एमपी अजब है, लोग गजब हैं

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एमपी वाकई में कई मामलों में अजब-गजब हैं, अजब इस मामले में कि शिवराज के करिश्माई मार्गदर्शन में किन्तु-परन्तु के बीच विपक्ष को औंधे मुंह गिरा।  तीसरी बार पहले से ज्यादा सुदृढ़ होकर उभरी हैं, दूसरा विकास दर, सूचना तकनीकी, पर्यटन,लोकसेवा गारंटी, लाड़ली लक्ष्मी एवं अन्य योजनाओं में न केवल राज्य बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर भी कई पुरस्कार भी अपनी झोली में डाले। एक बात तो निर्विवाद रूप से कटु सत्य है जो सभी को  स्वीकार्य भी है कि ‘‘मध्य प्रदेश में  विकास’’ तो हुआ है। तीसरा विपक्ष के मुंह को ऐसा सिला दिया कि विरोध के शब्द तक ठीक से नहीं फूट सकें, उलट तेजतर्रारों को अपनी ही पार्टी की सदस्यता  दिला गाल पर तमाचा मारा सो अलग, रहा सवाल कांग्रेस के निष्ठावान कार्यकर्ताओं का तो उन्हें उन्हीं के सेना नायकों द्वारा कुचला जा रहा है।
 गजब इस मामले में कि यहां चपरासी से लेकर अधिकारियों, मंत्रियों की तो बात ही नहीं है। सभी करोड़पति हैं, बिना नाखून के लोकायुक्त की दाद देनी होगी  जिसे सरकार भ्रष्टों के खिलाफ चालन की अनुमति नहीं दे रही है, फिर वह घड़ाधड़ छापामार कार्यवाही में जुटा हुआ है। यहां यक्ष प्रश्न उठता है कि कौन कहता है कि ‘‘मप्र गरीब हैं’’ दूसरा मंत्रियों एवं अधिकारियों के खिलाफ लोकायुक्त में केस दर्ज होने के बावजूद प्रमोशनों की बंदरबांट  जारी है। तीसरा ईमानदार मर रहा है। भ्रष्ट फल फूल रहा है। चौथा केन्द्र एवं राज्य की विभिन्न संचालित विभिन्न  योजनाओं के भ्रष्टाचार में अधिकारी  मंत्रियों के लिए दुधारू गाय नहीं बल्कि भैंस बने हुए हैं जो काली कमाई से न केवल खुद मोटे हो रहे हैं, बल्कि कई भैंसाओं को भी पाल रहे हैं। पांचवां शिक्षा के मंदिर, भ्रष्ट, निकम्मे, नाकारा कुलपतियों की वजह से कलंकित हो रहे हैं।
राजनीति भी गजब से अछूति नहीं है, यहां भी कई यक्ष प्रश्न उठ खड़े होते है, जैसे जब विपक्ष में है तो सुविधाओं का विलाप क्यों? जनसेवा के लिये आये हैं या सुख भोगने के लिए? जो सुविधाएं संविधान में ही नहीं है, उन्हें मांगना कहां तक उचित? फिर बात चाहे गाड़ी, बंगला, स्टाफ या अन्य ही क्यों न हो?  परिपाटी या परम्परा नजीर नहीं हो सकती और न ही इसकी दुहाई देना चाहिए।जनसेवकों को एक बात कभी नहीं भूलना चाहिए वे जनता की सेवा के लिए राजनीति के माध्यम से आये है न कि शासक या अधिकारी। बल्कि होना तो  यह  चाहिए कि पक्ष या विपक्ष कोई भी सुविधाएं कम से कम वे ‘‘आम आदमी’’ ही लगे विशेष नहीं। होना तो यह भी चाहिए कि इनके वेतन भत्ते जो सरकारी खजाने से पाते हैं, के लिए कर्मचारियों की तरह ‘‘वेतन भत्ता के लिए आयोग’’ होना चाहिए। सुविधाएं केवल उधार का सिन्दूर है जो जनता के पैसे का है उस पर इतराना या अधिकार जताना कहां तक उचित हैं? जीतहमेशा पुरूषार्थ करने वालों की होती है भीख मांगने से नहीं? कुछ चीजें राजा रावण से भी सीखने की है फिर बात चाहे दृढ़ निश्चय, कठोरतप, तपस्या से अर्जित शक्तियों की हो, राजनीति की हो, अपने बन्धु-बांधव, कुटुम्ब को तारने की हो, तभी तो राजा राम ने रावण केअंतकाल में लक्ष्मण को शिक्षा लेने को कहा।
विगत 10 वर्षों में विपक्ष केवल अपने कबीलाईयों के युद्वों में ही मशगूल रहा, उससे ऊपर ही नहीं उठा, जिससे जनता केमुद्दे गौण हो गए, जिसके परिणाम स्वरूप जनता से चुनाव की अग्नि परीक्षा में एक सिरे से नकार दिया।
भाजपा को बात-बात पर कोसने वाला विपक्ष सूचना आयुक्तों की नियुक्ति के मामले में सरकार की गोद में ही जा बैठी एवं पारदर्शिता और जवाबदेही से  बिचकती  ही नजर आई। अब उन्हें कोई भी न तो नैतिक और भलमनसाहत का आधार बचा कि उन पर कोई विशेष विचारधारा या शासन को विशेष  लाभ पहुंचाने वालों  को ईनाम मिला का भविष्य में कोई आरोप लगए?
पुलिस अनुसंधान एवं विकास ब्यूरो के अनुसार देश में करीब 17 हजार वीआईपी लोगों की सुरक्षा में 50 हजार  जवान लगे हैं औसतन एक पर  तीन वही  आम आदमी की सुरक्षा में 570 पर एक पुलिसकर्मी है। यहां यक्ष प्रश्न उठता है अपने ही देश में अपनी ही जनता से जनप्रतिनिधि को असुरक्षा कैसे?                यूं तो सुप्रीम कोर्ट भी इस बात को तो नाराजगी व्यक्त कर चुका है। इसी तरह सरकारी खर्चों पर, शाही आयोजनों पर, सुविधाओं पर, समय-समय पर प्रश्न खड़े होते ही रहे हैं। लेकिन पराए माल पर ‘‘ऐश’’ के जलवे का पर्दा हटाने को कोई भी तैयार नहींहै। इन कृत्यों से कुल मिलाकर एक भी स्पष्ट संदेश जाता है कि सभी राजनीतिक दल मौसेरे भाई हैं। एक दल ने कमा लिया अब हमें भी मौका दो?
विपक्ष को अपनी मट्टी पलीत अब और नहीं करना है तो उसकी प्रतिबद्धता सरकार के प्रति न होकर जनता के प्रति होना चाहिए और ये केवल भाषण  तक ही  सीमित न हो उनके मन-वचन-कर्मों से भी सिद्ध होना चाहिए, तभी अर्श मिलेगा नहीं तो फर्श भी नसीब नहीं होगा।
-डॉ. शशि तिवारी-

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