मैंने माँ को देखा है ,
तन और मन के बीच ,
बहती हुई किसी नदी की तरह ,
मन के किनारे पर निपट अकेले,
और तन के किनारे पर ,
किसी गाय की तरह बंधे हुए ,
मैंने माँ को देखा है ,
किसी मछली की तरह तड़पते हुए बिना पानी के,
पर पानी को कभी नहीं देखा तड़पते हुए बिना मछली के ,
मैंने माँ को देखा है ,
जाड़ा,गर्मी, बरसात ,
सतत खड़े किसी पेढ़ की तरह ,
मैंने माँ को देखा है ,
हल्दी,तेल, नमक, दूध, दही, मसाले में सनी हुई ,
किसी घर की गृहस्थी की तरह ,
मैंने माँ को देखा है ,
किसी खेत की तरह जुतते हुए,
किसी आकृति की तरह नपते हुए,
घडी की तरह चलते हुए,
दिए की तरह जलते हुए ,
फूलों की तरह महकते हुए ,
रात की तरह जगते हुए ,
नींव में अंतिम ईंट की तरह दबते हुए ,
मैंने माँ को देखा है ,
पर….. माँ को नहीं देखा है,
कभी किसी चिड़िया की तरह उड़ते हुए ,
खुद के लिए लड़ते हुए ,
बेफिक्री से हँसते हुए ,
अपने लिए जीते हुए,
अपनी बात करते हुए ,
मैंने माँ को कभी नहीं देखा ,
मैंने बस माँ को माँ होते देखा है ,
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(2)
रात भर चलता रहा ,
जहन के मैदान में ,
धीरे -धीरे ……….
शायद कोई ख्याल था
या फिर ख्याल का बच्चा ,
वो बम्बई की इमारत जितना सख्त और ऊँचा ,
या फिर तुरंत पैदा हुए बच्चे सा रेशमी ,
वो ख्याल कुछ अजीब ही था ,
हाँ कुछ अजीब ही था वो …………….
माँ का दूध महक रहा था उस ख्याल से ,
आँखों में दिवाली का परा गया काजल लगा कर आया था वो ख्याल ,…..
पर मैं क्या करता ?,
बीबी बगल में लेटी थी ,
वो ख्याल बड़ी खामोशी से चिल्ला रहा था !!!!!!!!!!
तुम यहाँ मखमली गद्दे पर सो रहे हो ,
माँ वहाँ रसोई में सामन सा पड़ी है ,
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(3)
जब से घर से आया हूँ,
परदेश ,……….भूँखा हूँ,
खाना तो खाता हूँ,
पर पेट नहीं भरता ,
घर जाऊं ,
माँ के हाथों की रोटियाँ खाऊँ,
तो भूँख मिटे ,
”कमबख्त ये भूख,
माँ बेटे को अलग कर देती हैं”
(गरीबी के चलते घर छोड़ कर जब कम उम्र के बच्चे जब शहरों में महानगरों में आते हैं ,तब हर निवाले पर माँ की याद आती है ,पर इसी पेट और इसी भूत के चलते तो उस माँ ने आपने जिगर के टुकड़े को खुद से अलग होने दिया था ,तभी तो कहना पद गया की .ये भूंख माँ बेटे को अलग कर देती है ,)
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अनुराग अनंत-
(जन संचार एवं पत्रकारिता विभाग छात्र परास्नातक द्वितीय वर्ष ,बाबासाहेब भीम राव आंबेडकर केंद्रीय विश्वविद्यालय लखनऊ ,विशाखा छात्रावास मोबाईल no :-9554266100 )
Good.
Very good poeem.