मोदी की उभरी अखिल भारतीय छवि

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प्रमोद भार्गव

गुजरात में सफल तीसरी पारी खेलकर नरेंद्र्र मोदी ने निर्विवाद रूप से अखिल भारतीय छवि हासिल कर ली है। अब इस बात की ज्यादा उम्मीद बढ़ गई है कि 2014 का लोकसभा चुनाव भाजपा मोदी के नेत्तृव में लड़े। क्योंकि मोदी ने तमाम विवादों और विरोधाभासों के बावजूद 2007 के बराबर सीटें जीती है,बल्कि मत प्रतिशत भी बढ़ाया है। मोदी ने जहां लगातार तीसरी बार जीत दर्ज कराई,वहीं भाजपा लगातार पांचवीं मर्तबा गुजरात की सत्ता पर काबिज होगी। पश्चिम बंगाल की सीपीएम के बाद लगातार सत्ता दोहराते रहने का यह दूसरा व अनूठा उदाहरण है। मोदी को तमाम समाचार चैनल,मानवधिकारवादी संगठन और बौद्धिक परिचर्चाओं में तथाकथित बुद्धिजीवी यह घोषित करते रहे हैं, कि मोदी मौत के सोदागार रहे हैं, इस नाते किसी असुर की तरह मुसलमानों को निगल जाएंगे। लेकिन गुजरात में मुस्लिम बहुल इलाकों में जिस तरह से भाजपा उम्मीदवारों ने जीत दर्ज कराई है,उससे साफ हो गया है कि मोदी राज में न केवल मुसलमान अपने को सुरक्षित मानकर चल रहे है,बल्कि रोजगार पाकर अपना आर्थिक आधार भी मजबूत कर रहे हैं। भाजपा से अलग हुए केशुभाई पटेल,पटेलो के बीच भी कोई करिश्‍मा नहीं दिखा पाए।

कभी-कभी नकारात्मक हालात भी सकारात्मक रूपों में फलदायी होते हैं। मोदी के साथ गुजरात में कुछ ऐसा ही हुआ है। यदि गुजरात में 2002 में गोधरा कांड और उसकी पृष्‍ठभूमि में उभरे सांप्रदायिक दंगे नही हुए होते तो शायद आज मोदी राष्‍ट्रीय फलक पर एक कद्दावार नेता के रूप में नहीं उभर पाते। इसलिए विरोधियों ने जब उनकी फासीवादी छवि गढ़ी तो 2002 के विधानसभा चुनाव में हिंदू मतदाताओ का सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करके मोदी ने आसानी से चुनावी फसल काट ली। यहां से मोदी ने बाजारवादी विकास की ओर रूख किया और गुजरात के आर्थिक विकास को गति दी। इस नाते मोदी विकास पुरूष कहलाने लगे और उन्होंने 2007 का चुनाव बाइब्रेंट गुजरात का नारा लगाकर जीत लिया। मोदी की जीत सोनिया गांधी ने उन्हें मौत का सौदागर कहकर और आसान कर दी थी। इस दौरान वह एक कामयाब प्रशासक साबित हुए और देश व दुनिया के व्यापारियों ने गुजरात में पूंजी निवेश के लिए अपनी तिजोरियां खोल दीं। टाटा अपनी नैनों बंगाल से गुजरात ले आए। इससे मोदी के पक्ष में एक वातावरण बना और उनके विकास पुरूष होने की तसदीक हुई। इस सबके बावजूद पूरे देश में कई मोर्चों पर मोदी के खिलाफ जबरदस्त ढंग से 2002 का नरसंहार कराने का डंका पीटा जाता रहा,जिसका मोदी ने धैर्य के साथ जीवटता से न केवल मुकाबला किया,बल्कि अपनी प्रतिस्थापित छवि को भी बदलने की कोशिश की। इस समझ व चतुराई से चलते 2012 का चुनाव इस संभावना के साथ लड़ा गया कि गुजरात के मोदी ही 2014 के प्रधानमंत्री होंगे। मतदाता पर इस मनोवैज्ञानिक असर ने काम किया और मोदी ने 116 सीटें जीत लीं। ऐसी अटकलें हैं कि इस छवि को प्रचारित करने के लिए प्रछन्न रूप से मोदी ने ही मुहीम चलाई थी। यदि यह मनोवैज्ञानिक प्रभाव ने काम न किया होता तो शायद मोदी की जीत मुमकिन न होने पाती। क्योंकि इस बार कोई भावनात्मक मुदा गुजरात की हवा में नहीं था। विकास के मुद्रदे पर कांग्रेस व अन्य दल मोदी को कोई चुनौती पेश नहीं कर पाए। कांग्रेस इस मर्तबा भय की प्रतिच्छाया में चुनाव लड़ रही थी,इसलिए उसने ऐसा कोई मुद्रदा नहीं उछाला जिससे सांप्रदायिक ध्रुवीकरण होता। ऐसे में एक सामान्य वातावरण में यह जीत मोदी के लिए व्यक्तिगत रूप से बड़ी उपलब्धि है। क्योंकि यह चुनाव भाजपा बनाम कांग्रेस नहीं था,बल्कि मोदी बनाम कांग्रेस था।

भाजपा से केशुभाई पटेल के अलाग हो जाने के कारण माना जा रहा था कि उनकी गुजरात परिवर्तन पार्टी दक्षिण गुजरात और कच्छ सौराष्‍ट्र क्षेंत्रों में कमाल दिखाएगी। क्योंकि उनसे भाजपा के परंपरागत वोटों में सेंध लगाने की उम्मीद थी। किंतु मोदी ने शतरंजी चाल चलते हुए एक साथ इन क्षेत्रों में 56 पटेल उम्मीदवारों को टिकट देकर केशुभाई के जातीय आधार को धूल चटा दी। ये उम्मीदवार कुल सीटों के 32 फीसदी थे। इनमें 46 से ने जीत हासिल की है। यहां मोदी को प्रच्छन्न लाभ यह भी हुआ कि पटेलों के अलावा जो अन्य जातियां थीं,वे मोदी के पक्ष में लामबंद होती चली गईं। यही वजह रही कि केशुभाई पटेल जिस जातीयता के बूते नई पार्टी बनाकर चुनाव मैदान में उतरे थे,उससे पटेलों ने ही किनारा कर लिया। वैसे भी गुजरात के पटेल जातीय परंपरा में भले ही जाति विशेष से जुड़े हों हकीकत में वे व्यापारी हैं और व्यापारी के लिए जाति से कहीं ज्यादा व्यापार महत्वपूर्ण होता है। क्योंकि वही उसकी रोजी रोटी और साख का प्रमुख जरिया है। इसलिए चतुर पटेल केशुभाई के बरगलाने में नहीं आए। गुजरात में आर्थिक विकास दर को 10 प्रतिशत बनाए रखने में इन पटेलों की भूमिका अहम है। मोदी राज में व्यापार का अच्छा माहौल होने के कारण ही,देश की महज 5 फीसदी आबाजी गुजरात में होने के बाबजूद गुजरात ने में 2009-10 में देश के कुल निर्यात में 21 फीसदी और देश के कुल औधोगिक उत्पादन में 13 फीसदी की भगीदारी की थी। हालांकि मोदी को सौराष्‍ट्र में मात मिली है, लेकिन उसकी भरपाई मध्य गुजरात ने कर दी। जबकि दक्षिण का वह इलाका जहां से कांग्रेस के अहमद पटेल और तुषार चौधरी जैसे दिग्गज आते हैं, वहां पर कांग्रेस को मुंह की खानी पड़ी है। उत्तर गुजरात में इस बार कांटे की टक्कर रही है, जबकि आदिवासी बहुल इलाका होने के कारण इसे कांग्रेस का गढ़ माना जाता रहा है। लेकिन यहां सालों से राष्‍ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक डेरा डालकर राजनीति की जमीन में भाजपा के बीज बोने में लगे थे। अब लगता है, इस बार जो वोटों की फसल लहलहायी, उसे भाजपा को काटने में आसानी हुई है। हालांकि इस बार के चुनाव में मोदी से आरएसएस, विश्‍व हिंदू परिषद् और बजरंग दल ने एक निश्चित दूरी बनाकर रखी थी। कहा तो यह भी जा रहा था कि भाजपा के ये सहयोगी संगठन अंदरुनी स्तर पर भीतरघात का काम करने में लगे थे। किंतु मोदी की विकास की धारा ने इस भितरघात को निष्‍प्रभावी किया और केसरिया परचम फहराने में कामयाब रहे।

11 साल पहले जब मोदी केशुभाई पटेल का तख्तापलट करके गुजरात में सिंहसनारुढ़ हुए थे, तब 2002 के चुनाव में दंगों की छाया पर सवार रहते हुए मोदी ने 127 सीटें जीती थीं और कुल मतों का 49.85 प्रतिशत हासिल किया था। 2007 का चुनाव छद्म धर्मनिरपेक्ष बनाम मौत का सौदागर जैसे मुद्दों पर लड़ा गया। इसके नतीजे आए तो भाजपा की सीटें घट कर रह गईं। 117 और मत प्रतिशत भी घटकर 49.12 प्रतिशत रह गया। जबकि कांग्रेस की सीटें 51 से बढ़कर 59 हो गईं। इस बार का चुनाव आम आदमी के हित, स्थानीय मुद्दे और सांप्रदायिक रणनीति को दूर रखकर लड़ा गया। किंतु मीडिया ने नरेन्द्र मोदी को जिस तरह से देष का भावी प्रधानमंत्री बनाकर उभारा, उसका अप्रत्यक्ष लाभ मोदी को मिला। उन्हें सीटें मिली 116 और मत-प्रतिशत रहा 52।

हालांकि इन मुद्दों के परिप्रेक्ष्य में कांग्रेस व तमाम राजनीतिक विश्‍लेषक यह मानकर चल रहे थे, कि मोदी को झटका लग सकता है। उनका आर्थिक मॉडल खासतौर से शहरी क्षेत्र स्वीकार लिए जाने के बावजूद ग्रामीण क्षेत्र मेंनकारा जा सकता है। क्योंकि गुजरात में आम आदमी की स्थिति बेहतर नहीं है। यहां 41 फीसदी महिलाएं कुपोषण का शिकार हैं। 15 से 50 साल के बीच की 55 प्रतिषत महिलाएं रक्तअल्पता की शिकार हैं। मानव विकास सूचकांक के संदर्भ में यदि देश के शीर्ष 20 राज्यों का आकलन करें, तो गुजरात 18वें स्थान पर है। किंतु गुजरात में मतदान का जो आंकड़ा बढ़कर 70-71 फीसदी हुआ, वह मोदी का कल्याण करा गया। इसमें युवा और महिलाओं की महत्वपूर्ण भागीदारी रही। यही मतदाता गुजरात में निर्णायक साबित हुआ है।

मोदी को गुजरात में बढ़ते शहरीकरण का लाभ मिला और शहरों में मौजूद मुस्लिम आबादी का लाभ भी मोदी को हुआ। गुजरात में कुल 9 फीसदी मुसलमान हैं। इनमें से 85 फीसदी शहरों में रहते हैं। गुजरात के मॉलों में 50 फीसदी मुसलमान काम करते हैं। जाहिर है, मोदी के विकास के आधुनिक मॉडल ने मुसलमानों को बड़ी संख्या में रोजगार हासिल कराया है। कुछ समय पहले तक हिंदू-मुस्लिम एक-दूसरे के आवासीय क्षेत्रों में नहीं जाते थे। मोदी की सद्भावना यात्रा ने इस भय को तोड़ा है और दोनों समुदायों के बीच आवाजाही बड़ी है। बीते एक दशक से ऐसा कोई बढ़ा दंगा नहीं हुआ जिसकी प्रतिच्छाया में अल्पसंख्यक खुद को असुरक्षित पाते ? तय है मोदी राज में उन्हें तो सुरक्षा, शांति और अमन का माहौल मिला है, उसके तईं मुस्लिम मतदाताओं का झुकाव भी मोदी की ओर बढ़ा है, इसका प्रतिशत भले ही कम रहा हो।

हालांकि किसी भी चुनाव में किसी दल की हार अथवा जीत का न तो कोई एक कारण होता और न उसे एक सीधी या सरल रेखा में परिभाषित किया जा सकता है। यदि ऐसा संभव होता तो शंकर सिंह बाघेला अथवा केशुभाई पटेल चुनाव परिणामों की दिशा बदल सकते थे, लेकिन यह संभव ही नहीं है, कि चुनाव की कोई सीधी अथवा सरल रेखा खीचीं जा सके। फिर ये दोनों नेता मूल रूप से भाजपा से ही निकले हुए थे। ऐसे में इनकी वैचारिकता पर एकाएक मतदाता भरोसा कैसे कर ले ? कहा तो यह भी जाता है कि जो वाघेला अब कांग्रेस का गुजरात में नेतृत्व संभाल रहे हैं, एक जमाने में वे जब संघ और भाजपा से जुड़े थे, तब मोदी से कहीं ज्यादा कट्टर हिंदूवादी थे। हां यदि कांग्रेस गुजरात में भी गठबंधन की राजनीति को आगे बढ़ाते हुए सभी धर्मनिरपेक्ष दलों को एक करती। उनकी शक्ति के अनुरूप समझौता करते हुए सीटों का बंटवारा करती, तो एक बार मोदी को आईना दिखाया जा सकता था। फिलहाल तो तीसरी पारी खेलकर मोदी ने राष्‍ट्रीय छवि ग्रहण कर ली है और वे भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व में हस्तक्षेप करने के लिए दिल्ली कूच कर सकते हैं।

4 COMMENTS

  1. अख्तर भाई m.j.अकबर का लेख पढ़ो |कांग्रेस मुस्लिमो को मात्र ६० वर्षों में उसे लौलिपॉप दिखाया है ,मोदी ने रिकॉर्ड रूप से रोजगार एवँ देश का सिपाही बनाया है ,मुस्लिमो को |ऐसे ही नहीं मुस्लिम बाहुल्य सीटों में भी बीजेपी दो तिहाई जीती है |कुछ सोच समझ जगाओ तब कमेन्ट करो

  2. “तो दंगों की ज़िम्मेदारी कौन लेगा?”
    (१)—- उसकी ज़िम्मेदारी गोधरा स्थानक पर रेल गाडी के डिब्बे जलाने वालों की है, ऐसी मेरी दृढ मान्यता है। क्या,५७-५८ शिशु, बाल, बालिकाएं, वृद्धाएँ, महिलाएँ,सहित यात्रियों को जिंदा जलाकर बिल्ली हज करने जा रही है?

    (२)प्रति क्रिया का कारण मूल क्रिया होती है। मूल क्रिया ना होती, तो बताइए कि प्रतिक्रिया,कैसे होती?
    (३) गांधी जी का उपासक गुजरात, सर्वाधिक अहिंसक गुजरात, शाकाहारी बहुसंख्य जनसंख्या रखने वाला गुजरात, अहिंसक जैनियों की भी पर्याप्त जन संख्या रखनेवाला, गुजरात भी क्रोधित हुआ था।क्यो?
    (४)क्यों इसका सही कारण ढूंढिए। सूई गिरी है, घास की गंजी में, और ढूंढत हो बिजली की बत्ती तले?
    (५) बिना “ऍक्शन ही रिऍक्शन” नहीं होती। यह तर्क का सिद्धान्त है।
    कुछ आत्म परिक्षण (इंट्रोस्पेक्षन) कीजिए, पर उसके लिए ध्यान करना पडता है, तब व्यक्ति अपनी पहचान से परे होकर अपनी ओर देख कर सच्चाई जानता है- पर यह हिंदुओं की बपौती है। आप कर पाएंगे? क्रमवार उत्तर दीजिए, तो बात करें। समय भी बचे।

  3. जब गुजरात के कथित विकास का श्रेय नरेंद्र मोदी ले रहे हैं तो दंगों की ज़िम्मेदारी कौन लेगा. भारत के पहले बटवारे का श्रेय तो मोदी को नहीं मिल सकता लेकिन भारत को साप्रदायिकता के आधार पर बाटने का श्रेय मोदी को ज़रूर मिलेगा. गुजरात में धर्म निरपेक्षता की हत्या मोदी की सबसे बड़ी उपलब्धि है. एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के राजनेता होने के बावजूद मोदी ने सिर्फ कट्टरपंथी दंगाइयों का समर्थन किया. सरकार के लिए सभी धर्म स्थल एक समान होने चाहिए थे. जब पार्टी और नेता ही धर्म निरपेक्ष नहीं तो सरकार और देश धर्म निरपेक्ष कैसे बनेगे? मोदी अपनी पार्टी का नाम भारतीय दंगा पार्टी क्यों नहीं रख देते? अगर मोदी जैसा व्यक्ति देश का प्रधानमंत्री बनता है तो क्या देश का धर्मनिरपेक्ष चरित्र बाकी रहेगा? क्या सभी धर्म वालों के साथ मोदी इंसाफ कर सकते हैं? मोदी ने गुलबर्गा सोसायटी वालों से क्यों नहीं कहा कि तुम वापस जाकर वहां रहो, मैं सुरक्षा दूंगा?

    • सेक्युलर समाजवादी पार्टी की सरकार “अपनी बेटी उसका कल ” परियोजना के द्वारा केवल मुस्लिम लड़कियों को पैसा बात रही है .

      दिल्ली की शिला सरकार “लाडली योजना ” एंव अन्य शिक्षा योजना के तहत स्कूलों मैं हिन्दू बच्चों को कम तथा मुस्लिमों को ज्यादा पैसे बाँट रही है.

      बंगाल की ममता सरकार सिर्फ इमामों एंव मोलवियों को २००० मासिक भत्ता दे रही है पंडितों को नहीं .

      इस सेकुलरिज्म को परिभाषित करने की हिम्मत है आप मैं ?

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