मोदी सरकार का एक साल: दिशा ठीक-दशा ख़राब !

-इक़बाल हिंदुस्तानी-

tly-आम आदमी वादे पूरा न होने से ठगा सा महसूस कर रहा है ?-

एक साल पहले जिन भारी भरकम दावों और वादों के साथ एनडीए की बीजेपी नेतृत्व वाली नरेंद्र मोदी सरकार सत्ता मेंं आई थी, उससे आम आदमी को यह भ्रम हो गया था कि अब वास्तव मेंं अच्छे दिन आने वाले हैं। देश की आबादी का आधे से ज़्यादा हिस्सा आज भी खेती पर निर्भर है और भूमि अधिग्रहण कानून से लेकर कृषि लागत मूल्य मेंं 50 प्रतिशत मुनाफा जोड़कर देने का वादा पूरा न करने से किसानों का मोदी सरकार से तेज़ी से मोहभंग हुआ है। बेमौसम बारिश और क़र्ज के जाल मेंं फंसे किसानों को आत्महत्या से न रोक पाने को लेकर भी किसान मोदी से मुंह मोड़ रहा है। काला धन सौ दिन मेंं लाने का दावा करने वाले मोदी हर भारतीय को 15 लाख देने की बात करते थे लकिन बीजेपी प्रेसीडेंट अमित शाह द्वारा इस वोद को मात्र चुनावी जुमला बताने से मोदी बुरी तरह बदनाम हो रहे हैं।

ऐसे ही संगठित क्षेत्र के 4 करोड़ मज़दूरों को कुछ ठोस न देकर श्रमिक नीतियां उद्योगपति और कारपोरेट के पक्ष मेंं संशोधित करके मोदी सरकार अमीरों की पक्षधर की छवि तोड़ने मेंं बुरी तरह नाकाम होती नज़र आ रही है। रिटेल मेंं एफडीआई का विपक्ष मेंं रहते हुए तीखा विरोध करने वाली भाजपा आज खुद खुदरा क्षेत्र मेंं 51 फीसदी विदेशी निवेश की पैरोकार बन कर खड़ी है जिससे देश का साढ़े चार करोड़ छोटा व्यापारी मोदी सरकार से बुरी तरह ख़फ़ा हो रहा है। इस हिसाब से इन साढ़े आठ करोड़ मज़दूरों और व्यापारियों के पीछे खड़े इनके परिवार और समर्थकों को भी अगर जोड़ें तो नाराज़ लोगों की संख्या 40 करोड़ से ज्यादा हो जाती है।

साठ करोड़ किसान पहले ही मोदी से खफा हो चुके हैं और 100 करोड़ के बाद बचे 20 करोड़ अल्पसंख्यकों को मोदी के राज मेंं कुछ मिलने से तो रहा उल्टे उनको डराने धमकाने वाले बयान खुद संघ परिवार के नेता एक तय योजना के तहत गाहे ब गाहे देते रहते हैं तो उनसे मोदी को कोई हमदर्दी मिलने का सवाल ही नहीं पैदा होता। अब रही सही कसर मोदी सरकार दहेज़ एक्ट की धरा 498 ए मेंं संशोधन करके पूरी कर देगी जिससे महिला वर्ग उससे नाराज़ होगा क्योंकि इस एक्ट के सरकार के अनुसार दुरूपयोग के मात्र 9 प्रतिशत मामले सामने आये हैं लेकिन दलित एक्ट, आर्म्स एक्ट और नारकोटिक्स एक्ट के आधे से ज्यादा केस फर्जी होते हैं, पर मोदी सरकार ने उनको कंपाउंडेबिल बनाने की बात कभी नहीं सोची।

जहां तक भ्रष्टाचार का मामला है शीर्ष स्तर के करप्शन मेंं कमी प्रतीत हो रही है जिससे कोयला और स्पैक्ट्रम नीलामी मेंं सरकार को भारी राजस्व प्राप्त हुआ है लेकिन दूसरी तरफ व्यापारियों का कहना है कि इस एक साल मेंं उनके कारोबार मेंं 20 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गयी है। आज अगर यह कहा जा रहा है कि यह सूटबूट वालों की पैरोकार सरकार है तो इसकी वजह है कि यूपीए सरकार ने रिलायंस इंडस्ट्रीज़ को नेचुरल गैस प्रति यूनिट 14 रू. देने का प्रस्ताव रखा था जो मोदी सरकार ने घटाकर 5 रू. यूनिट कर दिया। 300 से कम मज़दूरों वाली कम्पनियों को तमाम कानूनी पाबंदियों से आज़ाद कर दिया गया है।

यहां तक कि वे बिना सरकार की अनुमति के कभी भी मज़दूरों की छंटनी कर सकती है। यह माना जा सकता है कि मोदी सरकार मनमोहन सरकार की तरह उद्योगपतियों के शिकंजे से बाहर तो आई है लेकिन वह बाकायदा खुलेआम वही नीतियां अपना रही है जो कारपोरेट सेक्टर चाहता है। इतना ही नहीं, मोदी सरकार वर्ल्ड बैंक इंटरनेशनल मोनेट्री फंड और वाशिंगटन के इशारों पर चल रही है जिनका लगातार दबाव है कि सरकार को अपना राजस्व रक्षा खर्चों तक सीमित करना चाहिये। वे यह भी चाहते हैं कि निवेश पूरी तरह से निजि क्षेत्र के लिये खोल दिया जाना चाहिये। उनका दावा है कि ट्रिकल डाउन नीति के हिसाब से सरकार का खर्च कम होने से निवेशकों का भरोसा देश की अर्थव्यवस्था मेंं बढ़ेगा और वे जब नये कारखाने लगायेंगे तो उत्पादन बढ़ेगा और लोगों को नये रोज़गार का लाभ अपने आप ही मिलने लगेगा।

यही वजह है कि सरकार के इस चालू वर्ष मेंं भी खर्च पूर्व वर्ष की तरह सीमित रहने वाले हैं। सरकार निवेश और सब्सिडी से हाथ खींचना चाहती है। मेंक इन इंडिया का सीधा या तत्काल लाभ आम आदमी को होता नज़र नहीं आ रहा है जिससे वह मोदी के विकास के वादे को पूरा न करने से पहले साल मेंं ही निराश होने लगा है। सच तो यह है कि जैसे जैसे बहुराष्ट्रीय विशालकाय कम्पनियां देश में स्थापित होंगी वे छोट रोज़गारों को डायनासोर की तरह निगल जायेंगी। आम आदमी के पास जब परचेज़िंग पावर ही नहीं होगी तो बाज़ार मेंं मांग कहां से पैदा होगी और ऐसे मेंं उत्पादन कहां खपेगा? यह सीधा सरल गणित अभी मोदी की समझ मेंं नहीं आ रहा कि वाजपेयी सरकार के ज़माने मेंं इंडिया शाइनिंग की धूम के बाद भी एनडीए सरकार चुनाव मेंं धूल क्यों चाट गयी थी?

दरअसल मोदी विकसित और विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था मेंं अंतर नहीं कर पा रहे, क्योंकि वहां आबादी कम और प्रति व्यक्ति आय अधिक होने से खपत बढ़ रही है लेकिन भारत मेंं इसका उल्टा है। मोदी का डिजिटल इंडिया, प्रधनमंत्री जनधन योजना, प्रधानमंत्री बीमा योजना वास्तविकता कम दिखावटी अधिक होना और सरकारी कार्यालयों मेंं फैला भ्रष्टाचार जस का तस मौजूद होना भी आम आदमी के सपने टूटने जैसा है। स्मार्ट सिटी और बुलेट ट्रेन का थोड़ा सा लाभ मिडिल क्लास को मिल सकता है लेकिन इन योजनाओं पर अमल होने मेंं न केेवल लंबा समय लगेगा बल्कि सरकार के पास इनके लिये विपुल धनराशि का भी अभाव है। मोदी ने विदेशी मोर्चे पर हालांकि कुछ उपलब्धि हासिल की है।

आज यह माना जा रहा है कि हमारे सम्बंध पड़ोसी देशों से सुधर रहे हैं लेकिन जहां तक विदेशी निवेश लाने का सवाल है अभी केवल दावे और उनके वादे ही वादे हैं ज़मीन पर कोई काम होता नज़र नहीं आ रहा है। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि सरकारी मशीनरी उसी तरह से काम कर रही है जैसे पहले करती थी। यही वजह है कि विपक्ष, कारपोरेट और अल्पसंख्यक ही नहीं अब संघ परिवार से जुड़े अरूण शौरी, रामजेठमलानी और सुब्रमण्यम स्वामी जैसे भाजपाई भी उनको आईना दिखाने लगे हैं कि वे वादों और दावों के अनुसार कुछ भी नहीं कर पा रहे हैं हालांकि निष्पक्ष और जानकार लोगों का अभी भी यह मानना है कि पूंजीवादी व्यवस्था के हिसाब से मोदी ठीक दिशा मेंं आगे बढ़ रहे हैं लेकिन देश की आज की दशा पहले की तरह ख़राब ही नज़र आ रही है क्योेंकि इसमेंं सुधार और निवेश का लाभ मिलने मेंं लंबा समय लगेगा।

उसके होठों की तरफ़ न देख वो क्या कहता है,

उसके क़दमों की तरफ़ देख वो किधर जाता है।

 

Previous articleआईएस की दक्षिण एशिया में दस्तक ?
Next articleसमलैंगिक विवाहः आधुनिक सभ्यता का सर्वाधिक असभ्य रूप
इक़बाल हिंदुस्तानी
लेखक 13 वर्षों से हिंदी पाक्षिक पब्लिक ऑब्ज़र्वर का संपादन और प्रकाशन कर रहे हैं। दैनिक बिजनौर टाइम्स ग्रुप में तीन साल संपादन कर चुके हैं। विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में अब तक 1000 से अधिक रचनाओं का प्रकाशन हो चुका है। आकाशवाणी नजीबाबाद पर एक दशक से अधिक अस्थायी कम्पेयर और एनाउंसर रह चुके हैं। रेडियो जर्मनी की हिंदी सेवा में इराक युद्ध पर भारत के युवा पत्रकार के रूप में 15 मिनट के विशेष कार्यक्रम में शामिल हो चुके हैं। प्रदेश के सर्वश्रेष्ठ लेखक के रूप में जानेमाने हिंदी साहित्यकार जैनेन्द्र कुमार जी द्वारा सम्मानित हो चुके हैं। हिंदी ग़ज़लकार के रूप में दुष्यंत त्यागी एवार्ड से सम्मानित किये जा चुके हैं। स्थानीय नगरपालिका और विधानसभा चुनाव में 1991 से मतगणना पूर्व चुनावी सर्वे और संभावित परिणाम सटीक साबित होते रहे हैं। साम्प्रदायिक सद्भाव और एकता के लिये होली मिलन और ईद मिलन का 1992 से संयोजन और सफल संचालन कर रहे हैं। मोबाइल न. 09412117990

6 COMMENTS

  1. दिखावा ना कर तू अपने शरीफ होने का
    लोग खामोश जरूर हैं
    लेकिन
    नासमझ तो बिल्कुल नहीं


    सादर,
    शिवेंद्र मोहन सिंह

  2. ​मियां पेशे के प्रति कुछ तो ईमानदारी बरतो। ​कयामत के समय अल्लाह मियां को क्या मुंह दिखाओगे ? बात तो ऐसे बना रहे हो जैसे आज से पहले परिस्तान में रहते थे और अब उठा के दोजख की आग में दाल दिया गया हो। मिडिया, मार्क्स, मुल्ला, मनी का ऐसा कॉम्बिनेशन है की ये सब कुछ अपने हिसाब से दुनिया को दिखाना चाहता है और उसी कड़ी में ये लेख है। थोड़ा लिखा पढ़ा करो मियां। तबियत हरी होगी सेहत सुधरेगी। झूठ का कीड़ा कम कुलबुलाएगा दिमाग में।

    सादर,

    • आप जैसे मोदी भक्तों की आँखें अभी भी खुल नहीं रही हैं। लगता है जब चुनाव आएगा और 2004 की इंडिया शाइनिंग के गुब्बारे की हवा निकलेगी तभी होश आएगा।
      वैसे भी आपकी आँखों पर जो भगवा चश्मा चढ़ा है उसमें निष्पक्ष और तटस्थ कुछ भी शहतीर की तरह चुभता ही है।
      आपकी लेखनी बता रही है कि लेख आपको सच का नश्तर लगाने में सफल रहा है।
      आप जितनी गालियां और कटाक्ष करेंगे मेरा लेखन उतना ही प्रभावकारी सिद्ध होगा।
      धन्यवाद।
      ससम्मान
      आपका कड़वी दवा देने वाला सच्चा हमदर्द

  3. जब कभी मैं भारत में वर्तमान स्थिति पर अपने विचार लिखने बैठता हूँ तो असमंजस में पड़ जाता हूँ कि उस स्थिति के इतिहास में किस समय-बिंदु से आरम्भ करूं| प्रस्तुत लेख, ‘मोदी सरकार का एक साल: दिशा ठीक-दशा ख़राब!’ में किस ‘दशा’ की बात करें, १९४७ से पहले की, तत्पश्चात की, अथवा पिछले वर्ष मई माह के बाद की? बात केवल असमंजस में पड़ने की ही नहीं है, विषय की अभिज्ञता मन को स्थिर अथवा शांत कर देती है| बात नैतिकता की है, आचारनीति की है, राष्ट्रवाद की है| आज नैतिकता, आचारनीति, व राष्ट्रवाद के अभाव में अनियंत्रित मीडिया और मनोरंजन उद्योग और व्यक्तिगत कारणों से उसका अनुसरण करते अर्ध-बौद्धिक लोग सामान्य भारतीयों को उनके ही जूतों से पीटे जा रहे हैं और उन्हें इसकी भनक भी नहीं है| यदि पाठक भारतीय मीडिया में नैतिकता, आचारनीति और राष्ट्रवाद की मांग करें तो मेरे विचार में अधिकांश समाचार पत्रों और पत्रिकाओं की मांग में कमी होने पर उनका मुद्रण अथवा प्रचलन ही समाप्त हो जाए| लेखक को मेरा विनिमय सुझाव है कि लिखना छोड़ कोई रचनात्मक व्यवसाय ढूंढे|

    • “इंसान” भाई
      मेरा आपको ससम्मान सुझाव है कि अगर सच वास्तविकता और तर्कसंगत बात आपको सहन नहीं होती तो ऐसी साइट्स को पढ़ना छोड़कर किसी पार्टी में भर्ती हो जाओ और वहां एकतरफा राग अलापो सुखी रहोगे।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here