मोदी विरोध को भुनाने की कोशिश है अन्ना का आंदोलन

समाजसेवी और गांधीवादी अन्ना हज़ारे एक बार फिर मैदान में हैं। हालांकि इस बार उनके मुद्दे और प्राथमिकताएं बदल गई हैं। कभी जनलोकपाल को लेकर अभूतपूर्व आंदोलन खड़ा करने वाले अन्ना अब मोदी सरकार द्वारा प्रस्तावित भूमि अधिग्रहण कानून को किसान विरोधी और कॉर्पोरेट सेक्टर के अनुकूल बता रहे हैं। खैर हम यहां मोदी सरकार द्वारा प्रस्तावित भूमि अधिग्रहण कानून के पक्ष-विपक्ष में न पड़ते हुए अन्ना आंदोलन की ही बात करेंगे। देखा जाए तो इस बार अन्ना आंदोलन में ऐसी कई खामियां हैं जिनसे इसका भविष्य अच्छा नहीं दिख रहा। हमारे देश में आंदोलनों का विस्तृत इतिहास रहा है और समय-समय पर इन आंदोलनों ने देश के सियासी परिदृश्य को भी बदला है। गैर-राजनीतिक आंदोलनों की फेहरिस्त में अन्ना के आंदोलनों को प्रमुख स्थान मिलता है। २०१२ में देश और सरकार को झकझोर देने वाला जनलोकपाल आंदोलन विशुद्ध रूप से गैर-राजनीतिक आंदोलन था। यह बात और है कि इस आंदोलन के गर्भ से आम आदमी पार्टी ने जन्म लेकर अपने सियासी सफर को एक मुकाम तक पहुंचा लिया किन्तु अन्ना हमेशा ही राजनीतिक राह के विरोधी रहे हैं। यहां तक कि दिल्ली विधानसभा चुनाव में प्रचंड जीत के बाद भी उन्होंने अपने पुराने और अहम सहयोगी अरविंद केजरीवाल को बेमन से सत्ता चलाने की राय दी। इतना सब होने के बाद वर्तमान परिदृश्य में अन्ना आंदोलन में राजनीतिक हस्तक्षेप बढ़ता जा रहा है जो इसकी संभावित विफलता का कारण बन सकता है। वामपंथी संगठन पिछले दरवाज़े से अन्ना आंदोलन की मदद कर रहे हैं तो आम आदमी पार्टी की पूरी टीम आंदोलन को भुनाने की फिराक में है। अरविंद केजरीवाल का आंदोलन के मंच पर जाना और मोदी सरकार पर हमलावर होना इसी रणनीति का हिस्सा है। जैसे-जैसे आंदोलन बढ़ता जाएगा, परोक्ष रूप से राजनीतिक दलों का अन्ना के चेहरे को आगे रख मोदी विरोध भी बढ़ेगा गोयाकि यह आंदोलन एक बार फिर सभी राजनीतिक दलों को उनकी खोई ज़मीन तलाशने का माध्यम बनेगा। हालांकि यह अभी दूर की कौड़ी है लेकिन अन्ना का इस्तेमाल तो शुरू हो ही गया है।
वहीं दूसरी ओर तमाम छोटे-बड़े किसान संगठनों ने भूमि अधिग्रहण बिल के प्रस्तावित मसौदे पर अपनी लड़ाई खुद लड़ने के संकेत देते हुए अन्ना आंदोलन से दूरी बना ली है। उनका मानना है कि अन्ना अपने आंदोलन से सरकार पर दबाव भले ही बना लें किन्तु राजनीतिक दल उसे अपने पक्ष में भुना ही लेंगे। किसानों की वास्तविक समस्या न तो अन्ना जान सकते हैं और न ही राजनीतिक दल। इसके अलावा इस बार अन्ना को न तो मीडिया का पहले जैसे साथ मिल रहा है और न ही युवा वर्ग अब उनके आंदोलन में दिलचस्पी दिखा रहा है। वैसे भी पिछले आंदोलन के चरम पर अन्ना का आंदोलन समाप्त कर देना युवा वर्ग को छलावा प्रतीत हुआ था लिहाजा इस बार उसकी भागीदारी अपेक्षा से काफी कम है। इसके इतर मोदी सरकार ने भी भूमि अधिग्रहण कानून पर फैलाई जा रही भ्रांतियों का पुरजोर खंडन करना शुरू कर दिया है। वैसे भी सरकार स्वयं ऐसी परिस्थिति से बचना चाहेगी जिससे जनता के बीच उसकी छवि पर प्रतिकूल प्रभाव पड़े। इसी कड़ी में वित्त मंत्री अरुण जेटली के मुताबिक भूमि अधिग्रहण कानून के विवादित मसौदे में मुकदमे रोकने और लोगों की मंजूरी लेने के प्रावधान इसलिए हटाए गए हैं ताकि देश की तरक्की की रफ्तार बढ़े। अगर मुकदमे होंगे या फिर लोगों की मंजूरी नहीं मिल पाएगी तो नए उद्योगों और आम लोगों के लिए सरकारी प्रोजेक्ट पर ब्रेक लग जाएगा। ऐसे में प्रभावित किसानों को मुआवजा तो मिलेगा लेकिन विकास की राह में आने वाली बाधाएं भी बढ़ जाएंगी। विपक्ष का कहना है कि मोदी का जमीन कानून किसान विरोधी है के लिए सरकार आंकड़ों का सहारा ले रही है। खेती के आंकड़ों के अनुसार आजादी के बाद जिस खेती का जीडीपी में योगदान ५२ फीसद था, वो अब घटकर २०१२-१३ में १४ फीसद रह गया है। दस साल पहले यानी २००४-०५ में भी ये सिर्फ १९ फीसद ही था। ऐसे में यदि विकास चाहिए तो देश को उद्योगों के सहारे ही आगे बढ़ाना होगा। खुद प्रधानमंत्री मोदी इसकी वकालत करते रहे हैं लेकिन मोदी जिस फार्मूले को इस्तेमाल करना चाहते हैं उसे यूपीए के जमीन कानून से पूरा करना मुश्किल दिखता है।
सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी की रिपोर्ट के अनुसार साल २०१३ में अक्टूबर से दिसंबर के मुकाबले साल २०१४ में अक्टूबर से दिसंबर के बीच फंसे हुए प्रोजेक्ट में ५५ फीसद की कमी आई है। यानी मोदी सरकार के राज में प्रोजेक्ट ने रफ्तार पकड़ी है। २०१३ की तीसरी तिमाही में देश में २ लाख ५० हजार करोड़ के करीब १५५ प्रोजेक्ट फंसे हुए थे जबकि साल २०१४ की तिमाही में रफ्तार पकड़ने के बाजवूद भी १ लाख २० हजार करोड़ के १२८ प्रोजेक्ट फंसे हुए हैं। अकेले भूमि अधिग्रहण की समस्या की वजह से साढ़े २६ हजार करोड़ के ११ प्रोजेक्ट अटके हुए हैं। ऐसे में जाहिर है कि यूपीए के जमीन कानून के कुछ ढीले पेंच विकास की मशीन को ठीक से काम नहीं करने दे रहे हैं। मोदी सरकार द्वारा प्रस्तावित नया कानून उन्हीं ढीले पेंचों को कसने की कोशिश की तरह भी देखा जा रहा है। यूपीए सरकार ने पुराने कानून में सिर्फ उन कंपनियों को जमीन देने का प्रावधान किया था जो कंपनी एक्ट के तहत रजिस्टर्ड हों लेकिन मोदी सरकार ने इसका दायरा बढ़ाकर इसमें प्रोपराइटरशिप, पार्टनरशिप फर्म समेत एनजीओ को भी शामिल किया है ताकि सामाजिक विकास की रफ्तार भी तेज हो सके। इन सब तथ्यों को देखने के बाद यह ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि अन्ना और उनकी टीम किस प्रकार मोदी विरोध की बिखरी कोशिश को एकजुट करने की कोशिश में है। हालांकि सरकार के तर्कों के आगे वह कितना टिकती है, यह देखना दिलचस्प होगा।
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सिद्धार्थ शंकर गौतम
ललितपुर(उत्तरप्रदेश) में जन्‍मे सिद्धार्थजी ने स्कूली शिक्षा जामनगर (गुजरात) से प्राप्त की, ज़िन्दगी क्या है इसे पुणे (महाराष्ट्र) में जाना और जीना इंदौर/उज्जैन (मध्यप्रदेश) में सीखा। पढ़ाई-लिखाई से उन्‍हें छुटकारा मिला तो घुमक्कड़ी जीवन व्यतीत कर भारत को करीब से देखा। वर्तमान में उनका केन्‍द्र भोपाल (मध्यप्रदेश) है। पेशे से पत्रकार हैं, सो अपने आसपास जो भी घटित महसूसते हैं उसे कागज़ की कतरनों पर लेखन के माध्यम से उड़ेल देते हैं। राजनीति पसंदीदा विषय है किन्तु जब समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारियों का भान होता है तो सामाजिक विषयों पर भी जमकर लिखते हैं। वर्तमान में दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, हरिभूमि, पत्रिका, नवभारत, राज एक्सप्रेस, प्रदेश टुडे, राष्ट्रीय सहारा, जनसंदेश टाइम्स, डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट, सन्मार्ग, दैनिक दबंग दुनिया, स्वदेश, आचरण (सभी समाचार पत्र), हमसमवेत, एक्सप्रेस न्यूज़ (हिंदी भाषी न्यूज़ एजेंसी) सहित कई वेबसाइटों के लिए लेखन कार्य कर रहे हैं और आज भी उन्‍हें अपनी लेखनी में धार का इंतज़ार है।

2 COMMENTS

  1. अन्ना को भी अब सुर्ख़ियों में रहने का चस्का पड़ गया है ,इसलिए उनका आंदोलन करना अनुचित नहीं जब हर राजनेता सामाजिक कार्यकर्ता ऐसा कर रहा हो ,वे भी अब अपनी प्रतिष्ठा खो देंगे। पिछले दो आन्दोलनों से इस बात के संकेत मिलने लगे हैं ,उनका भी जनाधार काम होने लगा है

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