मोहम्मद इज़हारूल हक़ : शिक्षा की रौशनी फैलाता एक नेत्रहीन

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-ए एन शिबली

यदि किसी व्यक्ति में शारीरिक कमी होती है तो वह इसे बहाना बना कर काम करना छोड़ देता है और दूसरों पर निर्भर हो जाता है। विश्व में ऐसे बहुत से लोग हैं जिनकी ऑंखें नहीं हैं, कई ऐसे हैं जिन के पांव नहीं हैं और कई ऐसे हैं जो किसी न किसी शारीरिक कमी से ग्रस्त हैं और इसे ही बहाना बना कर ऐसे लोगों ने खुद को दूसरों पर निर्भर कर लिया है। मगर इन में कुछ ऐसे भी हैं जिन्हों ने कई प्रकार की शारीरिक कमी के बावजूद न सिर्फ अपने को दूसरों पर निर्भर नहीं किया बल्कि वह दूसरों की सहायता कर रहे हैं। ऐसे ही लोगों में से एक हैं मुहम्मद इज़हारूल हक़। बिहार के मधुबनी ज़िला के खैरी बांका गांव के रहने वाले इज़हार साहब पूरी तरह से दोनों ऑंखों से अंधा होने के बावजूद खुद को किसी से कम नहीं समझते, खुद को दूसरों पर निर्भर नहीं करते और आज वह गांव में एक शानदार स्कूल चला रहे हैं।

इज़हार साहब के जीवन की कहानी भी बड़ी दिलचस्प है और इससे दूसरों को प्रेरणा मिलती है। मात्र 6 वर्ष की आयु में दोनों ऑंखों से अंधा हो जाने के बावजूद उन्होंने हिफ्ज़ (कुरआन शरीफ को पूरा याद) किया और फिर जीवन में कुछ करने की ललक लेकर कोलकाता से भाग कर मुम्बई चले गये।

उन्होंने यह बचपन में ही ठान लिया था कि मैं दूसरों के लिए मुसीबत नहीं बनूंगा इसलिए उन्होंने अंधों के लिए बने इन्स्‍टीटयूट में तीन साल की टेक्निकल ट्रेनिंग हासिल की। ट्रेनिंग के दौरान उनकी गिनती अच्छे विध्यार्थियों में होती थी। ट्रेनिंग में जब भी कोई प्रोग्राम होता तो मेहमानों का इस्तकबाल करने की ज़िम्मेदारी इज़हार साहब की ही होती थी। तीन साल का कोर्स पुरा करने के बाद इज़हार साहब को देश की एक बड़ी कंपनी महिंद्रा एंड महिंद्रा में नौकरी मिल गई। वह नौकरी तो करते रहे मगर उन के दिल में हमेशा यही खटकता रहा कि में अपने गांव वालों के लिए कुछ नहीं कर रहा हूं। छुट्टियों में वह जब भी अपने गांव आते तो उन्हें यह जान कर काफी अफसोस होता कि हमारे गांव के जिन बच्चों को स्कूल में होना चाहिए वह दिन भर इधर उधर घूम रहे हैं। कोई दिन भर खेल कर अपना समय बर्बाद कर रह है तो कोई चौक पर रह कर ही अपना जीवन खराब कर रहा है। छुट्टियां बिता कर वह मूम्बई तो चले जाते मगर वहां जाकर भी उनका ध्यान सिर्फ गांव और गांव के बच्चों पर लगा रहता। उन्हें हमेशा यही चिंता सताती रहती कि बच्चों में शिक्षा कैसे फैलाई जाए। यही सेचकर 1991 में रिटायरमेंट के 10 साल पहले ही रिटायरमेंट ले कर वह गांव चले आऐ। यहां आकर उन्हों ने अपने दरवाज़े पर ही अपने ही बच्चों को पढ़ाना शरू किया। इज़हार साहब की मेहनत लगन और उनकी ईमानदारी का ही नतीज़ा है कि मात्र दो टीचर और कुछ बच्चों से शुरू हुआ यह स्कूल आज इलाके के बेहतरीन स्कूलों में गिना जाने लगा है। यह इज़हार साहब का ही कमाल है कि जिस गांव में कभी एक दो लड़की ही मैट्रिक पास थी वहां अब इस स्कूल के खुल जाने के बाद लगभग 100 लड़कियों ने मैट्रिक पास कर लिया है। कई लड़कियां इन्टरमीडिएट कर रही हैं। कमाल की बात यह है कि इज़हार साहब के स्कूल की वजह से उन घरों की लड़कियों ने भी अब इंटर पास कर लिया है जिन घरों में पढ़ाई का कोई रिवाज नहीं था और जहां के लड़के भी मेट्रिक नहीं थे। गांव के लोग इज़हार साहब की इस कोशिश से बहूत खुश हैं। ज्यादर तर लोगों का यही कहना है कि इज़हार साहब ने स्कूल खोल कर पूरे गांव पर अहसान किया है। पहले गांव के कुछ घरों में ही शिक्षा थी मगर अब इस स्कूल के खूल जाने के बाद बहुत कम ही घर ऐसे है जिस के बच्चे स्कूल नहीं जा रहे हैं।

विनय कुमार मिश्रा स्कूल के प्रिंसिपल हैं। वह इज़हार साहब जिन्हें स्कूल में यहां बड़े मोहतरम कहा जाता है की बातों और उनके विचारों से इतने प्रभावित हुए कि अधिक सैलेरी की नौकरी छोड़कर यहां कम सैलेरी पर हिन्दी के टीचर के तौर पर ज्वाइन कर लिया। बाद में उन्हें प्रिंसिपल बना दिया गया। इज़हार साहब के बारे में वह कहते हैं कि ऑंखों से अंधा होने के बावजूद उनके विचार साफ और पवित्र हैं। उन्होंने समाज को शिक्षा की रौशनी देने का संकल्प लिया है। उन्हों ने पूरे इलाके पर अहसान किया है। यहां से शिक्षा पाए बच्चे इंजीनियर हो चुके हैं और बड़ी-बड़ी नोकरियां कर रहे हैं। इस से बड़ी बात और क्या हो सकती है कि उन्हों ने अपनी संपत्ति इस इदारे को दे दिया। शुरू के दिनों में लोगों के दरवाज़े दरवाज़े जाकर उन्हों ने लागों से मदद की अपील की। इन की यही सोच है कि कम से कम मूल्य में अच्छी शिक्षा दी जाए। गरीब बच्चों को वह पूरा सहयोग दे रहे हैं। उनकी जो कोशिश है वह बे मिसाल है। स्कूल का भविष्य कैसा है इस सवाल पर प्रिंसिपल साहब कहते हैं कि इस स्कूल का भविष्य उज्जवल है। आने वाले दिनों में वह शिक्षा का स्तर इतना बेहतर करना चाहते हैं कि यहां के बच्चे कहीं बाहर बड़े शहरों में जाएं तो उन्हें यह महसूस नहीं हो कि वह गलत स्कूल से शिक्षा प्राप्त करके आये हैं। उन्हें यह नहीं लगे कि मेरी शिक्षा अधूरी रह गई है। कहीं ऐसा तो नहीं कि यहां केवल मुस्लिम बच्चे ही शिक्षा प्राप्त करते हैं इस पर मिश्रा जी कहते हैं कि नहीं ऐसी कोई बात नहीं है। यहां हिन्दू बच्चे भी बड़ी तादाद में आ रहे हैं। क्लास में एक तरफ कुरआन को पढ़ाया जाता है तो दूसरी तरफ रामायण भी होती है।

इज़हार साहब को प्रचार नहीं चाहिए। उनके शानदार कामों की वजह से उन्हें खूद ही प्रचार मिल रहा है। एक बार सैलाब के ज़माने में इज़हार साहब को पटना जाना था। बस वाला यात्रियों से मनमानी किराया वसूल रहा था। यह बात इज़हार साहब को उचित नहीं लगी। बस वाले की मनमानी की शिकायत करने के लिए वह पटना में दैनिक हिंदूस्तान के कार्यालय पहुंचे। वहां सम्पादक यह जान कर काफी प्रभावित हुए कि जो व्यकित दोनों ऑंखों से अंधा है वह इतना जागरूक है और गांव में स्कूल भी चला रहा है। दूसरे दिन अखबार में इज़हार साहब के प्रयासों की सराहना करते हुए उन पर ख़बर छपी। इज़हार साहब में एक बड़ी खूबी यह है कि वह बच्चों से सिर्फ उनकी शिक्षा नहीं बल्कि उनके घर के मसले भी सुनते हैं और उसका हल निकालने में मदद करते हैं।

इज़हार साहब के प्रयासों से प्रभावित होकर हम ने उनसे बात चीत किये जा रहे हैं।

प्रश्न: आप अपने बारे में कुछ बताएं।

उत्तर: मेरा जन्म 9 नवंबर 1941 को हुआ। मैं मात्र छह महीने का था कि मां का देहांत हो गया। मां की मौत के बाद दादी ने मुझे पाला पोसा। मैं जब 6 साल का था तो चिकन पॉक्स की वजह से मेरे दोनों ऑंखों की रौशनी चली गयी।

प्रश्न: आपने खुद कहां तक पढ़ाई की हूई है?

उत्तर: मैं बहुत अधिक नहीं पढ़ा हूँ। मैंने मज़हबी तालीम हासिल की है, कुरआन शरीफ हिफ्ज़ किया है और फिर उसके बाद मुम्बई में मैने अंधों के र्वक्शाप में तीन साल की टेक्निकल ट्रेनिंग हासिल की।

प्रश्न: मुम्बई में आप क्या करते थे?

उत्तर: टेक्निकल ट्रेनिंग हासिल करने के बाद मुझे महिंद्रा एण्ड महिंद्रा में नौकरी मिल गयी। नौकरी के दौरान ही मैं कई प्रकार के सामाजिक कामों से जुड़ गया था। मैं National Association for the Blind का भी मेम्बर था।

प्रश्न: आपको यह अहसास कब हुआ कि आपको स्कूल खोलना चाहिये?

उत्तर: मेरी पैदाईश इसी गांव में हुई। मैं जब भी छुट्टियों में गांव आता तो मुझे यह जानकर बड़ा दुख होता कि यहां शिक्षा की काफी कमी है। जिनके पास पैसे नहीं थे वह तो मजबूर थे मगर जिनके पास पैसे थे वह भी अपने बच्चों को स्कूल नहीं भेज रहे थे। मैं गांव की भलाई के लिये कुछ करना चाहता था। मुम्बई में नौकरी के दौरान भी मैं यही सोचता रहता था कि मैं गांव के लिये क्या कर सकता हूं। फिर मैंने सोचा कि बच्चों को शिक्षा देना ही सबसे अच्छा काम रहेगा। फिर मैंने अपने घर वालों और चाहने वालों से सलाह व मश्विरा करके स्कूल खोलने का फैसला कर लिया। शुरू में मैंने अपने दरवाजे पर अपने रिश्तेदार के बच्चों को ही पढ़ाना शुरू किया। फिर मुझे गांव के लोगों ने कहा कि जब आप बच्चों को पढ़ाना ही चाहते हैं तो सिर्फ अपने बच्चों को क्यों हमारे बच्चों को भी पढ़ाईए। शुरू में कुछ लोगों ने मना भी किया कि स्कूल चलाना आपके बस का नहीं है। मगर मेरे शुभचिंतकों, मेरे बच्चों और घर वालों ने मुझे सहयोग दिया और फिर मैंने स्कूल खोलने की ठान ली। अब मुझे लग रहा है कि मैंने स्कूल खोलने का जो फैसला किया था वह बिल्कूल सही था और अब इस का नतीजा गांव में देखने को मिल रहा है।

प्रश्न: आप अपने बच्चों के बारे में बताएं ?

उत्तर: मेरे चार बच्चे हैं दो बेटे और दो बेटियां। लड़कियां अपने पति के साथ रहती हैं। एक बेटा महिन्द्रा एण्ड महिन्द्रा में इंजीनियर है जबकि दूसरा बेटा दुबई में एकाउनटेंट है। दोनों बेटे मुझे मेरे काम में पूरा सहयोग दे रहे हैं। अलबत्ता कभी कभी वह कहते हैं कि आप हम लोगों के साथ मुम्बई में ही रहें। मगर मैं तो एक खास मिशन पर लगा हूं अगर इस काम को छोड़कर मैं मुम्बई चला गया तो फिर मैंने जो एक अच्छा काम शुरू किया है उस में रूकावट आ जायेगी। वैसे भी जब मुझे बच्चों को शिक्षा देने में मज़ा आ रहा है तो फिर मुम्बई जाकर बस जाने से क्या फायदा। बच्चों से मिलने के लिये समय समय पर मुम्बई जाता रहता हूं। स्कूल के द्वारा मैं बच्चों और समाज की सेवा तो कर ही रहा हूं यह मेरे लिये अपने अल्लाह को खुश करने का एक माध्यम भी है।

प्रश्न: आप को स्कूल चलाने में किसी प्रकार की कोई परेशानी हो रही है?

उत्तर: नहीं! अल्लाह का शुक्र है कि अब यह स्कूल पूरी सफलता के साथ चल रहा है। शुरू में मेरे अपने लोगों ने ही मुझे काफी परेशान किया। उन्हों ने हमारे शिक्षकों को हमारे खिलाफ भड़काया। कई लोगों ने हमारे टीचरों को अलग कर के अपना स्कूल खोलने की कोशिश की मगर सबके सब नाकाम साबित हुए। अलबत्ता मेरे अपने रिश्तेदारों ने मुझे परेशान करने का सिलसिला जारी रखा। मुझे इस क़दर परेशान किया गया कि तंग आकर मैंने मुम्बई लौटने का फैसला कर लिया। मगर मेरे अपने चाहने वालों और गांव के कुछ लोगों ने मुझे हिम्मत दिलाई और फिर मैंने तय कर लिया कि स्कूल को सफलता से चलाउंगा और कहीं नहीं जाउंगा। हमें फलॉप करने के लिये जिन्हों ने भी स्कूल खोला वह खुद फलॉप हो गये। अल्लाह का शुक्र है कि हमारा स्कूल दिन प्रति दिन तरक्की कर रहा है। हमें उम्मीद है कि आने वाले दिनों में हम इसे एक कॉलेज की शक्ल देने में सफल रहेंगे।

प्रश्न: क्या आपको स्कूल चलाने में गांव वालों से सहायता मिल रही है?

उत्तर: मैं ने गांव वालों से पैसों की मदद कभी नहीं ली और न ही मुझे आगे उनसे पैसा चाहिए। मैं गांव वालों से बस यही सहायता चाहता हूं कि वह अपने बच्चों को स्कूल भेजें। गांव के लोगों को समझना होगा कि जीवन में शिक्षा से महत्वपूर्ण कुछ नहीं है। आज मुसलमान जीवन के हर क्षेत्र में इसलिए पिछड़ा हूआ है कि उसमें शिक्षा की कमी है। गांव वाले अपने बच्चों को स्कूल भेज कर मेरी सहायता करें बाद में लाभ उन्हीं का होगा।

प्रश्न: आपको स्कूल चलाने में सरकार से कोई मदद मिल रही है?

उत्तर: हमें सरकार से सिर्फ यह सहायता चाहिए कि वह हमारे स्कूल को मंज़ूर कर ले। जब भी इस सिलसिले में कोशिश करता हूं मूझ से रिश्वत मांगी जाती है। सरकार मैट्रिक में फर्स्ट डिवीज़न लाने वालों को स्कॉलरशिप देती है मगर हमारे बच्चों को यह सुविधा नहीं मिल रही है। मैं नेताओं को स्कूल में बुलाकर उनसे सहायता ले सकता हूं मगर मुझे बच्चों में शिक्षा फैलाना है राजनीति नहीं करनी।

प्रश्न: क्या आपने कोई ऐसी टीम तैयार की है जो अपकी मौत के बाद इस स्कूल को सफलता के साथा चला सके?

उत्तर: हमारे साथ जो लोग काम कर रहे हैं वह सब ईमानदारी से अपने काम में लगे हैं। कई बच्चे ऐसे हैं जो इसी स्कूल में पास हुए हैं और यहीं टीचर के तौर पर अपनी सेवाएं दे रहे हैं। मुझे उम्मीद है कि यह सब लोग मेरी मौत के बाद भी स्कूल को सफलतापूर्वक चला लेंगे।

प्रश्न: अपका आगे का प्लान क्या है?

उत्तर: मैं इस स्कूल को कम से कम कॉलेज तक ले जाना चाहता हूं। मैं ज़मीन की कोशिश मे लगा हूं। यदि इस में सफलता मिल गई तो इसे कॉलेज तक ज़रूर ले जाउंगा। लड़कियों के लिए भी खास तौर पर टेलरिंग, पेंटिंग और ऐसे ही दूसरे कोर्स शुरू करने का इरादा है ताकि मूसीबत की घड़ी में वह आत्मनिर्भर बन सकें।

प्रश्न: क्या आपके टीचर आप को पूरा सहयोग देते हैं?

उत्तर: हां हमारे टीचर हमें पूरा सहयोग देते हैं। देंगे भी क्यों नहीं, उन्हें भी पता है कि यह काम एक मिशन के तौर पर हो रहा है। टीचरों को स्कूल के सारे हिसाब किताब का पता होता है। पिछले 14 सालों में ऐसा कभी नहीं हूआ कि टीचरों की सैलेरी मिलने में देरी हुई हो। हम उनका भला करने की कोशिश करते हैं तो वह भी हमें पूरा सहयोग देते हैं। मुझे कभी नहीं लगा कि मेरे टीचर मुझे धोखा दे रहे हैं।

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