भारत में चर्च का मतांतरण अभियान और विदेशी शक्तियाँ

2008 में जन्माष्टमी के दिन स्वामी लक्ष्मणानन्द सरस्वती की ओडीसा के कंधमाल जिला में चर्च ने माओवादियों की सहायता से हत्या कर दी थी। स्वामी जी ओडीसा के जनजाति समाज को चर्च द्वारा मतांतरिता किये जाने के प्रयासों का विरोध कर रहे थे। भारत को, विषेशकर भारत के जनजाति सामज को ईसाई मजहब में मतांतरित करना चर्च के विश्वव्यापी अभियान का ही एक हिस्सा है। इस अभियान में उसे पूर्वोत्तर के अनेक राज्यों, खास कर नागालैंड, मेघालय व मिजोरम में आशातीत सफलता प्राप्त हुई है, वहाँ अधिकांश जनजातियाँ अपने पूर्वजों की विरासत और मान्यताओं को छोडकर चर्च की विरासत से जुड गई। चर्च यह अभियान ओडीसा, झारखंड, छत्ताीसगढ, गुजरात और बिहार के जनजाति क्षेत्रों में भी तेजी से चला रहा है। इसके विरोध में जो भी खडा हुआ चर्च नें उसे समाप्त करवा दिया। त्रिपुरा में स्वामी शांतिकाली जी महाराज की इसी प्रकार हत्या की गई थी। अब 2008 में स्वामी लक्ष्मणानन्द सरस्वती जी को मार दिया गया। स्वामी जी की हत्या से चर्च ने दो स्पष्ट संकेत दिये। पहला संदेश तो यह कि जो भी चर्च के मतांतरण अभियान के रास्ते में बाधा बनेगा उसका हाल भी वैसा हीं होगा जैसा स्वामी शांतिकाली जी महाराज और स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती का हुआ है। दूसरा संदेश यह कि भारत सरकार या फिर प्रदेश सरकार चर्च का कुछ बिगाड नहीं पायेगी, अप्रत्यक्ष रूप से उसकी मददगार ही होगी।

लेकिन यह ध्यान रखना चाहिए कि चर्च का मतांतरण अभियान आईसोलेटिड एक्ट नहीं है, बल्कि एक बहुत हीं सुनियोजित और सुव्यवस्थित विश्व अभियान है, जिसमें भारत से बाहर की भी अनेक शक्तियाँ प्रमुख भूमिका में है। चर्च ने अब इन विदेशी शक्तियों को भारत में आमंत्रित करके तीसरा संदेश देने का प्रयास किया है कि चर्च को मतांतरण से रोकने पर यह विदेशी देश हीं कुटनीतिक स्तर पर हस्तक्षेप कर सकते हैं। यूरोपिय संघ ने ओडीसा में अपना जांच दल भेज कर यही संदेश दिया है।

ओडीसा में कानून व्यवस्था की जांच करने के लिए यूरोपिय संघ ने 11 सदस्ययीय जांच दल पिछले दिनों भेजा था। यह जांच दल 2 फरवरी से लेकर 5 फरवरी तक चार दिनों के लिए ओडीसा में घूमता रहा। जांच दल का नेतृत्व यूरोपिय संघ के राजनैतिक मामलों के अध्यक्ष क्रिस्टोफर मैनेट और ऐने वाउगीयर कर रहे थे। उन दोनों के अतिरिक्त इस जांच दल में स्पेन के गैराडो फियो बा्रेस, हंगरी के नोर बर्ट रिवालवर, पोलैंड की क्रिस्टाना, आयरलैंड की लविना कोलिनस, नीदरलैंड के एलग्जैंडर जपुस्टरवीजक, इग्लैंड की रूथ वालेमी विलस, फिनलैंड की लैलसा बाल जैंटों, स्वीडन के एंडरज सयोवर्ग और इटली के डॉ गरेवरिले आनिस थे। नौ देशों के ये प्रतिनिधि दिल्ली स्थित इन देशों के दूतावासों में या तो प्रथम सचिव के पद पर काम कर रहे हैं या फिर काउंसलर के पद पर। जाहिर है इन सभी व्यक्तियों के पास भारत में रहने के लिए कूटनीतिक वीजा हीं होगा। कूटनीतिक वीजा के धारक भारत सरकार की लिखित अनुमति के बिना किसी स्थान पर नहीं जा सकते और उस देश की आंतरिक स्थिति अथवा आंतरिक मामलों में तो बिल्कुल हीं हस्तक्षेप नहीं कर सकते। इससे इतना तो स्पष्ट है कि यूरोपिय संघ के इस जांच दल को भारत सरकार ने ही ओडीसा जाने के अनुमति दी होगी। यह जांच दल 2 तारीख को भुवनेश्वर के हवाई अड्डे पर रात्रि लगभग 9 बजे पहँचा और अगले हीं दिन इस जांच दल ने कटक के पुलिस मुख्यालय में प्रदेश के महत्वपूर्ण अधिकारियों की बैठक बुलाई और उन अधिकारियों से ओडीसा की कानून व्यवस्था के बारे में लंबी बातचीत की। प्रदेश सरकार के पुलिस महानिदेशक सरकार की ओर से स्पष्टीकरण देने के लिए उपस्थित थे। 4 फरवरी को यह जांच दल सडक मार्ग से प्रदेश के सर्वाधिक संवेदनशील कंधमाल जिले में पहुँचा। वहां इस जांच दल ने नंदगिरि के पुनर्वास केंदा्र में जाकर चर्च के लोगों से बातचीत की। ध्यान रहे यह पुनर्वास केंदा्र वहीं है जहां कुछ महीने पहले कुछ ईसाई उग्रवादी बम बनाते हुए मारे गये थे। इसके अतिरिक्त यह जांच दल हाटपाडा, नीलूगिया, पीरीगढ के नुआगाँव, बालीगुडा रायिकिया इत्यादि स्थानों पर गये। दरअसल कंधमाल जिला में 2008 में जन्माष्टमी के दिन चर्च और माओवादियों की मिलीभगत से स्वामी लक्ष्मणानन्द सरस्वती की हत्या कर दी गई थी, जिसके कारण इस जिला में जनजाति समाज और मतांतरित ईसाईयों के बीच में दंगा फसाद हुआ था, जिसमें दोनों पक्षों का नुक्सान हुआ था। सरकार अभी तक लक्ष्मणानंद सरस्वती के हत्यारों को पकड नही पाई है और न हीं इसमें अब उसकी ज्यादा रुचि दिखाई दे रही है। कंधमाल जिला में पिछले अनेक वर्षों से विदेशी मिशनरियाँ मतांतरण का काम कर रही है और इस काम के लिए उन्हें विदेशों से अपार धन प्राप्त होता है। मतांतरण के कारण कंधमाल जिला के जनजाति समाज में तनाव का वातावरण रहता है। अनुसूचित जाति के पान लोगों में से अधिकांश ईसाई मत में जा चुके हैं। मतांतरण के कारण अनुसूचित जाति को मिलने वाली सुविधाएं उनको मिलना बंद हो जाती है। इस वैधानिक स्थिति के कारण चर्च का मतांतरण आंदोलन वह गति नहीं पकड पाता जिसकी वैटिकन या यूरोपियन देशों को आशा रहती है। इस व्यवधान को समाप्त करने के लिए चर्च ने सरकारी मिशनरीयों की सहायता से एक नया रास्ता निकाला है कि अनुसूचित जाति के पान लोगों को अनुसूचित जनजाति का स्वीकार कर लिया जाये क्योंकि अनुसूचित जनजाति के कंध और अनुसूचित जाति के पान एक ही भाषा कुई का प्रयोग करते हैं। चर्च ने फुलवाडी कुई जन कल्याण संघ नाम की एक संस्था खडी की हुई है। इस संस्था का यह कहना है कि कंध और पान दोनों ही कुई जनजाति से संबंध रखते हैं। उनके अनुसार जनजाति का नाम कुई है न कि कंध। अब यदि पान को जनजाति का दर्जा मिल जाता है तो उसे अपना मतांतरण आंदोलन बढाने में कोई रूकावट नहीं रहेगी। क्योंकि संविधान के अनुसार जनजाति के लोग मतांतरण होने के बाद भी आरक्षण आदि सुविधाओं का लाभ उठा सकते हैं। चर्च ने फुलवाडी कुई जन कल्याण संघ के नाम से एक पत्र ओडीसा सरकार के अनुसूचित जाति और जनजाति विभाग को लिखा जिसमें इस बात की मांग की गई थी कि पान को भी कुई जनजाति में शामिल किया जाये। जाहिर था यह पत्र चर्च और उपरोक्त विभाग के कुछ लोगों की मिलीभगत से ही लिखा गया था। परन्तु दुर्भाग्य से उपरोक्त विभाग को किसी जाति को जनजाति में शामिल करने का अधिकार नहीं है। लेकिन उपरोक्त विभाग के उपसचिव ने 21 फरवरी 2006 को चुपचाप एक पत्र प्रदेश के राजस्व विभाग को लिख दिया जिसमें कुई को जनजाति सूची में शामिल करने की सिफारिश की गई। राजस्व विभाग ने इस पत्र के उत्तार में अनुसूचित जाति और जनजाति विभाग को सुचित किया कि कुई एक भाषा का नाम है, यह किसी जाति का नाम नहीं है इसलिए जो अस्तित्व में है हीं नहीं उसे जनजाति में शामिल नहीं किया जा सकता। चर्च को लगा कि उसका यह षडयंत्र फेल होता जा रहा है। इसलिए उसने एक बार फिर फुलवाडी कुई जन कल्याण संघ के माध्यम से उच्च न्यायालय में याचिका दायर कर दी। मांग वही थी कि कुई अर्थात पान जाति के लोगों को जनजाति स्वीकार किया जाये। इस याचिका का आधार प्रदेश सरकार के अनुसूचित जाति और जनजाति विभाग के 21 फरवरी 2006 वाले उसी पत्र को बनाया गया जिसमें विभाग ने राजस्व विभाग से कुई को जनजाति में शामिल करने की सिफारिश की थी। लेकिन चर्च के षडयंत्र का पर्दाफाश तब हुआ जब इस बात का पता चला कि याचिका में याचिकाकर्ता ने कहीं भी राजस्व विभाग के उस उत्तार का उल्लेख नहीं किया जिसमें विभाग ने स्पष्ट किया था कि कुई भाषा का नाम है, जाति का नहीं । चर्च के इन षडयंत्रों से जनजातियों के लोग चौकन्ने हो गये। इस वक्त पर स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती ने उनकी बहुत सहायता की। रिकॉर्ड के लिए यह उल्लेख करना उचित होगा कि प्रदेश में मतांतरण रोकने के लिए बने कानून के बावजूद 1961 में कंधमाल जिले में मतांतरित ईसाइयों की संख्या 19128 थी, लेकिन 2001 तक यह संख्या बढकर 171950 हो गई। अब चर्च को लगता था कि स्वामी लक्ष्मणानन्द सरस्वती उनकी मतांतरण करने की पूरी योजना में सबसे बडी बाधा हैं इसलिए 2008 को उनकी हत्या कर दी गई। अब नये सिरे से मतांतरण की इस पूरी योजना का लेखा-जोखा करने के लिए यूरोपिय संघ ने अपना 11 सदस्ययीय जांच दल उडीसा में भेजा।

इस जांच दल के उद्देश्यों और गतिविधियों पर चर्चा करने से पहले ओडीसा के लोगों को बधाई देना जरूरी है क्योंकि ओडीसा के लोगों ने विभिन्न स्थानों पर इस जांच दल का विरोध किया, इसे ओडीसा का अपमान बताया और इसके खिलाफ प्रदर्शन किये। 2 तारीख को जांच दल के हवाई अड्डे पर उतरते ही प्रदर्शनों का यह सिलसिला शुरु हो गया था। 5 फरवरी को जब यह जांच दल कंघमाल के जिला मुख्यालय में न्यायालय के न्यायधीशों को मिलने का प्रयास कर रहा था, तब वकीलों के भारी विरोध के कारण यह संभव नहीं हो पाया। जांच दल को जिलाधीश कृष्ण कुमार के साथ कानून व्यवस्था की समीक्षा बैठक करके ही संतोष करना पडा। यह जांच दल केवल चर्च के अधिकारियों, मतांतरित ईसाइयों से ही मिलता रहा। यहां तक कि मीडिया के गिने चुने और सावधानी से तय किये गये कुछ लोगों के साथ ही इस जांच दल ने एक पाश होटल में मीटिंग की।उडिया भाषा के पत्रकारों को पास ही नहीं भटकने दिया और उनके साथ दर्ुव्यवहार भी किया गया। चर्च के अधिकारियों के साथ इस जांच दल ने एक गुप्त बैठक भी की जिसमें क्या बातचीत हुई इसका ब्यौरा किसी को नहीं दिया गया। राज्य सरकार ने जांच दल के लिए कडी सुरक्षा व्यवस्था की हुई थी। प्रदर्शनकारियों के उग्रविरोध को देखते हुए होटल में जांच दल को पिछले दरवाजे से ही ले जाना पडा। निष्पक्ष जिला अधिकारियों का मानना था कि इस जांच दल के कंधमाल में जाने से जनजाति के लोगों और मतांतरित ईसाइयों के बीच में तनाव बढने की आशंका है, लेकिन राज्य सरकार ने उनके आकलन पर कोई ध्यान नहीं दिया।

इसी बीच जब यह जांच दल ओडीसा के विभिन्न क्षेत्रों में घूम कर कानून व्यवस्था की जांच कर रहा था तो भुवनेश्वर में आर्कबिशप राफेल चिनाथ ने एक प्रेस वार्ता बुलाई, जिसमें अखिल भारतीय क्रिश्चियन कौंसिल के अध्यक्ष जॉन दयाल भी उपस्थित थे। आर्कबिशप ने इस पत्रकार वार्ता में ओडीसा सरकार और भारत सरकार पर गंभीर आरोप लगाये। आर्कबिशप के अनुसार सरकार ने चर्चों का पुनर्निर्माण करने के लिए अभी तक धन मुहैया नहीं करवाया और न हीं जिन ईसाई परिवारों के मकानों को दंगें के दौरान नुकसान हुआ था उनको उसका मुआवजा दिया गया।आर्कबिशप ने कहा कि सरकार ईसाइयों के साथ भेदभाव कर रही है। उसने न्यायालय पर भी आरोप लगाते हुए कहा कि न्यायालय ज्यादातर तथाकथित अपराधियों को छोड रहा है। प्रेस वार्ता से पहले इस आर्कबिशप की यूरोपिय जांच दल से लंबी बातचीत हुई थी। जांच दल ने अपने दौरे के बाद स्पष्ट कहा कि यदि यहां मतांतरित ईसाईयों के साथ कुछ होता है तो यूरोपिय देशों पर उसका असर पडता है। पत्रकारों ने यह पूछा कि पिछले डेढ साल से आप चुप थे और यूरोपिय संध के जांच दल के आने पर क्यों बोल रहे हैं, क्या यह भी कोई बडी योजना है? तो आर्कविशप कन्नी काट गये।

इस जांच दल की गतिविधियों के बारे में विस्तृत जानकारी होने के बाद अब इसके उद्देश्यों और भविष्य की रणनीति पर विचार करना आवश्यक है। सबसे पहला प्रश्न तो यह है कि यूरोप के इस जांच दल को ओडिसा में कानून व्यवस्था की जांच पडताल करने के लिए किसने निमंत्रित किया था? निमंत्रण भेजने वाली दो ही संस्थाए हो सकती हैं या तो भारत सरकार या फिर ईसाई संगठन। भारत सरकार और ओडीसा सरकार दोनों ही फिलहाल इस मुद्दे पर चुप है। कटक और भुवनेश्वर के आर्कबिशप राफेल चिन्नाथ से यही प्रश्न ओडीसा के उत्तोजित पत्रकारों ने किया था। प्रश्न था कि आपने बाहर के देशों के जांच दल को ओडीसा में क्यों आमंत्रित किया है? भाव कुछ इस प्रकार का था कि यह जानबूझ कर ओडीसा को अपमानित करने की साजिश है। तब आर्कविशप ने इस जांच दल को निमंत्रित किये जाने से अपनी भूमिका को लेकर इंकार किया। लेकिन उसने यह जरूर कहा कि जांच दल ने उसे पत्र लिखकर यह जरूर सुचित किया था कि वह उससे मिलना चाहता है और ओडीसा में ईसाइयों की स्थिति के बारे में जानकारी लेना चाहता है। यदि इस जांच दल को भारत सरकार ने निमंत्रित नहीं किया तो जाहिर है शक की सुई आर्कबिशप के इर्द गिर्द हीं घूमेगी। आगे बढने से पहले आर्कबिशप के पद के बारे में जान लेना जरूरी है। जिस प्रकार भारत सरकार देश के विभिन्न जिलों में जिलाधीश नियुक्त करती है उसी प्रकार वेटिकन देश का राष्ट्रपति भारत में विभिन्न क्षेत्रों के लिए आर्कबिशपों की नियुक्ति करता है। आर्कबिशप के नीचे बिशप का पद होता है और वह एक सीमित क्षेत्र अथवा डायकोजी का मुखिया होता है। बिशपों की नियुक्ति भी भारतवर्ष में वेटिकन के राष्ट्रपति ही करते हैं। आर्कबिशप के उपर कार्डिनल का पद होता है और उसकी नियुक्ति भी वेटिकन के राष्ट्रपति ही करते हैं। कार्डिनल का क्षेत्र कई प्रांतों के बराबर होता है। भारत में इस समय वेटिकन के राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त पांच कार्डिनल हैं। वेटिकन के राष्ट्रपति की मृत्यु हो जाने के बाद नये राष्ट्रपति का चुनाव भी यह कार्डिनल करते हैं। 2005 में जब वेटिकन के राष्ट्रपति का चुनाव हुआ था तो इन पांच कार्डिनलों में से तीन ने मतदान किया था। दो इसलिए मतदान नहीं कर सके क्योंकि उनकी उमर 80 साल से ज्यादा हो चुकी थी और वेटिकन के संविधान के मुताबिक 80 साल से ज्यादा उमर के कार्डिनल का नाम उस देश की मतदाता सूची में दर्ज नहीं हो सकता। कहने का अभिप्राय यह है कि वेटिकन के राष्ट्रपति भारत में एक समानांतर सरकार चला रहे हैं और ये आर्कबिशप इत्यादि उस सरकार के अधिकारी हैं। इसे सुविधा के लिए भारत में वेटिकन की प्रतिनिधि सरकार अथवा ईसाई सरकार भी कहा जा सकता है। भारत में इस ईसाई सरकार की प्रजा या फिर इसके प्रति आस्था रखने वाले लोग मतांतरित ईसाई हैं। इस सरकार के अपने नियम और कायदे कानून हैं जो अपनी प्रजा पर उसे लागू करवाने का एक तंत्र भी। कंधमाल में जनजाति समाज और मतांतरित ईसाइयों में दंगा फसाद हुआ तो जाहिर है दोनो पक्षों का नुकसान हुआ होगा। इस ईसाई सरकार का यह भी कहना है कि ओडीसा सरकार ने या फिर भारत सरकार ने ही इस मौके पर ईसाइयों की पूरी सुरक्षा नहीं की। इसलिए आर्कबिशप ने यूरोपिय संघ की सरकार को जांच पडताल के लिए बुला लिया है। कंधमाल के उन गांवों में जहां यह जांच दल गया था वहां के मतांतरित ईसाई बडे उत्साह भरकर जनजाति समाज के लोगों को ललकार रहे हैं कि हमारे पीछे तो यूरोप की सरकारें है। विशपों के एक इशारे पर वे सात समुंदा्र पार से हमारे साथ आ खडे हुए हैं। फिर वे पूछते हैं -आपके साथ कौन है? ओडीसा का जनजाति समाज भला इसका क्या उत्तार दे? उसे इस बात का विश्वास ही नहीं है कि ओडीसा सरकार या भारत सरकार उसके साथ है। जो उनके साथ थे, वे लक्ष्मणानन्द सरस्वती, जिसे चर्च ने मरवा दिया। जब ओडीसा सरकार उसके हत्यारों को हीं नहीं पकड रही तो वह जनजाति समाज का क्या साथ देगी ?

यूरोपिय संघ का यह जांच दल मतांतरण के लिए 150 लाख यूरोपियाें की सहायता की बात करके गया है। उपरी तौर पर यह सहायता विकास और कल्याण के लिए कही जायेगी लेकिन सभी जानते हैं कि इसका मकसद भारत में मतांतरण को तेज करना ही होता है। आर्कबिशप की प्रेस कांफै्रंस में जब किसी ने ऐसा आरोप लगाया तो आर्कविशप भडक उठे। जॉन दयाल तो उनके साथ थे हीं। उन्होंने कहा यूरोपिय संघ पंथ निरपेक्ष देशों का संघ है। वह ईसाई देशों का संघ नहीं है। इसलिए उस पर यह आरोप लगाना की वह ओडीसा में मतांतरण के काम में तेजी लाने के लिए हीं आया है, गलत होगा। आर्कबिशप अच्छी तरह जानते हैं कि तुर्की को यूरोपिय संघ में इसीलिए शामिल नहीं किया जा रहा है कि वह मुस्लिम देश है। तुर्की के राष्टन््पति ने तो संघ के इस रवैये को देख कर कहा भी था कि यूरोपिय संघ इस प्रकार व्यवहार कर रहा है मानो वह ईसाई देशों का हीं संघ हो। ओडीसा में संघ के जांच दल ने इस बात को और भी पुखता कर दिया है। ओडीसा के एक ईसाई पी.के. थॉमस ने ही ”न्यू इंडियन एक्सप्रेस” के संपादक को लिखे एक पत्र में कहा है कि यदि यूरोपिय संघ को मानवाधिकारों के हनन की हीं इतनी चिंता है तो उन्हें तिब्बत या अलजीरिया जाना चाहिए था। ओडीसा में आकर यह जांच दल यह स्थापित करने का प्रयास कर रहा है कि भारत के ईसाइयों की निष्ठा यूरोप के देशों के साथ है क्योंकि वहां भी ईसाई बसते हैं। दरअसल यूरोपिय संघ मजहब के आधार पर भारत के ईसाईयों की देश से पार निष्ठा स्थापित करने का प्रयास कर रहा है।

यहीं से भारत सरकार की भूमिका प्रारंभ होती है। पिछले दिनों मलेशिया में हिंदुओ पर वहां की सरकार ने अनेक प्रकार के अत्याचार किये उन्हें जेलों में बंद कर दिया गया और मन्दिर तोड दिये गये। क्या भारत सरकार भारत से किसी जांच दल को वहां भेज सकती थी? या फिर यदि भेजती है तो मलेशिया सरकार उसे अपने देश में इस प्रकार से जांच करने की अनुमति दे देगी जिस प्रकार की अनुमति भारत सरकार ने इस जांच दल को ओडीसा में दी है? एक और उदाहरण दिया जा सकता है। कुछ साल पहले रूस ने अपने यहां के हिन्दुओं द्वारा बनाये गये एक मन्दिर को तोड दिया था और इस अत्याचार के खिलाफ आंदोलन कर रहे हिन्दुओं को बंदी बना लिया था। वही प्रश्न फिर खडा होता है कि क्या रूस सरकार भारत के किसी जांच दल को अपने देश में उस प्रकार की जांच और व्यवहार करने की अनुमति दे देती, जिस प्रकार का व्यवहार यूरोपिय संध के इस जांच दल ने ओडीसा में किया है।

क्या यह भारत की प्रभुसत्ता में विदेशी दखलांदाजी नहीं है ? संविधान भारत सरकार को इस देश की प्रभुसत्ता की रक्षा करने के लिए कहता है और अब भारत सरकार इसी प्रभुसत्ता में यूरोपिय संघ की सहायता से दरारें पैदा कर रही है। यह सब कुछ इसलिए किया जा रहा है ताकि यह सिद्ध किया जा सके कि भारत के ईसाइयों की जिम्मेदारी या तो यूरोपिय संघ की है या फिर वेटिकन की। आर्कबिशप शायद भारत सरकार को या फिर ओडीसा की सरकार को डराना चाहते हैं कि हम आपके भरोसे पर मतांतरण का यह आंदोलन नहीं चला रहे हैं, बल्कि हमारे पीछे यूरोपिय संघ की ताकत है। जिन लोगों को उनकी इस बात पर भरोसा नहीं था उनके लिए उन्होंने प्रमाण हेतु यूरोपिय संघ का जांच दल ओडीसा के आंगन में लाकर खडा कर दिया है।

प्रश्न केवल यह है कि भारत सरकार सचमुच डरी हुई है या फिर वह अंदरखाते मतांतरण के मामले में यूरोपिय संघ और वेटिकन के साथ हीं मिली हुई है। प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह इसका जवाब दें या न दें लेकिन सोनिया गाँधी को तो इसका जवाब देना हीं होगा। यह नैतिकता का भी तकाजा है और भारत के हितों का भी।

– डॉ. कुलदीप चन्द अग्निहोत्री

1 COMMENT

  1. (अ) Mathematical equation. (1) India – Hinduism= ? (Try to answer).(आ) In my opinion, India- Hinduism= start of disintegration of a mighty broad minded, nation. Gradually it will become similar to Pakistan. Pakistan is really –> (India-Hinduism). What else? India is the last and only refuge for Hindus. Her philosophy transcends all narrow religions. The end of India will be (do not wish) gradual not sudden. So it requires deeper understanding. The truth is, we have been contracting for last 1000 years. That loss has not taught any lesson to us.हम भारतके मुक्त चिंतनरूप पवित्र गंगा प्रवाहमे इस कठोर सत्यको या तो स्वीकार नहीं करते, या उसका विचार हमें इतना व्यथित करता है; कि, उस व्यथासे बचने के लिए, फिर हम “सर्व धर्म समभावका” घोष कर, मस्त होकर, अपना सर रेतमे गाडकर समस्याको अनदेखी कर देते हैं।मै उच्च स्वरसे कहना चाहता हूं,बंधुओं, उन्मुक्त विचार केवल, भारतमेहि संभव है, जब तक आप अन्य रिलीजनोंके(धर्म नहीं) प्रत्यक्ष गहरे संपर्कमें नहीं आते, तब तक आप अपनेहि विचारोंके कारण आत्म संमोहित (self hypnotized) होते हैं। हम कहते हैं –>सर्वे भवन्तु सुखीनः तो वे कहते हैं, केवल इसाइ हि स्वर्ग जाएगा, (हिंदू ) तो नर्कमें जाएगा। उपरसे पैसा, और पापसे मुक्ति भी प्राप्त होगी।एक प्रयोग किजीए, कुछ ५-७ बार, चुपचाप किसी चर्चमें जाकर प्रवचन सुनिए। आपके प्रति कैसी घृणा फैलायी जाती है, इसकी जानकारी होगी। इस टिप्पण्णीकारने पूरे २ दिनतक ५० चर्च के व्याख्याताओंकी (और कुछ, बौद्ध, इस्लामी, यहुदि, इत्यादि ) Conference एक प्रतिनिधि के रूपमे भाग लिया था।(कुछ ऐसे भी अपवाद निश्चित हैं, जो मेरे विचारमे विवेकानंदजी के १८९३ के प्रवासके बाद हिंदुत्वसे प्रभावित हैं). पर अपार धन शक्ति उनके पास नहीं है। प्रवक्तासे अनुरोध कि इस टिप्पणीको छापे। धन्यवाद।

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