बिहार मे मोदी और नीतीश की प्रतिष्‍ठा पर दांव

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लोकसभा चुनावों के बाद भाजपा ने प्रधानमंत्री नरेन्‍द्र मोदी के रथ पर
सवार हो कर चार राज्‍यों मे अपनी कामयाबी का परचम तो फहराया ,लेकिन
दिल्‍ली की जनता ने इस रथ को रोक दिया ।इस लिये दिल्‍ली मे मिली
अप्रत्‍याशित हार के बाद अब बिहार मे भाजपा और मोदी की अग्‍नि परीक्षा है
।अलग तरह के मिजाज़ वाले इस राज्‍य मे कहने को तो सभी दल विकास का नारा
दे रहे हैं , लेकिन असल मुद्दा जाति ही है ।इस लिये ये सवाल खड़ा है कि
बिहार के लोग विकास के नाम पर क्‍या अब भी नीतीश कुमार को पसंद करेगें या
फिर मोदी के वादों और पैकजों पर भरोसा कर के भाजपा को वैकल्‍पिक मौका
देगें ।लिहाजा बिहार भाजपा के लिये बेहद संवेदनशील है ,क्‍योकि उसके बाद
कई राज्‍यों मे चुनाव होने हैं और बेशक बिहार के जनादेश की गूंज वहां भी
सुनायी पड़ेगी ।आज मोदी और भाजपा के साथ- साथ 20 साल तक एक दूसरे के धुर
विरोधी रहे महागठबंधन के सूरमाओं लालू वा नीतीश की पहली परीक्षा है ।पहले
दौर मे 10 जिलों की 49 विधानसभा सीटों के लिए वोट डाले जाएंगे । पहले चरण
में कुल 1.35 करोड़ मतदाता अपने मताधिकार का इस्तेमाल करके 586
उम्‍मीदवारों के बारे मे अपनी राय देगें । इस चरण के मतदान में
समस्तीपुर, बेगूसराय, खगड़िया, भागलपुर, बांका, मुंगेर, लखीसराय,
शेखपुरा, नवादा और जमुई क्षेत्र के मतदाता अपने मताधिकार का प्रयोग
करेंगे। इस बार बिहार चुनाव में जुबानी जंग काफी तेज हो गई हैं। एक-दूसरे
पर आरोप-प्रत्यारोप के खेल में नेता भाषा की मर्यादा लांघ रहे हैं। ऐसे
में चुनाव आयोग को सभी राजनीतिक दलों और उनके नेताओं से संयमित भाषा के
इस्तेमाल की अपील करनी पड़ी ।बिहार मे शान्‍तिपूर्ण और निष्‍पक्ष चुनाव
कराना भी आयोग के लिये किसी चुनौती से कम नही है । चुनाव प्रचार के अंतिम
दिन चुनाव आयोग की तमाम तैयारियों के बावजूद मतदान से ऐन पहले बिहार
चुनाव हिंसक हो उठा, मधुबनी जिले के झंझारपुर में शनिवार सुबह गोलियां
चल गईं । बिहार के 37 जिलों में 29 को नक्सल प्रभावित बताए जाते हैं ।इस
लिये आयोग के सामने चुनावों के अपराधिकरण को भी रोकने की बड़ी चुनौती है

चुनाव बिहार मे हो रहैं लेकिन उसकी वजह
से सारे देश का सियासी पारा लगातार ऊपर चढ़ता जा रहा है।यहां तक की
अमेरिकी थिंक टैंक कि भी नजर इस चुनाव पर लगी है । थिंक टैंक का मानना
है कि बिहार विधानसभा चुनाव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए सबसे बड़ी
चुनावी परीक्षा होगी ।उनका मानना है कि बिहार चुनाव के नतीजों के असर की
गूंज बिहार से बाहर बहुत दूर तक सुनाई पड़ेगी ।यानी इसके नतीजे देश के
भावी राजनीतिक समीकरण का चेहरा-मोहरा भी तय करेंगे। कार्नेगी एंडोमेंट
फोर इंटरनैशनल पीस के विद्वानों का सोचना है कि अगर इसमें मोदी को जीत
मिल गई तो केंद्र सरकार को एक तरह की ताजगी का अहसास होगा।बिहार मे भाजपा
की जीत से राज्‍य सभा मे भी उसे संख्‍या बल मे राहत दिला सकती है ।मोदी
ने इसी लिये बिहार के लिए 1.25 लाख करोड़ के आर्थिक पैकेज की घोषणा की।
लेकिन अगर दिल्‍ली की तरह बिहार के मतदाताओं ने भी मोदी के नारों ,वादो
और घोषणाओं पर भरोसा नही किया तो यह उन्हें बड़ा झटका लगेगा। विद्वानों
का मत है कि यह चुनाव बिहार के मौजूदा मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और विरोधी
से बने नए साथी लालू प्रसाद यादव का करियर बना देगा या उन्हें तहस-नहस कर
देगा। साल 2014 के लोकसभा चुनाव में बुरी तरह पराजित होने के बाद नीतीश
कुमार की चमक फीकी पड़ गई। वही चारा घोटाले में बाकी सजा काटने के लिए
फिर से जेल जाने की आशंका से ग्रसित लालू प्रसाद यादव को जीत के बाद
कम-से-कम इतना तो संतोष होगा कि बिहार की सियासत में उनके परिवार की
प्रासंगिकता अब भी बनी हुई है। यह भी माना जा रहा है कि बिहार में गठबंधन
की जीत से कांग्रेस को पिछले कुछ चुनावों में हार से मिली हताशा से उबरने
में मदद मिलेगी ।
बिहार मे चुनाव की घोषण के बाद तक विकास की बात होती
थी ,लेकिन बाद मे स्‍वाभिमान और उसकी अस्‍मिता को लेकर लड़ाई शुरू हो गयी
।लेकिन अब चुनाव मे जाति को मुद्दा बना दिया गया है ।एक लम्‍बे वक्‍त तक
नीतीश सरकार विकास का नारा बुलंद करती रही ।लेकिन दस साल तक सत्‍ता मे
रहने वाली सरकार स्‍वाभिमान को आगे करके मतदाताओं के बीच है ।दरअसल नीतीश
सरकार के पास विकास का कोई ठोस साक्ष्‍य और विकल्‍प नही है ।केवल
अर्थशस्‍त्र के कुछ सरकारी आंकड़े भर हैं जो किसी को समझ नही आते हैं
।जनता तो केवल जमीनी हकीकत पर विकास तलाश करती है ।नीतीश के दस सालों के
पहले लालू यादव का 15 साल का कालखण्‍ड रहा है ।सामाजिक न्‍याय से शुरू
होने वाली लालू की राजनीति बाद मे घोर जातिवाद मे बदल गयी और बिहार की
जनता हमेशा कि तरह खाली हाथ ही रही ।लालू और नीतीश बिहार के इस चुनाव मे
सबसे मजबूत और सत्‍ता के प्रबल दावेदार गठबंधन के नेता हैं ।लेकिन उनके
गठबंधन के नाम पर कुछ चेहरे और नाम हैं ।नीति और नियत के स्‍तर पर कोई
समझौता नही है ,शायद इसी लिये मुलायम सिहं ने इस गठबंधन से अपने हाथ खींच
लिये हैं ।बिहार की जनता ने पिछले डेढ़ याल मे मोदी के विकास माडल को भी
देखा और ये भी जाना है कि वादे और घोषणऐं जमिन पर कहां तक सच मे तब्‍दील
हुयीं हैं ।समाट्र अशोक,चाणक्‍य ,बुध्‍द, महावीर , जयप्रकाश नारायण और
कर्पूरी ठाकुर का बिहार आज भी वैसा ही है जैसा ढ़ाई या तीन दशक पहले था
।यानी वही पलायन , वही गरीबी ,वही आशिक्षा और जीवन जीने की विवश्‍ता मे
पराये शहरों के अंधेरे , बंद और सीलन भरे कमरों मे रहने के लिये मेहनतकश
बिहार के युवा रह रहे हैं ।जबकि आज भी प्रतियेगी परीक्षाओं मे सफल होने
वाले बिहार के लोग ही हैं लेंकिन वह अपनी सेवायें अपने चहेते राज्‍य को
नही दे परते हैं ।
मुद्दों से भटक कर बिहार चुनाव एक बार फिर जाति और दो
शख्सियतों के टकराव में बदल गया है । कुल मिलाकर ये कहा जा सकता है कि
जातिवाद को हथियार बनाकर बिहार की जनता को असली मुद्दों से भटकाना इन
तमाम दलों को बखूबी आ गया है ।एक अलग तरह कि राजनीति मे उलझे दलों की
नजर से युवा पीढ़ी नदारद है। वो युवा पीढ़ी जो आज की तकनीक से कदमताल
करते हुए हर जगह अपना परचम लहरा रखा है। वो युवा पीढ़ी जिसे अच्छे-बुरे
की पहचान है. वो युवा पीढ़ी जो अब वर्ल्ड बैंक की रिपोर्ट पढ़ रही है। आज
ये युवा पीढ़ी इस बात के लिए दुखी है कि सुनहरे अतीत वाला उनका बिहार
विकास की रफ्तार में 21वें पायदान पर बैठकर अपनी किस्मत पर आंसू बहा रहा
है। वहीं झारखंड में निवेशक इतने लुभा रहे हैं कि वो विकास की रफ्तार में
तीसरे नंबर पर सीना ताने खड़ा है। बिहार का युवा वोटर अब जाति को नकारकर
रोजी-रोटी का सवाल उठा रहा है। बिहार का युवा बीमारू राज्य की तोहमत से
बाहर निकलने के लिए आतुर है। साफ है कि इस वर्ग का जनादेश जाति नहीं काम
पर होगा। ऐसे में समझा सकता है कि बिहार की युवा पीढ़ी किस करवट बैठने
वाली है ।
जंहा राष्ट्रीय जनता दल के साथ
गठबंधन कर नीतीश विधानसभा चुनाव में नए तेवर के साथ आए हैं। उधर, बीजेपी
ने अपने राज्यस्तरीय नेताओं को उच्च स्तरीय चुनाव प्रचार से अलग रखा है
और वोटों की दौड़ में भगवा पार्टी नीतीश-लालू महागठबंधन से एनडीए को आगे
निकालने के लिए मोदी के अग्निबाणों पर भरोसा किए हैं। बीजेपी प्रमुख अमित
शाह एकमात्र पार्टी नेता हैं जिन्हें भगवा पार्टी के बड़े बड़े होर्डिंग
में मोदी के साथ जगह मिल रही है। इन होर्डिंग में दोनों कमल पर वोट डाल
कर बिहार को विकास की राह पर लाने का आह्वान कर रहे हैं।सर्वे के मुताबिक
मोदी के प्रति बड़ा आकषर्ण बना हुआ है, लेकिन नीतीश के पास लोगों के बीच
साख है, खास तौर पर गरीबों के बीच। नीतीश के चुनाव प्रचार को ले कर बहुत
हो-हल्ला नहीं है, लेकिन वह अपने ही अंदाज में इस चुनाव को मुख्यमंत्री
के रूप में अपने काम-काज पर जनमतसंग्रह में बदल रहे हैं। इस तरह, वह अपने
सहयोगी लालू प्रसाद के जातीय मुद्दे से अलग हैं और आरजेडी के 15 साल के
शासन को ले कर कथित नकारात्मकता से भी खुद को अलग रखे हुए हैं।
नीतीश अपनी रैलियों में नारा दे रहे हैं कि बिहार बिहारी चलाएगा बाहरी
नहीं। इस तरह, वह जता रहे हैं कि अगर एनडीए जीता तो मोदी बिहार का शासन
नहीं चलाएंगे, बल्कि कोई स्थानीय ही चलाएगा लेकिन उनसे अच्छा कोई बिहारी
नेता नहीं है। राजनीतिक सूत्रों का कहना है कि जहां किसी भी गठबंधन के
पक्ष में कोई स्पष्ट लहर नहीं है, सिर्फ मोदी की अपील जैसे कारक उन्हें
जीतने में मदद कर सकते हैं। यही कारण है कि मोदी सघन चुनाव प्रचार अभियान
चला रहे हैं। उन्हें उम्मीद है कि अपनी तकरीबन दो दर्जन चुनावी रैलियों
से वह चुनावी पासा पलट सकते हैं।कहने की जरुरत नहीं कि बिहार में हर
सियासी उथल-पुथल की अपनी अहमियत है। यहां के हर चुनाव में जातिवाद एक कटु
सत्य है इससे आसानी से पीछा नहीं छुड़ाया जा सकता।बहरहाल अब जनता का मूड
भापने का वक्‍त है कि वह मोदी और नीतीश मे से अग्‍नि परीक्षा मे किसको
पास करती है ।
** शाहिद नकवी **bihar

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