सर्वोच्च तालिबान सरगना मुल्ला मुहम्मद अख्तर मंसूर को अमेरिका ने मार गिराया। यह बड़ी खबर है। अमेरिका ने ड्रोन हमला किया। मंसूर बलूचिस्तान के गांव में मारा गया। पाकिस्तान की जमीन पर। पाकिस्तान ने विरोध किया याने विरोध का नाटक किया। इस नाटक का फायदा यह है कि पाकिस्तानी फौज पाकिस्तानी जनता को यह बता सकेगी कि तालिबान के प्रति फौज की कितनी गुप्त सहानुभूति है और दूसरा यह कि वह पाकिस्तान की संप्रभुता को कितना महत्व देती है।
यही नाटक पाकिस्तान की फौज और सरकार ने उस वक्त भी किया था, जब उसामा बिन लादेन को अमेरिका ने मार गिराया था। पाकिस्तान की क्या हैसियत है कि वह अमेरिका पर लगाम लगा सके? उसने अपनी संप्रभुता तो कभी से अमेरिका के हाथों गिरवी रख रखी है। खैर!
असली मुद्दा यह है कि अफगानिस्तान में अमेरिका को नांको चने चबवाने वाले तालिबान का सबसे खूंखार नेता मारा गया। मुल्ला मंसूर तालिबान का नया मुखिया था। मुल्ला उमर के मरने की खबर जैसे ही सामने आई मंसूर ने उमर की गद्दी हथिया ली। मंसूर काबुल के तालिबान शासन (1996-2001) में मंत्री रह चुका था। इशाकजई कबीले के मंसूर ने मुल्ला उमर के चारों तरफ ऐसा घेरा डाल रखा था कि उसके मरने की खबर भी वह दो साल तक छुपा कर रख सका। पिछले साल जैसे ही यह खबर फूटी, मंसूर ने अपनी ताज़पोशी करवा ली। तालिबान में फूट पड़ गई। कई कमांडर टूट गए लेकिन मंसूर ने कुख्यात और खूंखार हक्कानी गिरोह के सरगना सिराजुद्दीन हक्कानी को अपने साथ जोड़ लिया। हक्कानी के सिर पर 50 लाख डॉलर की बोली लगी हुई है। इसी संगठन ने अफगानिस्तान की सरकार के पांव कंपा रखे हैं।
इसके आत्महत्यारे आतंकियों ने कई अफगान शहरों में खून की नदियां बहा रखी हैं। इसके अलावा अमेरिका और पाकिस्तान मिल कर अफगानिस्तान के बारे में जो शांति-वार्ता करवाना चाहते हैं, उस पर मंसूर और हक्कानी ने पानी फिरवा दिया है। पाकिस्तान सरकार की प्रतिष्ठा को भी धक्का लगा है लेकिन इन आतंकियों को, जो अफगानिस्तान में खून बहाते हैं, मारने की बजाय पाकिस्तान अपने स्वार्थों के लिए इस्तेमाल करता रहता है। इसके कारण पाकिस्तान का अमेरिका पर भी दबाव बना रहा है। यदि अमेरिका ठान लेगा तो अब वह हक्कानी समेत अन्य सरगनाओं को भी उड़ाने की कोशिश करेगा। लेकिन अमेरिका और पाकिस्तान को अफगान-चरित्र की एक बुनियादी बात समझ में नहीं आ रही है। जब तक अफगानिस्तान में विदेशी फौजें जमी रहेंगी, अफगान जनता के एक बड़े तबके की सहानुभूति तालिबान के साथ बनी रहेगी। क्या मैं उन्हें पौने दो-सौ साल पुरानी बात याद दिलाऊं? 1842 में अंग्रेज की 16 हजार सैनिकों की फौज के एक-एक जवान को अफगानों ने कत्ल कर दिया था। अकेला डॉ. ब्राइडन अपनी जान बचाकर भागा था। जब तक अमेरिकी फौजी काबुल में हैं, कई मुल्ला उमर और कई मुल्ला मंसूर पैदा होते रहेंगे।
क्या फर्क पड़ता है एक मरता है तीन नए खड़े हो जाते हैं ,जबतक इनकी मति सुधर जाती यह ही सिलसिला चलेगा , विश्व इन से परेशान होता रहेगा