-अशोक गौतम-
आजकल देश में प्रधानमंत्री पद की दावेदारी के लिए मारो मारी चली है। जिसे घर तक में कोई नहीं पूछता वह भी प्रधानमंत्री के पद के लिए दावेदारी सीना ठोंक कर ठोंक रहा है, भले बंदे के पास सीना हो या न! मित्रों! दावेदारी के इस दौर में मैं भी देश की सेवा का इच्छुक हूं। जिसने एकबार कुर्सी पर फुर्ती से बैठ लोकप्रिय नेता हो इस देश की सेवा कर ली उसकी आने वाली कई पुश्तों को तिनका तक इधर से उधर करने की कतई जरूरत नहीं। वे पेट में अफारा आया होने के बाद भी अपने पुरखों द्वारा की गई देश सेवा का संचित फल मजे से खाते रहते हैं। अपने पुरखों की याद में मधुर गीत सोए-सोए भी गुनगुनाते रहते हैं।
और नहीं तो शोशा ही सही! शोशा छोड़ने में क्या जाता है? वैसे भी अपने देश की राजनीति में राजनीति कम, शोशेबाजी ही अधिक है। जिसे देखो वही हर दूसरे- चौथे दिन कोई न कोई शोशा छोड़ देश-भक्त हुआ जा रहा है। और जनता है कि उसमें कुछ उठाने का दम अब हो या न पर वह उनके छोड़े शोशों को हाथों-हाथ उठा रही है।
वे कम्बख्त कहते-कहते थक गए कि देश को इस वक्त सबसे बड़ा खतरा अगर किसी से है तो उनसे, क्योंकि वे सांप्रदायिक हैं। वे जीत गए तो देश का बंटाधार हो जाएगा। बचा हुआ देश सांप्रदायिकता की आग में जल उठेगा। अरे, देश में एका है भी कहां ? अब देश में बचा ही क्या है ? सबकी अपनी अपनी डफली, अपना अपना राग! सब अपनी अपनी जेब में लिए घूम रहे हैं आग! कि जहां जैसे दाव लगे, दे मारी दियासलाई! बाद में कह देंगे ये आग हमारे पड़ोसी ने लगाई!
तो वे मौकापरस्त सोए-सोए भी कह रहे हैं कि देश को सबसे बड़ा खतरा है तो केवल उनसे, क्योंकि वे धर्म निरपेक्षश हैं। अरे, जिस आदमी का कोई धर्म ही नहीं, वह बंदा है भी कि नहीं, सोचने वाली बात है। अपने देश में तो चोरों का भी धर्म होता है साहब! और यहां उनका कोई धर्म ही नहीं? और चले हैं देश की अखंडता को बचाए रखने की शपथ लेने। अरे ,पहले अपनी पार्टी को तो अखंड रख लो, जहां हर दूसरा पीएमशिप के लिए लारें टपका रहा है ! देश की बाद में सोचना!
अब जरा सोचिए, मैं ही क्यों ? असल में हे मेरे देशवासियों! भूख से शह मात लेता अब मैं वह बंदा हूं जो हफ्ते में चार दिन उपवास रखता है। अगर गलती से हफ्ते में तीन ही दिन उपवास रखूं तो अगले दिन पेट वो खराब हो जाता है कि वो खराब हो जाता है कि …
तो मित्रो! मेरी सबसे बड़ी विषेशता यह है कि मैं न तो सांप्रदायिक हूं और न धर्म निरपेक्ष! कहूं तो दोनों का मिला जुला संस्करण हूं !
अगर मैं जरूरत से ज्यादा जरा सा भी कुछ खा लूं तो मैंने कुछ खाया है, इस बात का पता घर में तो एकदम लग ही जाता है, पड़ोसियों तक को भी लग जाता है। देश की माटी की कसम खाकर कहता हूं कि मेरी भूख संपूर्ण स्वदेषी है। जीने के लिए तो छोड़िए, अब तो कुछ भी खाने को मन ही नहीं करता! वह इसलिए नहीं कि अब देश में कुछ खाने को बचा ही नहीं है। खाने के माहिर तो कहीं भी खाने के बहाने ढूंढ़ ही लेते हैं साहब! असल में जरूरत से अधिक खाना ही इस देश की सभी बीमारियों की जड़ है। अगर बंदा जरूरत के हिसाब से खाए तो यहां राम राज आ जाए! इसलिए इस देश को किसी और चीज की जरूरत हो या न पर मेरे जैसे नेता की सख्त जरूरत है। अगर अपने देश का नेता जरूरत के जितना ही खाए तो न जाने कितने पेटों पर से भूख का साम्राज्य उखड़ जाए! मैं उन देश भक्तों की तरह नहीं जिनके पेट समुद्र की तरह हैं। सालों साल हो गए खाते खाते पर पेट इंच भर नहीं बढ़े। और पाचन शक्ति वो कि आगे जो कुछ भी आए एकदम पचा जाएं।
मेरा कोई स्विस बैक में तो छोड़िए, अपने मुहल्ले के बैंक तक में कोई खाता नहीं! क्या करना खाता खुलवाकर ? आटे दाल से कुछ बचे तो बैंक खाते मे जाएं!
मेरे सारे रिश्तेदार अपने में मस्त हैं। उनके लिए तो चार कोस बस्ती चार कोस उजाड़! उनको कुछ देना गधे को लून देने के बराबर है। उन्हें हाट में ताश खेलने से फुर्सत मिले तो कुछ करें!
इसलिए, मुझको लाओ ,देश बचाओ!