वक छिपाना भी एक किस्म की छदम धर्मनिरपेक्षता है। इस छदम का पर्दाफाश खुद मतदाता करने लगा है। यही वजह रही कि गुजरात के मुस्लिम बहुल इलाकों में भी भाजपा को वोट मिलने लगे हैं। इससे इस बात की पुष्टि होती है कि मोदी की आर्थिक दृष्टि और विकास पर जनता ने धर्म-भेद से उपर उठकर फैसला किया है। मोदी तीसरी बार गुजरात में विजय-पताका फहराने के बाद जिस तरह से परिपक्वता का परिचय अपने भाषणों और कार्यप्रणाली में दे रहे हैं, उससे साफ है कि वे अब धर्मनिरपेक्षता बनाम सांप्रदायिकता की दुविधा में उलझने वाले नहीं हैं। इसीलिए वे गुजरात में युवाओं और उधमियों की आकांक्षाओं के अष्वों पर सवार होकर आगे बढ़े, वे कुंभ में साधुओं को संबोधित करने से बचे। जबकि उन्हें विहिप ने आमंत्रित किया था। इसकी बजाय दिल्ली में उन्होंने श्रीराम कालेज आफ कामर्स के 1800 छात्रों को अपने विचारों से प्रेरित करना उचित समझा। उन्होंने किसी प्रकार की सांप्रदायिक कटटरता की बजाय वैशिवक परिप्रेक्ष्य में भारत के आर्थिक विकास, सुराज और सुशासन की बात की। इस उदबोधन को हम राजनीतिक सोदेबाजी कहकर खारिज नहीं कर सकते, अलबत्ता मोदी ने साफ किया कि दिल्ली का लाल किला फतह करने की ओर वे आगे बढ़ते हैं तो उनका नारा विकास और सुशासन होगा। देश में सिथरता, समावेशी विकास और आंतरिक कलह दूर करने की दृष्टि इन्हीं उपायों से निकलेगी ? इन उपायों में भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन की बात और जोड़ने की जरुरत है। क्योंकि मोदी समेत पूरी भाजपा सुशासन की बात तो करते हैं, लेकिन भ्रष्टाचार मुक्त किए बिना सुशासन की कल्पना बेमानी है ? भाजपा की इस बैठक में लालकृष्ण आडवाणी द्वारा दिए उदबोधन में इस कथन को रेखांकित किए जाने की जरुरत है कि ‘भाजपा तो बढ़ रही है, लेकिन एनडीए सिकुड़ रहा है। इसलिए भाजपा की सरकार बनाने पर जोर देने की जरुरत है। संभवत: पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह इस हकीकत को भांप रहे हैं कि गठबंधन के बिना केंद्र में भाजपा की सरकार बनने वाली नहीं है। इसीलिए वे प्रधानमंत्री पद के दावेदार के नाम की घोषणा पर कुटिलता पूर्वक कतरा जाते हैं और बहाना गढ़ते हैं कि संसदीय बोर्ड उपयुक्त नाम का फैसला करेगा। नाजुक मसलों पर सावधानी बरतना, राजनीतिक समझदारी भी है। यह बात अपनी जगह सही साबित हो सकती है कि मोदी के चेहरे को आगे लाकर चुनाव लड़ा जाता है तो पार्टी को अप्रत्याशित लाभ होगा। पर इस उम्मीद की परछार्इं में भाजपा को यह आशंका भी है कि पहले ही संकीर्ण हो चुके राजग की ताकत का और क्षरण हो जाएगा। और इसका नकारात्मक असर भाजपा की उम्मीदों पर पडे़गा। जद के अध्यक्ष और राजग के संयोजक शरद यादव लगातार कहते आ रहे हैं कि वे मोदी को स्वीकार नहीं करेंगे। नीतीश कुमार की भी यही राय है। भाजपा शीर्श नेतृत्व को यह भी आशंका है कि मोदी के नाम पर तृणमूल कांग्रेस, तेलुगूदेशम और बीजू जनता दल भी जुदा राह के राही हो सकते हैं। हालांकि ये दल राजग के घटक दल नहीं हैं, पर केंद्र में गैर-कांग्रेस अथवा गैर-संप्रग सरकार बनाने में इनकी असरकारी भूमिका सामने आएगी। यही नहीं राजग की सहयोगी शिवसेना मोदी के नाम पर आपतित भले न जता रही हो, लेकिन उसने सुषमा स्वराज का नाम आगे बढ़ा दिया है। मोदी के परिप्रेक्ष्य में गठबंधन की अस्वीकार्यता और दुविधा के बीच ही आडवाणी खुद प्रधानमंत्री बनने का स्वप्न पाले हुए हैं। इसी महत्वाकांक्षा के मददेनजर आडवाणी भाजपा की सरकार की बजाय राजग गठबंधन की सरकार को वजूद में लाने की कवायद पर जोर देते दिखार्इ दिए। इस विरोधाभासी सिथति का बराबर आत्ममंथन करते हुए राजनाथ समेत भाजपा के शीर्श नेतृत्व की कोशिश रहेगी कि मोदी के प्रधानमंत्री बनने की कवायदें तो जारी रहें, जिससे भाजपा केंद्र में एक बड़ी पार्टी के रुप में उभरे। क्योंकि टीवी समाचार चैनलों के चुनाव पूर्व आकलनों ने भी यह उम्मीद जतार्इ है कि यदि भाजपा मोदी को आगे करके चुनाव लड़ती है तो उसे लोकसभा चुनाव में 30 सीटों का फायदा होगा। यदि वाकर्इ भाजपा बड़े दल के रुप में उभरती है और चुनाव परिणाम के बाद यह प्रमाणित हो जाता है कि इसकी वजह मोदी का प्रभामण्डल है तो शरद यादव और नीतीश कुमार की मोदी का प्रधानमंत्री नहीं बनने देने की मांग भी अप्रासंगिक हो जाएगी। हां, मोदी की यह उपलबिध आडवाणी और सुषमा स्वराज के लिए जरुर परेशानी का सबब बन सकती है। यदि यह करिष्मा संभव है तो भाजपा सांप्रदायिकता के अभिशाप से मुक्त होगी और उसका देश चलाने का आर्थिक विकास व सुशासन का नजरिया व आगे बढ़ेगा। दिल्ली की ओर कूच कर रहा मोदी का रथ सवार तो इसी अजेंडे पर है, लेकिन कामयाबी कितनी मिलती है, इसकी तसदीक तो आने वाले वक्त से करेगा ? लेकिन इसमें कोर्इ दो राय नहीं कि मोदी मजबूती से आगे बढ़ रहे हैं। प्रमोद भार्गव