मुंबई असली दोषी कौन

संगीत वर्मा       

मुंबई एक बार फिर लहू लुहान है। देश और मानवता के दुश्मनों नें एक बार फिर ये साबित कर दिया की वर्तमान भारत दुनिया भर के आतंकवादियों के लिए सबसे आसान लक्ष्य है। इस देश के अल्प इतिहास पर अगर ध्यान दे तो पाएंगे की सन 1971 में यह लड़ाई देश की सीमाओं पर लड़ी गयी थी। 1980 में यह लड़ाई पंजाब के खेतों में आ गयी सन 1991 में वी. पी. सिंह और मुफ्ती मुहम्मद सईद के सहानुभूति पूर्ण रवये के चलते यह लड़ाई जंगल की आग की तरह फैल गई। सन 2001 में दिल्ली में संसद पर हमला हुआ तो लगा की इस्लामिक कट्टरवाद की इस लड़ाई में एक मोर्चा और बढ़ा लिया। 1993 के मुंबई धमाकों से ही मुंबई आतंकवादियों के निशाने पर रही।

लोकल ट्रेनों में सुनियोजित धमाके हों या फिर पूरी मुंबई को लहुलुहान करने वाला 26 नवम्बर का हमला….. मुंबई दर्द से चीखती रही और नेता बेशर्मी से मुंबई की जीवटता पर ताली पीट‒पीट कर लोगो का ध्यान बटाते रहें। इस सब के बीच यदा कदा आतंक वादियों की धड़ पकड़ के नाम पर कुछ औपचारिकतायें पूरी होती रहीं। कुछ आतंकवादी अगर पकड़े भी गए तो मुस्लिम वोटो के चक्कर में कांग्रेस सरकारें उन्हें दण्डित करने से बचती रही फिर चाहे वो अफजल गुरु हों, अजमल कसाब या फिर अबू सलेम। ऐसे में देश के प्रति चिंतित लोगों के मन में जो सबसे बड़ा प्रश्न बार बार उभर रहा है वह है इन साब का दोषी कौन ?

यद्यपि हर हमला अलग ‒ अलग समय पर अलग‒ अलग कारणों से किया गया, फिर भी सरे हमलों में दो बातें विशेष रूप से सहायक बनी । पहली : इस्लामिक कट्टरवाद के प्रति एक वर्ग की अंध श्रध्दा , और दूसरी आतंकी हमलें के उपयुक्त वातावरण। एक और जहाँ पहली बात यानि आतंकवादियों के लिए जमीन तैयार करने का काम मुस्लिम सामाज के कुछ कट्टरपंथियों ने किया। वहीं दूसरी ओर आतंकी हमलों के लिए अनुकूल वातावरण तैयार करने का काम हमारे देश के अल्पसंख्यक वोटों के पिपासु माननीय नेताओं ने किया। 1977 की पराजय से बौखलाई श्रीमती इंदिरा गाँधी जब 198. में सत्ताा में लौटीं तो अल्पसंख्यक तुष्टिकरण की उनकी निति ने पंजाब में आतंकवाद के पनपने के लिए अनुकूल वातावरण तैयार कर दिया।

जिसकी कीमत श्रीमती गाँधी नें 1983 में अपनी जान देकर चुकाई सन 1989 में सत्ताा में आते ही श्री वी. पी. सिंह और उनके ”गृह मंत्री” मुफ्ती मुहम्मद सईद की घाटी के मुसलमानों के प्रति तुष्टिकरण की नीति ने तो समूचे कश्मीर को ही आतंकवादी हिंसा का केंद्र बना डाला। कश्मीर आज भी जल रहा है और अब तक पचास हजार से अधिक भारतीय इसकी बलि चढ़ चुके हैं। सन् 1993 के मुंबई बम धमाके के साथ ही एक नये तरह के आतंकवाद ने जन्म लिया। यह आतंकवाद मुस्लिम माफिया और इस्लामी कट्टरपंथियों द्वारा चलाया जाता था और इसमें र्इंधन भरने का काम देश में मुस्लिम तुष्टिकरण पर पल रहे नेता करते थे। इसी तरह के आतंकवाद के चलते आजमखान और अबू आजमी जैसे नेता सामने आये। शीघ्र ही इनमें बालीवुड के राजनैतिक महत्वाकांक्षा रखने वाले महेश भट्ट, जावेद अख्तर और शबाना आजमी जैसे कुछ ”सेक्युलर” चेहरे शामिल हो गये। यही वो लोग हैं जिन्होंने आज हो रही मुंबई की दुर्गति की जमीन तैयार की। अल्पसंख्यक समुदाय आतंकवादियों का आश्रयदाता बन गया और मुंबई हमले के बाद हमला झेलती रही। मुंबई में मिल रही इन छुटभइये नेताओं के दिल्ली पहुचते ही यह फार्मुला चल निकला और राष्ट्रीय स्तर पर बड़े नेताओं की एक पूरी जमात खड़ी हो गई जो सत्ता लोलुप्ता में खुलकर आतंकवादियों के पक्ष में बोलने लगे। आतंकवादियों के ”मानवाधिकारों” की बात होने लगी और आतंकवादियों के एनकाउंटर ”फर्जी” करार दिये जाने लगे। ऐसे में एक ओर जहां देश के लिए लड़ने वाले सिपाहियों के हौसले टूट गये, वहीं दूसरी ओर आतंकवादियों के हौसले बुलंद हो गये। आतंकवाद के पक्ष में बयान देने वाले इन नेताओं में अग्रणी रहे वर्तमान कांग्रेस महासचिव श्री दिग्विजय सिंह। एक ओर जहां उन्होंने ओसामा बिन लादेन जैसे कुख्यात अन्तर्राष्ट्रीय आतंकवादी के मानवाधिकारों की चिन्ता की, तो वहीं हिन्दू साधु-संतों को पानी पी-पीकर कोसा। बटाला हाउस एनकांउटर में शहीद इंस्पेक्टर शर्मा की शहादत पर उन्होंने प्रश्नचिन्ह खड़े किये, तो वहीं इसमें मारे गये आतंकवादियों के परिवारों के प्रति सहानुभूति जताते हुये घटना की जांच की मांग कर डाली। पांच-पांच बार नार्को टेस्ट कराये जाने पर भी कोई सबूत न मिलने बावजूद साध्वी प्रज्ञा को उन्होंने राष्ट्रीय सुरक्षा पर खतरा बताया, तो वहीं अमेरिका में हुये 9/11 के हमले को भी इस्लाम को बदनाम करने के लिए हिन्दू आतंकवादियों की करनी बता डाला। स्वतंत्र भारत में इससे बड़ा राष्ट्रद्रोह का राजनैतिक उदाहरण दूसरा नहीं हो सकता था। जिस इश्रत जहां की शव यात्रा में अनेक कांग्रेसी नेता सहभागी बने, बाद में उसी इश्रत जहां को अमेरिका में कुख्यात आतंकी हेडली ने आतंकवादी माना। गुजरात में मुस्लिम तुष्टिकरण की जमीन तैयार न होने देने और आतंकवादी की गोली का जवाब गोली से देने की श्री नरेन्द्र मोदी की रणनीति के चलते वहां पर पिछले दस वर्षों में आतंकवाद ही मात्र एक घटना घटी है। इससे बौखलाये कांग्रेसी नेता हर संभव माध्यम से मोदी सरकार के पीछे पड़ गये। इसी का नतीजा हुआ कि सोहराबुद्दीन जैसे अनेक देशद्रोहियों को मौत के घाट उतारने वाले गुजरात पुलिस के अनेक जांबाज अधिकारी आज जेल की सलाखों के पीछे अपने राष्ट्रप्रेम की कीमत चुका रहे हैं। ‘देशप्रेमियों के लिए जेल और आतंकवादियों के लिए बेल’ की इस कांग्रेसी नीति के चलते पूरे देश में आतंकवाद की आग फैल गई। पिछले सात वर्षों में मुंबई, दिल्ली, हैदराबाद, बैंगलुरु और पुणे जैसे शहर भी बार-बार निशाना बनने लगे। दिग्विजय सिंह जैसे नेताओं के पद चिन्हों पर नई पीढ़ी के राहुल गांधी भी चल पड़े हैं। राहुल गांधी पूरी बेशर्मी से अपने देश की तुलना अफगानिस्तान, ईरान और ईराक से कर रहे हैं, तो गृहमंत्री पी. चिदंबरम् मुंबई के निवासियों से यह शुक्र मनाने को कह रहे है कि एक के बाद दूसरा हमला होने में ‘पूरे 31 माह का’ समय लगा। कहने की जरुरत नहीं कि अल्पसंख्यक वोटों के लालच में दिये गये ये बयान आने वालों महीनों में अनेक नये आतंकवादी हमलों की जमीन तैयार करेंगे। कई और धमाके होंगे, कई और गोलियां चलेगी, कई और निर्दोष मरेंगे, कई और जांच समितियां बनेगी, कई और चुनाव होंगे, कई और देशभक्त पुलिस वाले और संत जेलों में ठूंसे जायेंगे, इस बीच मुंबई तो बस पुराने जख्मों को सहलाती, सिसकती, आने वाले हमलों का बस बेबसी से इंतजार करती रहेगी।

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