राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघ चालक मोहन भागवत के बयान पर हमारे कुछ सेक्युलरिस्ट बंधु काफी उखड़ गए हैं। मोहन भागवत ने ऐसा क्या कह दिया है? क्या उन्होंने मदर टेरेसा पर कोई आरोप लगाया है? क्या उनके बारे में कोई ओछी बात कही है? क्या उन्होंने कोई गलतबयानी की है? क्या उन्होंने तथ्यों को तोड़ा-मरोड़ा है? क्या उन्होंने मदर टेरेसा का चरित्र-हनन किया है? उन्होंने तो ऐसा कुछ नहीं किया है। उन्होंने सिर्फ एक तथ्यात्मक बयान दिया है, जिसे मैं 100 टंच की चांदी कह सकता हूं या 24 केरेट का सोना कह सकता हूं। उसमें रत्तीभर भी मिलावट नहीं है। यदि मदर टेरेसा जीवित होती तो वे भी इस बयान से पूर्ण सहमत होतीं।
भागवत ने यह तो नहीं कहा कि मदर टेरेसा सेवा नहीं करती थीं या उनकी सेवा ढोंग थी। उन्होंने सिर्फ यही कहा कि उनकी सेवा के पीछे मुख्य भाव अभावग्रस्त लोगों को ईसाई बनाना था। इसमें भागवत ने गलत क्या कहा है? क्या वे लोगों को ईसाई बनने के लिए प्रेरित नहीं करती थीं? वे अपनी सेवाएं देने के लिए भारत ही क्यों आई? अमेरिका क्यों नहीं गईं? वे यूरोप में पैदा हुई थीं। यूरोप के ही किसी देश में क्यों नहीं गईं? स्वयं उनका अपना देश अल्बानिया यूरोप के पिछड़े हुए देशों में था। वे वहीं रहकर गरीबों की सेवा क्यों नहीं कर सकती थीं? उनका लक्ष्य गरीबों की सेवा नहीं था। उनका लक्ष्य गरीबों को ईसाई बनाना था। सेवा तो उस लक्ष्य को प्राप्त करने का एक साधन-भर थी। ये अलग बात है कि वह सेवा वे दिल लगाकर करती थीं।
यदि शुद्ध न्याय की दृष्टि से देखा जाए तो इस तरह की सेवा एक प्रकार की आध्यात्मिक रिश्वत है। आपने किसी की सेवा की याने आपने उसे अपनी सेवा दी और बदले में उसका धर्म ले लिया। इससे बड़ा सौदा क्या हो सकता है? मैं कहता हूं कि इससे बड़ी अनैतिकता क्या हो सकती है? जो धर्म आप पर लाद दिया गया है, उससे बड़ा अधर्म क्या है? पैसे या तलवार के जोर पर जो धर्म-परिवर्तन किया जाता है, उससे बढ़कर पाप-कर्म क्या हो सकता है? स्वयं इस धर्म-परिवर्तन को यदि ईसा मसीह देख लेते तो अपना माथा ठोक लेते। यदि कोई ईसा के व्यक्तित्व पर मुग्ध हो जाए, बाइबिल के पर्वतीय उपदेश से प्रेरित हो जाए, बाइबिल के दृष्टांतों से प्रभावित हो जाए और इसी कारण ईसाई बन जाए तो इसमें कोई बुराई नहीं है। ऐसे धर्म-परिवर्तन का मैं विरोध नहीं करुंगा। लेकिन विदेशी पादरी भारत क्यों आते हैं? सिर्फ इसलिए आते हैं कि यह उनकी सुरक्षित शिकार-भूमि है। मदर टेरेसा इसकी अपवाद नहीं थीं।
उन्हें आप नोबेल पुरस्कार दे दें या भारत रत्न दे दें या विश्व-रत्न दे दें, उससे क्या फर्क पड़ता है? किसी भी पुरस्कार या पद के कारण कोई झूठ, सच नहीं बन जाता। सच के सामने सभी पुरस्कार फीके पड़ जाते हैं। एक से एक अयोग्य लोगों को नोबेल पुरस्कार और भारत-रत्न पुरस्कार मिले हैं। इन पुरस्कारों को कवच बनाकर आप दिन को रात और रात को दिन नहीं बना सकते।
२-३ सप्ताह पहले का “वॉल स्ट्रीट जर्नल” के समाचार पर, आधारित निम्न आलेख
“युरप के चर्च बिक रहे हैं” पढें, और जाने कि, “चर्च बडी संख्या में बिक रहे हैं।”
https://www.pravakta.com/churches-of-europe-are-on-sale
और इसाई नास्तिक होते जा रहे हैं।
रविवार की दान-पेटी में पैसा आ नहीं रहा है।
और इसाई पुरोहित वेतनधारी होता है, (उनके लिए सारा व्यवसाय है।)
उसे वेतन भी उसी के चर्च की रविवार के प्रवचन की उपस्थिति के अनुपात में दिया जाता है।
***अब युरप की घटती इसाइयत की संख्या को, भोले भारत से भरपाई की जा सकती है।
***कोई मेक्सिको, ग्वाटेमाला, पनामा, वेनेझुएला, आर्जेन्टिना… इत्यादि, सारे दक्षिण अमरिका के देश जो गरीबी से पीडित है।
वहाँ ऐसी सहायता करने क्यों नहीं भेजे जाते?
उत्तर: कारण वें निर्धन बहुत है, पर वहाँ इसाइयत फैलाने की संभावना नहीं है।
क्यों? क्यों कि, वे पहले से ही इसाई हैं।
वहाँ कन्वर्जन हो नहीं सकता।
डा. वेदप्रताप वैदिक ने इस लेख मे जो तर्क दिये है कि मदर टरेसा भारत मे केवल ईसाई धर्म का प्रचार व प्रसार करने आईं थी मान भी लेने से उनकी सेवाओं का महत्व कम नहीं हो जाता। मदर टरेसा ने बेसहारा, बीमार, ग़रीब और कमज़ोर वर्ग को जिस तरह गले लगाया , उस सेवा भावना से प्रभावित होकर कुछ लोगों ने ईसाई धर्म अपना लिया तो क्या ग़लत किया
मोहन भागवत और अशोक सिधल ब्राँड के लोग भी इस सेवा भाव के साथ किसी ग़रीब देश मे जाकर हिंदू धर्म का प्रचार और प्रसार करें पर ये लोग केवल धार्मिक उन्माद और धार्मिक असहिष्णुता फैला सकते हैं और कुछ करना इनके बस की बात नहीं है।
अट्ठारवी -उन्नीसवीं शती में झायगनबाल्ग नामक पुर्तगाली इसाई मिशनरी २२ बार पण्डितों से वाद विवाद करके हार गया था।
तब से मिशनरियों ने गठ्ठन बांध ली थी; कि, हिन्दू के सामने तर्क से कभी जीता नहीं जा सकता।
मात्र धनके बलपर अनपढ बस्तियों में कन्वर्जन चलाया जा सकता है।
बस तभी से ढूंढ ढूंढ कर जहाँ जहाँ भी ऐसी ज़रूरतों से पीडित लोग रहते हो, उन्हें सहायता देकर, इसाइयत का धंधा चलाओ।
इनके एजण्ट घूम घूंम कर शिकार के शोध में रहते हैं।
मिलते ही सहायता का वादा करके आत्माओं की फसल काटते है।
मरते मनुष्यों का अनुचित लाभ लेकर-अपना नंबर बढाते हैं।
नवम्बर डिसम्बर में अधिक कन्वरजन इस लिए होते हैं, कि, अगले वर्ष की बजट की राशि इस वर्ष के कुल कन्वर्जन के नंबर पर आधार रखती है।
युरप में चर्च बिक रहे हैं।
क्यों कि ईसाई चर्च जाते नहीं।
अब क्या करें?
भारत में जब तक गरीब है, तब तक कन्वर्जन चलेगा।
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कलकत्ते की ऐसी ही गरीब बसति में ये टेरेसा काम करती थी।
नोबेल प्राइस एक राजनीति का हिस्सा है।
कुछ छिपाहुआ पॉलिटिक्स।
मूरख भारतीयों को बुद्धु बनाया जाता है।
अनुरोध।
इसी प्रवक्ता में, मानसिक जातियाँ १, २, और ३ पढें। और “युरप के चर्च बिक रहे हैं” नामक आलेख डाले हैं, उसे भी पढें।
कन्वर्जन का इतिहास द्योतित हो सकेगा।