सिनेमा और जनमानस का मनोविज्ञान – डॉ. प्रेरणा चतुर्वेदी

सिनेमा वर्तमान युग में समस्त कलात्मक अभिव्यक्ति के माध्यमों में सबसे सशक्त माध्यम बनकर उभरा है। किसी भी जाति, धर्म ,वर्ग , संस्कृति के लोगों को सीधे प्रभावित करने में यह समर्थ है। दृश्य एवं श्रव्य माध्यम के साथ ही कथा, अभिनय , संवाद, संगति, वातावरण सबके सहयोग से यह दर्शकों तक कोई भी संदेश जितनी तेजी से पहुंचा जा सकता है, दूसरा अन्य माध्यम नही।

हॉलाकि सिनेमा से पूर्व साहित्य समाज को निर्देशित करता रहा किन्तु सिनेमा के आगमन के बाद समाज को सीधे निर्देशित नही भी तो भी प्रभावित करने का कार्य बखूबी किया है। स्वयं महात्मा गांधी ने भी स्वीकारा था कि बाइस्कोप में राजा हरिश्चंद्र देखकर उनके जीवन की दिशा बदल गयी थी।

प्रत्येक कला रूप में साहित्य का कुछ न कुछ अंश होता है। इसलिए प्रत्येक सिनेमा भी किसी न किसी भाषा के साहित्य ( चाहे वह भारतीय हो, लोक प्रधान हो या निर्देशी हो ) से प्रभावित रहता है जबकि इसके विपरीत किसी प्रकार के साहित्य को अपनी अभिव्यक्ति के लिए किसी सिनेमा यानि अभिनय और विद्या है। जबकि सिनेमा के साथ ऐसा नहीं है, वह चाहकर भी साहित्य की उपेक्षा नहीं कर सकता । साहित्य उसके लिए मेरूदंड की भांति है जिसके बल पर वह खड़ा रहता है।

पहली बार सन् 1913 में दादा साहब फाल्के द्वारा निर्मित फिल्म प्रदार्शित हुई ‘ राजा हरिश्चंद्र ’ जो साहित्य से ही प्रभावित थी। हॉलाकि ‘ राजा हरिश्चंद्र ’ से पूर्व सन् 1896 -1912 तक की अवधि में कई थियेटर कंपनियॉं बनीं , जहॉ फिल्मों का प्रदर्शन हुआ था। 23 अप्रैल, 1896 ई0 को न्यूयार्क में सिनेमा के अविष्कारक एडिसन ने लगभग 50 फुट के सिनेमैटोग्राफ का पहला सार्वजनिक प्रदर्शन किया था।

भारतीय सिनेमा में यद्यपि दादा साहब फाल्के से पूर्व ज्योतिष सरकार ने सन् 1905 में बंग –भंग के विरूद्ध फिल्म बनायी थी, किन्तु इसे ब्रिटिश सरकार ने प्रतिबंधित कर दिया था। सन् 1900 से सन् 1930 तक की मूक फिल्मों में भारतीय जनमानस को प्रेरित करने के वाले नायकों पर आधारित पृष्ठभूमि का अनुपात अधिक था।

पहली बोलती फिल्म , आलम आरा के निर्माता अर्देशिर ईरानी पुणे निवासी की इम्पीरियल फिल्म कम्पनी ( सन् 1927 ) में ही सवाक् फिल्म का निर्माण हुआ था।पहली सवाक् बोलती फिल्म के बाद हिन्दी की दुनिया में सिनेमा के उद्देश्यों पर गंभीरता से विचार प्रारंभ हुआ। इसके पूर्व किसी भी हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं में सिनेमा की चर्चा न के बराबर ही थी। अब जबकि सिनेमा पर गंभीरता से चर्चा प्रारंभ हुई तो साहित्य जगत में अभी व्यावसायिकता के कारण लेखकों और साहित्यिक चिन्तकों में विचार – मन्थन भी प्रारम्भ हुआ परिणाम स्वरूप हिन्दी जगत में कई शर्तों के साथ फिल्मों को मान्यता दी गयी।

मद्रास के फिल्म सेंसर बोर्ड ने युवा पीढ़ी पर फिल्मों के अच्छे -बुरे प्रभाव जॉंच हेतु एक समिति प्रश्नावली आधार पर बनायी। आचरण, कर्तव्य ,ज्ञान , दायित्य आदि से जुड़े प्रश्नों की सूची के साथ अभिभावकों के नाम कमेटी के सदस्यों का विशेष अनुरोध भी प्रचारित हुआ। यह प्रयास केवल भारत में ही नहीं अपितु यूरोप के कई देशों में सोलह वर्षों से कम उम्र के लिए सिनेमा देखने पर पाबंदी लगायी लगायी ।

इन सब के बावजूद सिनेमा के बढ़ते प्रभाव का असर पूरे देश-समाज पर पड़ा । इसमें कोई संदेह नही है। हॉंलाकि भारतीय सिनेमा के बढ़ते प्रभाव पर एक सकारात्मक बिंदू अपने लेख ( भारतीय चित्र पर , चॉंद , लखनऊ , जून, 1937 ,में लेखक नंदगोपाल सिंह सहगल ने उद्घृत किया है।सहगल हिन्दी का रंगमंच , सिनेमा की चर्चा करते हुए लिखते हैं कि ‘‘ सिनेमा के कारण हिन्दी राष्ट्रभाषा का पद प्राप्त कर सकती है। भारतीय नृत्य और कला के दूसरे रूपों को लोकप्रिय होने का अवसर मिल सकता है।

साहित्य और सिनेमा में एक बात सामान्य है दोनों ही समाज को प्रभावित करते हैं। वैसे भी कलाएं समाज से उत्पत्र होकर समाज को प्रभावित करती हुई अन्नतः उसी में विलिन होती है। भारतीय फिल्मों का प्रारंभिक कथानक मूलतः धार्मिक था , जिसके बारे में भारतीय जनमानस पूर्व से ही परिचित था। किन्तु तीसरे दशक के प्रारंभ से सवाक् फिल्मों के निर्माण में चर्चित धार्मिक कथानकों के साथ ही जागृत समाज की अभिव्यक्ति को फिल्म में दिखाने का प्रयास प्रारंभ हुआ। विदेशी नियंत्रण , राजनीतिक मोर्चा, सांस्कृति क्रान्ति के फलस्वरूप समाज के बदलते समाज शास्त्र और मनोविज्ञान की कूट अभिव्यक्ति सिनेमा में मिली। देश के प्रति मर मिटने की भावना, पति द्वारा देश और प्राण न्योछावर करना तथा पत्नी का परिवार के प्रति पूर्व त्याग, निष्ठा, बलिदान आदि भावपूर्ण फिल्में बनायी गयी।

आजादी के बाद सामंतशाही ,मिल मालिक ,मजदर , वर्ग संघर्ष , आदि सन् 1970 तक फिल्मों के विषय बने । मदर इंडिया ऐसी सशक्त फिल्म बनी जिसने एक तरफ भारतीय ’लोक-संस्कृति ’ को प्रस्तुत किया । वही, दूसरी ओर स्त्री की लोक-लाज बचाने में मॉ की भूमिका से ऊपर स्त्री बनकर दिखाया । मां बेटे की कोई गलती माफ कर सकती है। लेकिन स्त्री -स्त्री की मर्यादा नहीं उधाड़ने दे सकती । स्त्री मनोविज्ञान यहां सशक्त भाव में उभरा ।

आजादी के बाद पाले गये स्वराज्य के स्वप्न का भ्रम धीरे-धीरे भारतीय जनमानस की आंखों में चुभने लगा था। पहले गोरे मालिक थे ,अब अपने ही रक्त, वर्ण के काले मालिक बन गये थे। साहित्य में रघूवीर सहाय , अज्ञेय, शमशेर बहादुर सिंह, ठाकुर प्रसाद, सिंह, गजानंद माधव मुक्तिबोध, निराला, धूमिल, नार्गाजुन त्रिलोचन शास्त्री प्रेमचंद, आर के नारायण, राही रज्जा आदि ।साहित्यकारों के साहित्य में आजादी के बाद टूटता खंडित होता स्वप्न दिखता है। उधर समाज में ग्रामों से शहरों की ओर पलायन बढ़ने लगा। शिक्षा, रोजगार प्राप्ति के लिए अब किसान खेतिहर होना नहीं चाहता वह भी अपने बच्चों को ऊंची शिक्षा दिलाकर हाथ में कलम पकड़ने वाला अफसर बनाने का ख्वाब पालने लगा। फलस्वरूप ग्रामीण युवकों का शहर में पलायन , जीवन की जद्दो जहद , शहर का व्यक्तिवादी और आत्माविहीन माहौल तथा रोजगार की तलाश नें उनमे कुंठा और तनाव को पैदा किया । साथ ही शहरी जीवन की अस्त-व्यस्त जीवन शैली , प्रशासनिक दुबलताए , लालफीताशाही , नौकरशाही ,अयोग्य पात्रों को मिलती सफलता ने युवा मन में आक्रोश भरा। राजनीतिज्ञों द्वारा युवाओं का अपने स्वार्थ हेतु प्रयोग और बाद में उपेक्षा ने युवायन में आक्रोश, हिंसा ,बदले की भावना को दृढ़ किया । और इन्ही भावनात्मक अभिव्यक्तियों को फिल्म में सजीव होता देख आक्रोशित मन क्षणिक सुखवाद में डूबता चला गया। जंजीर ,‘‘शोलें ’, त्रिशूल’, मुकद्दर का सिकंदर ,’अंधाकानून,’ ’अर्धसत्य,’ अंकुश,’ अंकुर,लव सैक्स और धोका,राज-2, हेट स्टोरी,जिस्म-2,डर्टी पिक्चर,हिरोइन,सात खून माफ,माफिया,गैग्गस आफ वासेपुर, कोयला,बैन्डिट क्वीन,शंघाई,राजनीति,चक्रव्यूह’आदि फिल्मों इसी भारतीय युवामन के आक्रोशित मनोविज्ञान का चित्रण करती हैं। यद्यपि इसी दौरान भारतीय सामाजिक , संस्कृति,मूल्यों ,परिवार मित्र आदि संबंधों में मधुरता को गुलजार ,ऋषिकेष मुखर्जी , वासु भट्टाचार्य जैसे निदेशकों ने समझकर अपनी सशक्त कलात्मक फिल्म अभिव्यक्तियॉं दी।

कला के सभी पक्षों में प्रेम और हिंसा समान रूप से यथास्थान प्रभाव डालती रही है। प्रेम करने वालों के साथ ही प्रेम न करने वालों ने भी राधा-कृष्ण के प्रेम संबंधों को समान रूप से स्वीकारा है। हालाकि मीरा कृष्ण और राम-सीता भी प्रेम के आदर्श हैं किन्तु जहां मीरा के प्रेम में दास्य एवं एकतरफा दाम्पत्य का भाव है वहीं राम-सीता दाम्पत्य के परिचायक रहे उनका प्रेम व्याकुलता प्रधान नहीं बल्कि समर्पण शांत भाव प्रधान रहा। संभवत: इसीलिए साहित्य के सभी प्रमुख कालों के कवियों के प्रेम के दोनो पक्ष संयोग और वियोग को चित्रित करने में राधा-कृष्ण के प्रति जितना प्रेमाग्रह रहा है,उतना राम-सीता के प्रति नहीं।

हमारे सिनेमा में भी हीर-रांझा,लैला-मजनू,शीरी-फरहाद,रब ने बना दी जोड़ी,दोस्ती,दोस्ताना,राम-लखन ही प्रेम मित्रता तथा भ्रातृत्व के प्रमुख एवं लोकप्रिय पात्र रहे। यद्यपि इन पात्रो के प्रेम में जहाँ प्रेम,त्याग समर्पण,बलिदान एंव प्रेमी की एकमात्र झलक में सम्पूर्ण जीवन की संतुष्टि है,न वहीं सिनेमाई प्रेम प्रारंभ से ही (प्रेम-देह) पाना चाहता है। वह क्षणिक सुखवाद में विश्वास करता है। प्रिय को पाने के लिए परिवार,समाज,मूल्य,संस्कृति,धर्म,विचार,दर्शन नीति,परम्परा सबकी नसीहतें उसे बेड़ियाँ लगती हैं,जिसे तोड़ देने को वह उद्दत रहता है।

यद्यपि भारतीय धर्म एंव समाज में भी प्रेम को पूजा कहा गया है।किन्तु उसकी उदारता त्याग और बलिदान में अधिक है लेकिन सिनेमा ने इस प्रेम की उददात्ता के बदले हुए रूप को प्रस्तुत कर प्रेम का विकृत रूप विवाह पूर्व संबंध, कुँवारी माँ, प्रेम के स्थान पर यौन तृप्ति,यौन कुन्ठा,यौन-लिप्सा,यौन आकर्षण,देह आकर्षण को ही उभारा है। फलस्वरूप स्त्री भोग की वस्तु मात्र मान ली गई न की प्रेम की। एक दूजे के लिए व बाँबी आदि अनेक फिल्मों में देह आधारित प्रेम मुख्य है भावना आधारित नहीं।

अमीर लड़की, गरीब लड़का , वर्ग,जाति,धर्म, संस्कार स्तर आधारित मतभेदों पर परिवार एवं समाज का विरोध , मारधाड़, हिंसा तथा प्रेम न पाने पर बलात्कार ,यौन-हिंसा (हॉंलाकि यह कुत्सित प्रेम भाव खलनायकों तक ही सीमित रहा) आदि द्वारा स्त्री प्राप्ति यही सिनेमाई प्रेम का सुपरहिट फार्मूला संभवतः आज तक है। हॉलाकि इस दौरान शुद्व प्रेम पर आधरित फिल्मों की चर्चा करें तो ‘सुजाता ’ बन्दिनी’, आखिर क्यों ?,’ अमृत ,’देवदास,’ वीरजारा’, जैसी फिल्मों भी हैं ,जो जीवन के अंतिम दौर तक प्रेम का एकभाव लिए रहती हैं।

प्रेम के साथ ही हिंसा भी साहित्य से अधिक सिनेमा में प्रभावी रहा है। दृश्य श्रव्य होने के कारण हिंसा के बदलते और नये-नये रूपों में फिल्मकार दर्शकों को रूबरू कराते रहे हैं। प्रारंभिक फिल्मों में कोड़ा ,लाठी ,पिस्तौल तक ही हिंसा सीमित रही किन्तु एक्शन प्रधान फिल्मों के आगमन ने नायक के बदले की भावना को अभिव्यक्ति देने के लिए मशीनगन, ए.के 47,बम, चाकू , तलवार ,राड, लोहे के सिक्कड़, फरसा, कुल्हाड़ा, लकड़ी चीरने वाले मशीनों के साथ ही समय -समय जंगली कुत्तों , सॉंप , घोड़े, हाथी, शेर, जैसे हिंसक जानवरों का भी प्रयोग बखूबी किया है। जिससे दर्शकों में अधिक से अधिक रोमांच जागे। कटे-फटे , क्षत-विक्षत, शरीर के अंग और उनमें से बहता खून, जैसे रोते बच्चे , सूनी मांग, रोती बिलखाती स्त्री, झोपड़ों में लगी आग, झुलसते जानवर, सिनेमा में मनुष्य अधिक ऐसे दृश्यों के प्रयोग ने यदि देखा जाये तो आम जनमानस की हिंसात्मक प्रवृति को इतना बढ़ा दिया है,कि अब यदि यथार्थ में भी हिंसात्मक दृश्य प्रस्तुत हो जाये ,तो भावात्मक रूप से जनमानस आंदोलित नहीं होता, बल्कि तटस्थ भाव से आगे बढ़ जाता है।

कम से कम समय में अधिक से अधिक बॉक्स ऑफिस कलेक्शन की -चाह ने कब धीरे धीरे भारतीय आम जनमानस को भावना,मूल्य ,संस्कार के प्रति तटस्थ और उदासीन बना दिया शायद उसे भी पता नहीं । आज सिनेमा के सौ वर्ष पूरे होने का हर्ष सभी को है। लेकिन आज आवश्यकता इस बात की भी है कि उपनिदेशवाद, डॉलर की चमक, ओवरसीज मार्केट कलेक्शन , भारतीय दर्शकों की थियेटर मॉल में उमड़ती भीड़ के बीच दर्शक की संवेदना कितनी जागृत है इस बात का भी मूल्यांकन हो , कि आज संवाद का सबसे सशक्त कलात्मक माध्यम सिनेमा का रचनात्मक प्रभाव मृतप्राय हो चुका है।

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