फगुनाहट की खुमारी खत्म होने के बाद चैत की चिलचिलाती धूप में चुनावी शोर भले ही तीखा हो गया है, लेकिन यह केवल शोर ही है, खासकर बात अगर बिहार के नज़रिए से करें। इस चुनाव पर किसी भी तरह का ज्ञान लेने और देने से पहले कुछ चीजें बिल्कुल तयशुदा तौर पर जान लीजिए। पहली और सबसे महत्त्वपूर्ण बात तो यह कि यह पूरा चुनावी रण एंटरटेनमेंट चैनल के एंकर्स की बदौलत काफी गंभीर लग रहा है। वैसे, आम जनता को इसमें कोई खास दिलचस्पी नहीं है। जितनी चीख-चिल्लाहट, हल्ला-गुल्ला और भावनात्मक उतार-चढ़ाव इन चैनलों पर देखने को मिल रहा है, ज़मीन पर से सारी चीजें गायब हैं।
ज़मीन से चीज़ें गायब हैं, इसलिए ही पहली बार यह चुनाव बिना घोषणापत्र के होनेवाला है। मुख्य विपक्षी दल अपना घोषणापत्र अब तक नहीं ला सका है, जबकि पहले चरण का चुनाव होनेवाला है (या आपके हाथों में इस लेख के पहुंचने तक हो भी चुका होगा)। इस घोर संवेदनहीनता का आलम यह है कि इस दल के नेता को मानो सोशल मीडिया और टीवी चैनलों ने देश का अगला प्रधानमंत्री घोषित ही कर दिया है, उसकी योजना या एजेंडा पूछने पर आपको खिलंदड़ा मान लिया जाएगा।
बिहार में बाकी दलों का भी हाल कुछ ऐसा ही है। तो, मेनिफेस्टो गायब है, पर हल्ला जोरों पर है, धनबल का प्रदर्शन ज़ोरों पर है और नेता इसलिए भी निश्चिंत हैं कि जनता तो आ ही जाती है, चैत की तीखी धूप हो, सावन की रिमझिम या फिर पूस की ठंड, यह तो वो रेहड़ है, जो लाठी से हांकने के ही लायाक है। शायद इसी वजह से घोषणापत्र की ही तरह मुद्दे भी गायब हैं। बिहार के मुख्यमंत्री अगर अपने भाषणों में गठबंधन तोड़ने की सफाई देते घूम रहें हैं, तो भाजपाई उनको भितरघाती सिद्ध करने में लगे हैं। राजद के सुप्रीमो और बाकी नेता इन दोनों ही दलों को गलियाने में लगे हैं। वैसे, मोदी को इस बात का धन्यवाद तो देना ही चाहिए कि जाति की सड़ांध भरी राजनीति करनेवाले बिहार में भी अब लोग विकास को मुद्दा बना रहे हैं, बिपासा (बिजली,पानी, सड़क) की बात कर रहे हैं।
हालांकि, इस बात से यह कतई नहीं समझा जाए कि बिहार में जाति की राजनीति खत्म हो गयी। विकास की बात सभी दल कर भले रहे हैं, लेकिन एक-एक सीट पर दलों के रणनीतिकार तथाकथित सोशल इंजीनियरिंग के बहाने जाति के वोट खींचनेवाले समीकरण को तय करते हैं।
एक नज़र जरा बहुत तेज़ी से बिहार के सभी दलों के खास जातीय कनेक्शन को देखिए। आरजेडी का पुराना ‘माई’ यानी मुस्लिम- यादव का समीकरण अपनी जगह बरकरार है, तो भाजपा का सवर्ण और वैश्य कनेक्शन है, गठबंधन टूटने के बाद भाजपा जदयू के अति पिछड़ों के वोट बैंक में सेंध लगाने की कोशिश कर रही है। नरेंद्र भाई मोदी को प्रधानमंत्री का उम्मीदवार बनाने से अति पिछड़ा वर्ग को साधने की कार्रवाई पहले ही हो चुकी है। जेडीयू के समीकरण में अति पिछड़े और महादलित तो हैं ही, उसने बीजेपी से गठबंधन तोड़कर यादव और मुस्लिम मतों को भी लुभाने की कोशिश की है।
अब ज़रा, उम्मीदवारों को देखिए- जेडीयू 38 सीटों पर चुनाव लड़ रहा है, भाकपा उसके गठबंधन सहयोगी के तौर पर दो सीटें पा चुका है। नीतीश कुमार ने अपनी सोशल इंजीनियरिंग के तहत तीन अतिपिछड़े, सात यादव, छह कुर्मी, पांच महादलित, पांच मुसलमान, दो वैश्य और नौ सवर्णों को टिकट बांटा है। सवर्णों में सबसे अधिक चार सीटें भूमिहारों को दी हैं, तो दो ब्राह्मणों को लड़ाने की तैयारी है, लालाजी को दो सीटें मिली हैं। भाकपा के दो उम्मीदवारों में एक यादव और एक भूमिहार है। मतलब, कुल दस सवर्णों को टिकट देकर नीतीश कुमार कहीं न कहीं इस वोट बैंक में सेंधमारी करना चाहते हैं। यह बात दीगर है कि सवर्णों का वोट हमेशा ही बंट जाता है, वह बल्क वोटिंग कभी नहीं करते हैं।
भाजपा नरेंद्र मोदी के नाम पर भले ही लड़ रही है, लेकिन अपने गठबंधन साथियों लोजपा और रालोसपा को कुल मिलाकर उसने 10 सीटें दे दी हैं। लोजपा और रालोसपा का वोट बैंक तकरीबन वही है, जो अब तक नीतीश कुमार को मिलता था। रामविलास पासवान को साथ लाकर उसने चार फीसदी पासवान वोटों पर अपनी निगाह गड़ायी है, जो वैसे भी नीतीश के राज में खिन्न हैं। यहां ध्यान दीजिएगा कि पासवान एकमात्र जाति है, जिसे नीतीश ने अपनी महादलित योजना से बाहर रखा है। भाजपा ने अपने प्रतिबद्ध वोटरों की खातिर 30 में से 14 टिकट सवर्णों को दिया है, जबकि अति पिछड़ा वर्ग से चार और एक मुसलमान को टिकट दिया है। अब उसकी निगाह अपने साथियों की मार्फत दलितों और पिछड़ों के वोट पर है।
आरजेडी कुल 27 सीटों पर खुद मैदान में है, जबकि 12 सीटें उसने कांग्रेस को और एक एनसीपी के तारिक अनवर को दी है। यादवों को 9 टिकट देकर लालू प्रसाद ने अपनी ज़मीन पर फिर से पकड़ बनानी चाही है, जबकि पांच सवर्णों को टिकट देकर यह भी संकेत दिया है कि ‘भूरा बाल साफ करो’ वाला मुहावरा बीते दिनों की बात हो गयी है। उसके गठबंधन सहयोगी कांग्रेस ने महादलित और सवर्णों को तीन-तीन सीटों पर लड़ाया है, यानी वह नीतीश और भाजपा दोनों के ही वोट बैंक में सेंध लगाना चाह रही है।
अब ज़रा यह देखिए कि 17 साल पुराने गठबंधन को दांव पर लगानेवाले नीतीश के लिए खोने और पाने को क्या है? करीबन डेढ़ करोड़ की आबादी वाले दलितों की स्थिति इस बार अहम इसलिए है, क्योंकि त्रिकोणीय मुकाबले में कई सीटों पर उनका वोट निर्णायक बन जाएगा। नीतीश ने इस सच्चाई को भांप लिया था और इसीलिए दलितों के अंदर विभाजन कर महादलित नाम का एक नया वर्ग ही बना दिया। इसी वर्ग ने उनको पिछले विधानसभा चुनाव में भारी जीत दिलायी थी।
इस बार नीतीश की राह कठिन है। सबसे बड़ा खामियाजा तो उन्हें गठबंधन तोड़ने का भुगतना पड़ रहा है, जिससे सवर्ण खासे खफा हैं। इसके अलावा, नियोजित शिक्षकों का मामला भी उनको भारी पड़नेवाला है। अब, नीतीश वास्तव में अहंकारी हैं या नहीं, ये तो वही बता सकते हैं, लेकिन उनकी बॉडी लैंग्वेज उनको भारी पड़ रही है। भाजपाई बड़ी चालाकी से खुद को ठगा हुआ प्रोजेक्ट करने में सफल हो रहे हैं औऱ साथ ही नीतीश को विश्वासघाती बताकर जनता की सहानुभूति भी बटोर रहे हैं।
जयराम रमेश के शब्द उधार लें, तो नीतीश जनता से संवाद कायम नहीं कर पा रहे हैं। दूसरे, इस बीच उनके फेसबुक और सोशल मीडिया मैनेजरों ने जिस तरह की भाषा लिखनी शुरू की है, वह लालू प्रसाद के स्तर पर उनको ले आती है, साथ ही पूरे चुनाव को मोदी पर केंद्रित भी कर रही है और यह समझने के लिए रॉकेट साइंस की ज़रूरत नहीं कि यह भाजपा के लिए दोनों हाथों में लड्डू के समान है।
भाजपा के चुनावी कैंपेन के सूत्रधारों को यह देख कर प्रसन्नता ही हो रही है कि मोदीमय माहौल में नीतीश की ज़मीन खिसक रही है। आप गुजरात मॉडल को नापने या उसे कसौटी पर कसने की लाख अपील कर लें, लेकिन आम लोगों के लिए तो वह रामराज्य सरीखा ही है- देखा किसी ने नहीं, पर चाह सभी की है। जैसा कि चाय की दुकान चलानेवाला पुट्टू कहता भी है, ‘हो मामा, सबके त देखिए लेलिअइ, अइ बेर एकरो देख लेल जाए।’ यह बात दीगर है कि पुट्टू बहुत चालाक है, वह गुटखा खाकर गंदे हुए अपने दांत निपोरता यह भी बताता है कि दारू का पैसा वह जेडीयू से लेगा, खर्चे का कांग्रेस या आरजेडी से, और भाजपा वाले से भी कपड़ा या पैसा लेगा…भले ही वोट वह अपनी मर्जी से दे।
बिहार का आम मतदाता इसी मूड में है। लालू प्रसाद कितना भी गर्जन-तर्जन कर लें, उनके पुराने दिन अब लौटनेवाले नहीं हैं। हां, इस बार नीतीश के प्रति गुस्से का लाभ वह भले उठा लें, मुसलमानों के पास विकल्पहीनता की स्थिति है और वह घूमकर उनके पास जा सकते हैं। इसका इतना ही लाभ लालू को मिलेगा कि उनका गठबंधन दहाई का आंकड़ा छू सकता है….
नीतीश को भारी नुकसान होनेवाला है और इसकी कीमत में शायद उनको अपनी सरकार भी देनी पड़े। उनकी सभाओं में होनेवाले उपद्रव को अगर अलग भी हटा दें, तो भी नीतीश अपनी कामयाबी को जनता तक पहुंचाने में सफल नहीं रहे हैं। और फिर, बिहार में मुद्दों पर आखिर बात ही कौन करता है (शायद पूरे देश में भी)। दावों और वादों की भीड़ में नीतीश एंड को. कहीं दहाई से नीचे न फिसल जाए।
भाजपा को मोदी की हवा और नीतीश के तथाकथित विश्वासघात का लाभ मिल सकता है, अगर भाजपाई खुद कुल्हाड़ी पर पैर न मार लें। गठबंधन टूटने के बाद नीतीश जिस तरह फिसले हैं, उससे भाजपाइयों को यह कहने का मौका भी मिल गया है कि देखो-देखो, हम न कहते थे, नीतीश बाबू से न हो पाएगा। सबसे बड़ा फायदा तो यह है कि अब उनकी कोई जिम्मेदारी नहीं है, वैसे भी जनता की स्मृति बड़ी क्षणिक होती है। अगर सारे पत्ते भाजपा सावधानी से खेले, तो आधी सीटें यानी 20 भी वह अपनी झोली में डाल सकती है।
पाठकों को यह हैरत में डाल सकता है कि इस लेखक ने ‘आप’ (आम आदमी पार्टी) का जिक्र तक अपने आलेख में क्यों नहीं किया है? इसलिए, कि खाए-पिए-अघाए मध्यवर्गीय लोगों की इस पार्टी का बिहार और उसकी ज़मीनी राजनीति में कोई दखल नहीं, जहां अधिकांश लोग तो महज अपने अस्तित्त्व की ही लड़ाई लड़ रहे हैं।
आखिरकार, पुट्टू की ही बात उधार लेकर कहूं तो, ‘हो मामा, आब पहिले वाला बात नइ हइ….हमहूं सब चलाक भ गेलियइ हन…वोट मुदा अइ बेर ओकरे देबइ, जेकर चोरी देखने नइ छियइ….’
कोई नृप होहुं, हमें का हानी- के सतत भाव में जीनेवाले बिहारियों पर इससे सटीक टिप्पणी और कुछ हो भी नहीं सकती।