मुझे भी गालियाँ पड़ती हैं, पर मै आपकी तरह सार्वजनिक रुदन नहीं करता, रवीश कुमार!

ravish-kumar
पीयूष द्विवेदी
रवीश कुमार। पत्रकारिता या स्वतंत्र रूप से लिखने-पढ़ने वाली लाइन में सक्रिय लोगों को इनकी पहचान बताने की जरूरत नहीं, पर जो इस लाइन में नहीं है, वे इतनी पहचान समझ लें कि रवीश कुमार मतलब बड़े पत्रकार कहलाते हैं। हैं भी। कुछ पांच-छः सालों से मै भी इन्हें जानता हूँ। २००९ में जब फेसबुक पर आया तो ये मेरी मित्र सूची में शामिल हुए थे, लेकिन जानता नहीं था। कुछ दिन बाद रवीश की रिपोर्ट देखा और एक मैगज़ीन में इनपर लेख पढ़ा तो परिचित हुआ। तब पत्रकारिता की कोई ख़ास समझ नहीं थी, बढ़िया एंकर होने का मतलब एक अच्छा एक्टर होना भी होता है, ये भी नहीं मालूम था, लेकिन इतना याद है कि रवीश की रिपोर्ट अच्छी लगी थी। जीबी रोड पर कोई रिपोर्ट आ रही थी, वही एपिसोड देखा था। दूबारा भी कुछेक बार देखा, पर टॉपिक याद नहीं है।
समय गुजरा। हम लिखते-पढ़ते-बढ़ते रहे। रवीश की पत्रकारिता भी चलती रही। सब अपनी धुन में चल रहा था। याद है, अन्ना आन्दोलन का दौर था, कांग्रेसी भ्रष्टाचार से त्रस्त देश सड़कों पर था। हम भी समर्थन में थे। ट्विटर पर इसके समर्थन में ट्विट किए जा रहे थे। रवीश भी ट्विट कर रहे थे, जिनसे पता चलता था कि वे इस आन्दोलन से बहुत खुश नहीं हैं। उन्हें इसको लेकर अनेक संदेह थे। शायद वर्तमान केंद्र सरकार से सहानुभूति भी थी। यह देख हमनें निश्चित ही थोड़े व्यंग्यात्मक (असभ्य नहीं) लहजे में कुछ सवाल पूछे थे उनसे, जवाब तो नहीं मिला, पर भाषा और ट्विटर पर भी ब्लॉक का विकल्प होता है, का ज्ञान मिल गया। टीवी पर लोकतंत्र और चर्चा-बहस की वकालत करने वाले रवीश का ये एक नया उसदिन चेहरा मेरे सामने आया था। आगे फेसबुक पर भी एक चर्चा के दौरान कुछ सवाल उठाया और ब्लॉक हुआ। खैर, ये ब्लॉक होने का मुझे कोई मलाल नहीं और न ही रवीश की मित्रसूची में होने का कोई लोभ ही है, बल्कि ऐसे संवाद से भागने वाले लोगों से दूरी ही ठीक समझता हूँ। किन्तु, इतना जानना चाहता हूँ कि क्या रवीश सिर्फ सवाल पूछने का ही अधिकार रखे हैं, उनके हिस्से के जवाब कौन देगा ?
अपने हिस्से के सवालों से भागते-भागते रवीश पिछले दो सालों से सोशल मीडिया पर रुदन करने लगे हैं। रुदन ये कि दल-विशेष के समर्थकों, इसका पता जाने वे कैसे लगा लिए हैं, द्वारा उन्हें गालियाँ-धमकियां दी जाती हैं। तंग आकर फेसबुक बंद कर दिया हूँ। ट्विटर भी बंद कर दिया हूँ। लिखना भी छोड़ दूंगा। सब मीडिया बिक गई है। मै अकेला पड़ गया हूँ…वगैरह-वगरेह। इस तरह के तमाम दुखड़े रोने का एक अजीब शौक रवीश को पिछले लगभग दो सालो से लगा है। इसमें कोई शक नहीं कि एक लेखक/पत्रकार को अपनी लेखनी/रिपोर्टिंग आदि पर प्रतिक्रियाएं मिलती हैं। ये सोशल मीडिया का समय है तो प्रतिक्रियाएं देना सरल हो गया है, इस नाते और अधिक प्रतिक्रियाएं दी जाने लगी हैं। उस पर रवीश ‘बड़े’ पत्रकार हैं भई, तो उन्हें और ज्यादा मिलती होंगी। इन प्रतिक्रियाओं में अच्छा भी होता है, बुरा भी होता है और निस्संदेह असभ्य-अभद्र भी होता है। रवीश कुमार इन्हीं असभ्य-अभद्र प्रतिक्रियाओं के मिलने पर रोते हैं। इनसे डरने का अभिनय भी करते हैं, वैसे ही जैसे अपने प्राइम टाइम में बात-बेबात करते रहते हैं। लेकिन, इन प्रतिक्रियाओं जिनने उनके हिसाब से उनका जीना मुश्किल कर दिया है, के खिलाफ कभी साइबर सेल में एक शिकायत करने की जहमत उन्होंने आज तक नहीं उठाई है। किए होते तो उसपर भी जरूर ही लिखे होते। ये उन्हें पता नहीं होगा, ऐसा तो नहीं है, लेकिन बात ये है कि उन्हें शिकायत करके समस्या से मुक्ति नहीं पानी है, उन्हें तो इस पर रोना है और इसे लम्बे समय तक मुद्दा बनाए रखना है। बिलकुल राजनीतिक मुद्दों की तरह। उन्हें रोना है, रोते रहना है, लगभग दो-ढाई साल से रो रहे हैं, जैसे विचारधारा विशेष के कुछ लोगों के ग़मों की तरह इनके ग़मों की भी शुरुआत तभीसे हुई हो। खैर।
मै भी एक लेखक हूँ। बेहद मामूली। सोशल मीडिया से ये चाव लगा और अब पत्र-पत्रिकाओं-वेबसाइट्स तक पहुंचा है। रवीश के सामने कुछ भी नहीं हूँ, फिर भी कोई लेख किसी वेब पोर्टल या अखबार आदि में लिखता हूँ तो अनगिनत प्रतिक्रियाएं मिलती हैं। उनमें सहमति भी होती है और भरपूर गालियाँ भी पड़ती हैं। तो क्या करूँ ? रवीश के क़दमों पर चलूँ तो रोऊँ, बिलखूं, उन लोगों को किसी दल और विचारधारा-विशेष का बताऊँ या सब छोड़-छाड़कर भाग जाऊं। मै ऐसा कुछ नहीं करने वाला क्योंकि मै रवीश कुमार नहीं हूँ। मुझे ऐसा कुछ करने की जरूरत भी नहीं लगती। मुझे उन प्रतिक्रियाओं से कोई फर्क नहीं पड़ता। वे आती हैं, पढ़ता हूँ और जो सभ्य भाषा में हों, उनका जवाब देता हूँ। बाकी को अनदेखा कर आगे बढ़ जाता हूँ। मेरी ही तरह और भी तमाम लेखक मित्रों को ये सब सुनना पड़ता होगा, लेकिन उन्हें भी कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन ऐसी ही प्रतिक्रियाओं से रवीश का जीना मुश्किल हो गया है, तो इसका क्या मतलब समझा जाय ? या तो ये कि उनकी निर्भीकता की सब बातें हवाई हैं अथवा ये कि वे डरने का बहुत अच्छा अभिनय कर रहे हैं। बिलकुल वैसा ही ‘अच्छा अभिनय’ जैसा रवीश की रिपोर्ट में करते थे। सच क्या है, रवीश ही जानें। हाँ, सोए हुए को जगाया जा सकता है, सोने का अभिनय करने वाले को नहीं। पत्रकारिता के छात्रों से भी कहना चाहूँगा कि चयन का अधिकार आपको है, लेकिन अपना पत्रकारीय आदर्श चुनने से पहले महान निर्भीक पत्रकारों की विरासत और अपने वर्तमान चयन की तुलना कर लीजिएगा।

1 COMMENT

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here