मृगनयनी

“मृगनयनी तू किधर से आई, काली मावस रातों में,
क्यों उलझाती मेरे मन को, प्यार की झूठी बातों में।।“

रंग-रूप आंदोलित करता
हलचल होती कुछ मन में,
उसके स्पर्शन का जादू
कम्पन भर जाता तन में,
हार दिख रही प्रतिपल मुझको, उनकी तीखी घातों में,
क्यों उलझाती मेरे मन को, प्यार की झूठी बातों में।।

साँझ सकारे पलकों पर
आती है पहरा देने को,
प्यारी-प्यारी बातें करती
मेरा मन हर लेने को,
छल जाता हर बार विवश, चंचल माया के हाथों में,
क्यों उलझाती मेरे मन को, प्यार की झूठी बातों में।।

घायल, अपने शब्द बाण से
करती हैं हर बार मुझे,
जाल फेंककर अपने वश में
कर लेती हर बार मुझे,
आदत से मज़बूर सदा मैं, बह जाता ज़ज्बातों में,
क्यों उलझाती मेरे मन को, प्यार की झूठी बातों में।।

 

(2)

सब तुम पर कुछ वार दिया

मेरे मन मंदिर में मैंने-
तुमको यूँ अधिकार दिया
तुमसे प्यार किया और
सब कुछ तुम पर वार दिया

जिस दिन तुम से बात न होती रात न मेरी होती
सबसे मिलता हूँ खुद से खुद की मुलाकात न होती
यादों के बीते लम्हों को गीत बनाकर ढाल दिया
मेरे मन मंदिर में मैंने-
तुमको यूँ अधिकार दिया
तुमसे प्यार किया और
सब कुछ तुम पर वार दिया

कोमल अधरों से निकले स्वर जब भी कान में बजते
मेरे नयनो में मिलन के स्वप्न सलोने सजते
तेरे सुन्दर से चेहरे पर प्रीत का चुम्बन वार दिया
मेरे मन मंदिर में मैंने-
तुमको यूँ अधिकार दिया
तुमसे प्यार किया और
सब कुछ तुम पर वार दिया

मैं-तुम मिलकर हम बन जाये पाट दे दिल की दूरी
मैं चाँद बनु – तू बने चांदनी हर ख़्वाहिश कर ले पूरी
तुमने जीवन में आकर मुझे हसीं घरद्वार दिया
मेरे मन मंदिर में मैंने-
तुमको यूँ अधिकार दिया
तुमसे प्यार किया और
सब कुछ तुम पर वार दिया

कलम चली कागज पर और एक गीत लिखा हैं ऐसे
फागुन में धरती बादल का मिलन हुआ हैं जैसे
तुमने प्रेम प्यार का मुझको एक सुन्दर संसार दिया
मेरे मन मंदिर में मैंने-
तुमको यूँ अधिकार दिया
तुमसे प्यार किया और
सब कुछ तुम पर वार दिया

कुलदीप प्रजापति

 

 

 

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