मोदी बनाम सेकुलरिज़्म का घमासान

वासुदेव त्रिपाठी

images (3)सेकुलरिज़्म शब्द भारतीय संविधान का जन्मजात हिस्सा नहीं है। सेकुलरिज़्म शब्द को 1976 में 42वें संशोधन के द्वारा संविधान में सम्मिलित किया गया था किन्तु अपने मूल अर्थ से अलग भारतीय स्वीकृति में सेकुलरिज़्म राज्य के लिए “सर्वधर्म समभाव” के आदर्श के रूप में ही ग्रहण किया गया था। कुछ हद तक संविधान का अनुच्छेद 15 इसी आशय की पुष्टि करता है। किन्तु आज वास्तविक स्थिति बदल चुकी है, सेकुलरिज़्म आज भारतीय राजनीति का सबसे प्रचलित व अवसरवादी शब्द बन चुका है। जब एफ़डीआई जैसे विशुद्ध आर्थिक व नीतिगत मामले में सपा बसपा जैसे दल अपनी कथनी और करनी के बींच की खाईं को सेकुलरिज़्म की चादर से ढँकते नजर आते हैं तब सेकुलरिज़्म के वर्तमान स्वरूप और राजनैतिक उद्देश्य पर प्रश्नचिन्ह लगना स्वाभाविक हो जाता है.!

भ्रष्टाचार के एक के बाद एक विस्फोटों, आर्थिक बदहाली, महंगाई व सुरक्षा संकटों के बींच यूपीए-2 के पूर्ण असफल कार्यकाल में सेकुलरिज़्म शब्द की अवसरवादी प्रासंगिकता और भी अधिक बढ़ गई है। जहां एक ओर किसी भी प्रकार अपने कार्यकाल को पूरा करने के लिए संघर्षरत कॉंग्रेस के पास मुख्य विपक्षी दल भाजपा के विरोध में जनता के सामने जाने के लिए सेकुलरिज़्म के अतिरिक्त और कोई भी नारा या मुद्दा नहीं है, वहीं इस पूर्ण असफल सरकार की कालिख से बचने के लिए सहयोगी दलों के पास भी एक मात्र सेकुलरिज़्म का ही कारगर बहाना बचा है। इन क्षेत्रीय दलों के साथ समस्या यह है कि ये केन्द्रीय सत्ता की मलाई का लालच भी छोड़ नहीं पाते और क्षेत्रीय स्तर पर नुकसान का भय भी इन्हें लगा रहता है। भले ही इनका परंपरागत मतदाता जीडीपी अथवा मुद्रा स्फीति जैसे मामलों से बहुत इत्तेफाक न रखता हो किन्तु मंहगाई की मार वोट के जातिगत घेरे को भी तोड़ने पर विवश कर सकता है जोकि अधिकांश क्षेत्रीय दलों की जीवनबूटी है।

यूपीए-2 की असफलता के अतिरिक्त सेकुलरिज़्म के इस अवसरवादी शोर के लिए एक और भी मजबूरी खड़ी हो गई है, और वह है नरेन्द्र मोदी का शक्तिशाली उत्थान। मोदी की ऐतिहासिक गुजरात विजय ने उन्हें वर्तमान राजनैतिक परिदृश्य में लगभग अविजेय विकल्प के रूप में उभार दिया है। मोदी के नाम पर जनता के बींच उठने वाली आवाज़ और मीडिया का फोकस कोई संयोग अथवा चमत्कार बिलकुल नहीं है। यह एक दशक के मोदी के आविर्भाव की क्रमबद्ध व संतुलित प्रक्रिया का परिणाम है जिसे यूपीए-2 की कालिमा ने और तेजी से चमकने अवसर अवश्य दे दिया। भले ही कॉंग्रेस सरकार की जनविरोधी छवि व उसके एकमात्र युवराज राहुल गांधी की एक के बाद एक असफलताओं ने यह सुनिश्चित कर दिया हो कि 2014 में कॉंग्रेस को सत्ता से बाहर का रास्ता देखना होगा, किन्तु कई धुरंधरों व दावेदारों से सजी भाजपा के बींच से मोदी का प्रधानमंत्री पद के दावेदार के रूप में उभरने का श्रेय उनकी छवि, कार्यशैली व गुजरात के विकास को ही देना होगा। अब चूंकि मोदी की छवि सेकुलरिज़्म के पैमाने पर खरी नहीं उतरती, और बड़ी बात यह है कि मोदी स्वयं ऐसा प्रयास भी नहीं करते उल्टे वे राजनैतिक दलों के सेकुलरिज़्म पर करारा प्रहार करने का कोई अवसर भी नहीं चूकते हैं, अतः मोदी की सफलता व बढ़ता कद सेकुलरिज़्म की चादर के लिए सबसे बड़ा खतरा बन चुका है। इस सम्पूर्ण परिदृश्य का परिणाम यह है कि “सेकुलरिज़्म बनाम सांप्रदायिकता” की प्रतिस्पर्धा अब “सेकुलरिज़्म बनाम मोदी” की लड़ाई बन चुकी है और इसमें संदेह नहीं कि फिलहाल अभी मोदी ही भारी पड़ते नजर आ रहे हैं।

भले ही जातिगत गठजोड़ के चलते भारतीय राजनीति हाथी के दाँत की तरह हो गई हो जहां विचारधारा व घोषणापत्र के मुद्दे और होते हैं और जमीन पर चुनाव लड़ने के और, किन्तु फिर भी लोकतन्त्र में प्रत्येक विचारधारा को, चाहे वह तथाकथित सेकुलरिज़्म हो अथवा हिन्दुत्व या इस्लाम, अपनी मौलिक स्वतन्त्रता होनी चाहिए जिसका अन्तिम निर्णय जनता के द्वारा ही होना है। सेकुलरिज़्म समेत समाजवाद, जनवाद या किसी अन्य वाद पर किसी पार्टी, व्यक्ति अथवा संस्थान की परिभाषा को लेकर दुराग्रह परिपक्व लोकतन्त्र का हिस्सा नहीं हो सकता। किन्तु जब कॉंग्रेस जैसे दल भाजपा की ओर अथवा नितीश कुमार जैसे नेता नरेन्द्र मोदी की ओर सांप्रदायिकता की उंगली उठाते हैं तो यह दुनिया के सबसे बड़े लोकतन्त्र का एक अस्वस्थ दुराग्रह ही लगता है। विचारधारा बहस का विषय तो हो सकती है किन्तु आक्षेप का नहीं! यदि नरेन्द्र मोदी सांप्रदायिक हैं तो सांप्रदायिकता लोकतन्त्र का हिस्सा है, क्योंकि इसी सांप्रदायिकता को देश की जनता चुनती आ रही है। वास्तव में जिस सेकुलरिज़्म को उदार और लोकतान्त्रिक होना चाहिए वह अपनी संकीर्णता व दुराग्रह के चलते उपरोक्त सच को उदारतापूर्वक स्वीकार करने में सदैव हिचकता रहा है।

हमारी लोकतान्त्रिक संरचना का और भी अधिक दुर्भाग्य यह है कि राजनैतिक दलों से अलग देश का एक वर्ग, जो स्वयं को बौद्धिक कहलाना पसंद करता है, भी कहीं न कहीं सेकुलरिज़्म व सांप्रदायिकता पर लोकतान्त्रिक स्वीकृति से दूर बौद्धिक दुराग्रह का शिकार है। नरेन्द्र मोदी को सांप्रदायिक सिद्ध करने के लिए गुजरात दंगों के संदर्भ में उनके उस बयान को उठाया जाता है जिसमें उन्होने कथित रूप से कहा था कि “क्रिया की प्रतिक्रिया होती ही है”, किन्तु सिख दंगों के सन्दर्भ में राजीव गांधी के बयान- “बड़ा पेड़ गिरने पर जमीन हिलती ही है”- को भूल जाया जाता है, ऐसे में राजनैतिक सेकुलरिज़्म के लोकतान्त्रिक चेहरे के साथ साथ उसकी ईमानदारी भी सन्देह के घेरे में आ जाती है.! वास्तव में धर्मनिरपेक्षता सभ्य समाज का एक चारित्रिक गुण व स्वीकृति है किन्तु सेकुलरिज़्म को जिस प्रकार एक “वाद” एवं गुट का स्वरूप दे दिया गया है उसने न सिर्फ इतिहास के साथ अन्याय किया है वरन वर्तमान को भी गुमराह करने का प्रयास किया है। नरेन्द्र मोदी पर बहस करने वाले अथवा बड़े-बड़े लेख लिखने वाले बुद्धिजीवी प्रायः एक कथन दोहराते दिखाई देते हैं, मैं एक न्यूज़ चैनल के स्टूडिओ में था जहां मोदी पर एक बहस के दौरान इसी कथन की व्याख्या करते हुए एक बुद्धिजीवी ने कहा कि अटल जी ने मोदी को राजधर्म की नसीहत दी थी, इसका अर्थ यह हुआ कि अटल जी की दृष्टि में मोदी एक राज्य के राजधर्म को निभाने में अक्षम थे, फिर वे पूरे देश के राजधर्म को कैसे निभाएंगे? इस बहुप्रचारित बयान का पूरा सच यह है कि अटल जी ने कहा था “एक मुख्यमंत्री के रूप में मोदी को राजधर्म का पालन करना चाहिए… और मुझे पूरा विश्वास है कि नरेन्द्र भाई वही रहे हैं..!” (विडियो) ऐसे में क्या यह स्पष्ट नहीं होता कि स्वयं को सही सिद्ध करने के लिए सेकुलरों को आधे बयान को काट-छांट कर इस स्तर तक झूँठ का सहारा लेना पड़ता है.?

जब मोदी 2002 में विजय प्राप्त करते हैं तो कहा जाता है कि यह जीत मोदी के कट्टर हिन्दुत्व के कारण हुई है, और 2012 में जीतते हैं तो कहा जाता है कि यह जीत हिन्दुत्व से हटकर विकास के एजेंडे के कारण हुई है! प्रायः हिन्दुत्व व विकास को विरोधाभासी ढंग से चित्रित किया जाता है, जबकि मोदी हिन्दुत्व व विकास को एक साथ एक सिद्धान्त बनाकर पेश करने में सफल हो चुके हैं। वे 2012 का पूरा चुनाव विकास के मुद्दे पर लड़ते हैं लेकिन चुनावी मौसम में ही जब एक मौलवी उन्हें मुल्ला टोपी पहनाता है तो उसे पहनने से साफ इंकार कर देते हैं! प्रश्न स्वाभाविक है कि यदि कॉंग्रेस समेत सभी पार्टियां मुस्लिम हित के एजेंडे को निःसंकोच अपनी सर-आँखों पर रखती हैं, सच्चर कमेटी की सिफ़ारिशें उनके चुनावी घोषणापत्र का हिस्सा होती हैं, वक्फ बोर्ड के लिए वादे और मुसलमानों के लिए सहूलियतें उनकी चुनाव प्रचार के पर्चों पर वरीयता से छपे रहते हैं, किन्तु यदि इससे सेकुलर राजनीति विकास के मुद्दे से नहीं भटक जाती, तो केवल हिन्दुत्व के साथ ही विकास की राजनीति क्यों नहीं खड़ी हो सकती? मोदी ने इसी प्रोपेगैण्डा को खोखला साबित किया है और यही उनकी आज की ऐतिहासिक सफलता का कारण है।

यहाँ प्रश्न सेकुलरिज़्म बनाम मोदी में से किसी को सही अथवा गलत साबित करने का नहीं है, अपितु तथ्य यह है कि संविधान की सेकुलर अवधारणा को एक “वाद” के रूप में स्थापित कर उसे एक आदर्श के स्थान पर एक दुराग्रह व राजनैतिक अवसरवाद का रूप दिया जा चुका है। आज के सेकुलरिस्ट एक विचारधारा को ही अपराध घोषित करने के प्रयास में लोकतन्त्र के मूल से ही भटक गए हैं! सेकुलर ताकतों को यह समझने की आवश्यकता है कि जब तक वे सच को स्वीकारने का साहस नहीं दिखाते, “सेकुलरिज़्म बनाम मोदी” के घमासान में मोदी-विरोधियों का प्रत्येक दांव मोदी के पक्ष में रामबाण ही सिद्ध होता रहेगा।

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