सांसदों के वेतन की तटस्थ समीक्षा जरूरी

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salaryललित गर्ग
सांसदों के वेतन और भत्तों के लिये बनी संसदीय समिति ने जो सिफारिशें की हैं, उन्हें सरकार ने पूरी तरह मानने से इन्कार कर दिया। इन सिफारिशों के अनुसार सांसदों का वेतन एवं भत्तों की राशि लगभग डबल होने जा रही थी। भाजपा सांसद योगी आदित्यनाथ की अध्यक्षता वाली संसदीय समिति ने लम्बी सिफारिशें की हैं, जिनमें से सांसदों का दैनिक भत्ता 2000 से 5000 रुपये करने, उनकी हवाई यात्रा 34 से बढ़ाकर 48 करने, पूर्व सांसदों को मुफ्त हवाई यात्रा, विवाहित बच्चों को स्वास्थ्य सुविधा देने जैसी सिफारिशों पर सरकार ने विचार करने से ही मना कर दिया है। सरकार कुछ और भी सिफारिशें स्वीकार करने के पक्ष में नहीं है। इनमें सभी राज्यों की राजधानी में सांसदों की यात्रा के दौरान सरकारी वाहन और गेस्ट हाउस की सुविधा, सांसदों के सहचर को ट्रेन में प्रथम श्रेणी एसी की सुविधा, सांसदों को विदेश यात्रा के दौरान स्थानीय टेलीफोन की सुविधा, टोल केंद्रों पर छूट और रोजमर्रा के सामान की खरीद के लिए कैंटीन सुविधा उपलब्ध कराने जैसी सिफारिशें शामिल हैं। यहां प्रश्न सांसदों को मिलने वाली सुविधा, वेतन एवं भत्तों के सन्दर्भ में मीडिया में नकारात्मक वातावरण का है तो समिति की अतिरंजित सिफारिशों का भी है। समिति इन अतिश्योक्तिपूर्ण सिफारिशों से बच सकती थी और उसे बचना भी चाहिए था। देश में ज्यादा लोकतांत्रिक और समानतामूलक तंत्र बनाने की कोशिश होनी चाहिए। वैसे भी, इंगलैण्ड एवं ब्रिटेन जैसे समर्थ एवं विकसित राष्ट्र में सांसदों को मिलने वाले वेतन एवं भत्तों या अन्य सुविधाओं की तुलना से बचना चाहिए। क्योंकि वहां प्रति व्यक्ति आय और हमारे यहां की प्रति व्यक्ति आय में बहुत अन्तर है। आज जबकि हमारा राष्ट्र विकास की ओर डग भरने की कोशिश करने की मुद्रा में दिखाई दे रहा है, तब देश को एक सशक्त वित्तीय अनुशासन की आवश्यकता है। खर्च पर प्रतिबन्ध हो। फिजूलखर्ची एवं सुविधा के खर्च रोक दिए जायें।
राजनीति भ्रष्टाचार एवं घोटालों की लम्बी काली रात से बाहर निकलने का जब हम प्रयास कर रहे हैं, तब हमें इस बात पर गंभीरता से चिन्तन करना चाहिए कि हमारे जन-प्रतिनिधि किस तरह से लोकतंत्र को मजबूती दें, राजनीति में व्याप्त अनगिनत समस्याएं राष्ट्रीय भय का रूप ले चुकी हैं। आज व्यक्ति बौना हो रहा है। परछाइयां बड़ी हो रही हैं। अन्धेरों से तो हम अवश्य निकल जाएंगे क्योंकि अंधेरों के बाद प्रकाश आता है। पर व्यवस्थाओं का और राष्ट्र संचालन में जो अन्धापन है वह निश्चित ही गढ्ढे मंे गिराने की ओर अग्रसर है। अब हमें गढ्ढे में नहीं गिरना है, एक सशक्त लोकतंत्र का निर्माण करना है।
आज देश के आम आदमी को सांसदों के वेतन बढ़ने, उनको मिलने वाली सुविधाओं के विस्तार से कोई मतलब नहीं है और ऐतराज भी नहीं है। उसकी अपनी मुश्किलें कम हों, इसमें दिलचस्पी है। उसकी छोटी-छोटी आवश्यकतायंे पूरी हों। विलम्ब न हो। विलम्ब के कारण आज वह थक चुका है, लम्बी योजनाओं से, आंकड़ों से वह तत्काल सुधार, सुविधा चाहता है, जिसके कारण हताश होकर बार-बार सरकारें बदल देता है। चुनाव के समय उससे जो वायदें किये जाते हैं, जो सपने उसे दिखाएं जाते हैं, जो आश्वासन उसे दिये जाते हैं, वे पूरे होना उसके लिये प्राथमिकता है।
कभी-कभी ऊंचा उठने और भौतिक उपलब्धियों की महत्वाकांक्षा राष्ट्र को यह सोचने-समझने का मौका ही नहीं देती कि कुछ पाने के लिए उसने कितना खो दिया? और जब यह सोचने का मौका मिलता है तब पता चलता है कि वक्त बहुत आगे निकल गया और तब राष्ट्र अनिर्णय के ऊहापोह में दिग्भ्रमित हो जाता है। सांसदों को मिलने वाले वेतन पर गंभीरता से चिन्तन होना चाहिए। क्योंकि सांसदों को संसद सत्र के दौरान जो भत्ता मिलता है, वह भी तभी जायज माना जा सकता है, जब सांसद संसदीय काम को गंभीरता से लें और संसद में बहस व चर्चा करें। हमने देखा है कि संसद के कई सत्रों में पूरे-पूरे सत्र में कोई कामकाज नहीं होता, सिर्फ हंगामा होता रहा। सांसद अपना वेतन जरूर बढवाएं, लेकिन जवाबदेही भी बढाएं। सांसद अपने क्षेत्रों में जो काम करते हैं, उसके लिये भी सुविधाओं की मांग करें, लेकिन वे वहां काम करते दिखने भी चाहिए।
सांसदों के वेतन के प्रश्न पर अक्सर सुना जाता है कि भारत में लोकसभा और राज्यसभा के सदस्यों का वेतन यूरोप ही नहीं, एशिया के ही कई देशों की तुलना में काफी कम है। हमारे पड़ोसी पाकिस्तान में ही सांसदों का वेतन ज्यादा है। ब्रिटेन में सांसदों का वेतन हर साल बढता है और कभी-कभी तो साल में दो बार भी बढ जाता है। वर्तमान में उनका वेतन सालाना करीब 74 लाख रुपए, यूएस में करीब 45 लाख, कनाडा में करीब 36 लाख रुपए के बराबर वेतन और अधिक सुविधाएं उपलब्ध है। फ्रांस और जापान ने तय किया है कि सांसदों का वेतन किसी भी कीमत पर सर्वाधिक वेतन पाने वाले नौकरशाहों से अधिक ही होगा। जर्मनी में वहां का कानून कहता है कि सांसदों को इतना वेतन दिया जाए कि वे अपने तमाम कार्य आसानी से पूरे कर सके और उन्हें कभी भी पैसे की किल्लत न हो। स्विटरलैंड में सांसदों को वेतन या भत्ते नहीं दिए जाते। जो सांसद किन्हीं कंपनियों में नौकरी करते हंै, उन्हें वहां से सवैतनिक अवकाश देने का चलन है। मैक्सिको में संसद सदस्य शानदार वेतन पाते है, लेकिन वे और कोई भी नौकरी, धंधा नहीं कर सकते। इन स्थितियों के बीच भारतीय सांसदों का वेतन बढ़ना ही चाहिए, लेकिन उसकी कुछ सीमाएं निश्चित होनी चाहिए। सबसे जरूरी बात यह है कि राजनीति सेवा का उपक्रम है, अतः सेवा की भावना जरूरी है। जो सांसद बड़े व्यवसायी है, अन्यत्र से उनके आर्थिक स्रोत हैं, उन्हें कैसे बढ़-चढ़कर वेतन एवं सुविधा देने की बात की जा सकती है? हमारे राजनीतिक जीवन में भ्रष्टाचार बहुत है, इसलिए लोग यह भी मानते हैं कि सांसदों की भ्रष्टाचार की कमाई इतनी होती है कि उन्हें ज्यादा वेतन की जरूरत नहीं है। लेकिन इसके साथ यह भी सही है कि बहुत सारे जन-प्रतिनिधि भ्रष्ट नहीं हैं। भारत में जन-प्रतिनिधियों से जिन-जिन कार्यों की अपेक्षा की जाती है और उनसे जुडे़ जो संभावित खर्चे हैं वे अपर्याप्त वेतन एवं सरकार से मिलने वाले लाभों से संभव है। अगर सांसद अपना पैसा बढ़ाने के साथ पारदर्शिता और जवाबदेही का भी ख्याल रखें, तो लोगों को यह वेतन-वृद्धि भी जायज लग सकती है।
यह भी दलील दी जाती है कि भारत में प्रशासनिक सेवाओं से जुडे़ अधिकारियों का वेतन और भत्ते हमारे सांसदों से ज्यादा है। कुछ प्रमुख पदों पर बैठे इन अधिकारियों की सुविधाएं बेहिसाब है। लेकिन इन अधिकारियों के लिये यह भी नियम है कि अन्यत्र से किसी भी रूप में कोई आय का साधन नहीं रखेंगे। सांसदों के लिये भी यह नियम बनना जरूरी है कि वे सरकार से मिलने वाले वेतन एवं सुविधाओं के अलावा अन्यत्र व्यवसाय या दूसरे माध्यमों से कोई आर्थिक लाभ नहीं लेंगे। ऐसी स्थिति में ही सांसदों के वेतन, भत्ता एवं सुविधाओं को यथार्थपरक बनाना उचित होगा। हमारे सांसद ईमानदार बने रहें, इसके लिए जरूरी है कि उनका वेतन इतना तो हो कि वे अपने दैनंदिन खर्चों एवं परिवार के खर्चों की चिन्ता से मुक्त होकर देश सेवा को तत्पर रहे। सांसदों को बेहतर वेतन मिले, तो ही हम उनसे उम्मीद कर सकते है कि वे बेईमानी का दामन न पकड़े।
संासदों को मिलने वाले वेतन एवं भत्तों से जुड़ा यह सवाल चिन्तनीय हैं कि सांसदों के वेतन तय करने का अधिकार सांसदों को ही क्यों हो? जो लोकतांत्रिक व्यवस्था का सिद्धांत है, उसके मुताबिक गणतंत्र के किसी संस्थान के बारे में इस तरह के फैसलों में निष्पक्ष और जानकार लोगों की भागीदारी होनी चाहिए। सामान्य बात यह है कि किसी को भी जब अपनी तनख्वाह खुद तय करने का अधिकार नहीं है, तो सांसदों को क्यों हो? क्यों न ऐसी समिति में सांसदों के अलावा आर्थिक मसलों के विशेषज्ञ लोगों, प्रतिष्ठित न्यायविदों, कार्यपालिका के सेवानिवृत्त अधिकारियों और नागरिकों को भी जगह दी जाए? इससे यह पूरा कामकाज पारदर्शी हो जाएगा और यह भी आरोप नहीं लगेगा कि सांसद खुद ही वेतन की पैरवी कर रहे हैं।
राजनीतिक सुधार तब तक प्रभावी नहीं हांेगे, जब तक उपदेश देने वाले स्वयं व्यवहार में नहीं लायंेगे। सुधार के नाम पर जब तक लोग अपनी नेतागिरी, अपना वर्चस्व व जनाधार बनाने में लगे रहेंगे तब तक लक्ष्य की सफलता संदिग्ध है। भाषण और कलम घिसने से सुधार नहीं होता। सुधार भी दान की भांति घर से शुरू होता है, यह स्वीकृत सत्य है।
स्थितियां अत्यंत शोचनीय है। खतरे की स्थिति तक शोचनीय है कि आज तथाकथित नेतृत्व दोहरे चरित्र वाला, दोहरे मापदण्ड वाला होता जा रहा है। उसने कई मुखौटे एकत्रित कर रखे हैं और अपनी सुविधा के मुताबिक बदल लेता है। यह भयानक है।
राजनीतिक सुधार के नाम पर जब भी प्रस्ताव पारित किए जाते हैं तो स्याही सूखने भी नहीं पाती कि खरोंच दी जाती है। आवश्यकता है एक सशक्त मंच की। हम सबको एक बड़े संदर्भ में सोचने का प्रयास करना होगा। तभी लोकतंत्र को मजबूती मिलेगी।
जिस प्रकार युद्ध में सबसे पहले घायल होने वाला सैनिक नहीं, सत्य होता है, ठीक उसी प्रकार प्रदर्शन और नेतृत्व के दोहरे किरदार से जो सबसे ज्यादा घायल होता है, वह है राजनीति की व्यवस्था और राजनीतिक चरित्र। सांसदों के वेतन के निर्णय पर हमें तटस्थ समीक्षा करनी होगी और उसे यथार्थपरक बनाना होगा।

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