इस चुनाव में मुसलमान क्या करें?

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ए एन शिबली
लोकसभा चुनाव की तारीखों के एलान के साथ ही हर किसी ने अपने अपने तौर पर तैय्यारी शुरू कर दी है।  चूँकि भारतीय राजनीति में मुसलामानों के वोट का बड़ा महत्त्व होता है इसलिए हर पार्टी अपने अपने तौर पर यही कोशिश करती है कि उसे ही मुसलामानों का वोट मिले।  मुसलमानों के साथ सबसे बड़ी समस्या यह है कि उसका अपना कोई ऐसा लीडर है नहीं जिनकी बातों पर पूरे मुसलमान भरोसा करें। या तो बेईमान मुस्लिम लीडर के बहकावे में आकर या उचित ज्ञान नहीं होने कि वजह से   मुस्लमान कुछ ख़ास पार्टियों को अपना क़ीमतों वोट देता रहा है मगर बदले में उसे सिर्फ और सिर्फ धोखा मिला है।
स्वतंत्रता के बाद से मुस्लमान चाहे अनचाहे कांग्रेस और दूसरी सेक्युलर कहलाने वाली पार्टियों को अपना क़ीमती वोट देता आया है।  देश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी भाजपा के साथ समस्या यह है कि वह लाख कोशिशों के बाद भी मुसलमानों के दिल में अपने लिए जगह नहीं बना पायी है।  उसके नेता आये दिन यह तो कहते हैं कि कांग्रेस भाजपा का खौफ दिखाकर मुसलामानों को बेवक़ूफ़ बना रही है मगर भाजपा के कुछ नेताओं के ऐसे बयान सामने  आ जाते हैं जिस से ऐसा लगता है कि उन्हें मुसलामानों से कोई लेना देना नहीं है और उनकी अपनी जो कुछ समस्याएं हैं उन्हें वह संजीदगी से लेती ही नहीं।  ऐसा नहीं है कि देश में सिर्फ गुजरात में ही दंगे हुए हैं कांग्रेस के दौर में कुछ ज़यादा ही दंगे हुए हैं और मुसलामानों का बड़े पैमाने पर नुक़सान भी हुआ है मगर कांग्रेस और भाजपा के दंगे में एक बड़ा अंतर यह  है कि जहाँ कांग्रेस दंगे पर थोड़े बहुत अफ़सोस का इज़हार कर देती है भाजपा अफ़सोस का इज़हार करने के बजाये उन दंगों पर ख़ुशी महसूस करती है और हद तो तब हो जाती है जब वह दंगे में शामिल अपने नेताओं को इनाम भी देती है।  ऐसे में भला भाजपा से यह उम्मीद मुसलमान कैसे कर सकता है कि वह सत्ता में आने के बाद मुसलामानों की भलाई के काम करेंगे।
कांग्रेस के साथ एक खास बात यह है वह मुसलामानों के  लिए कुछ करे न करे उसे यह लगता है कि इस देश में मुसलमान भाजपा को वोट देंगे नहीं और पूरे देश के स्तर पर उसके पास कांग्रेस के अलावा कोई विकल्प नहीं है तो ऐसे में कांग्रेस को वोट देना उसकी मजबूरी है।  कांग्रेस को एक बड़ा लाभ बड़े बड़े मौलवी और मुस्लिम संगठनों से भी मिलता है।  देश में कई ऐसे बड़े मौलवी हैं जो कांग्रेस के लिए काम करते हैं। यह लोग आम दिनों में कांग्रेस के लिए तो कम करते ही हैं चुनाव के समय अपने अपने तौर पर तरह तरह के प्रोग्राम का आयोजन करते हैं।  इन प्रोग्रामों का सिलसिला शुरू हो चूका है।  ऐसे सभी प्रोग्रामों में खास तौर पर यह नहीं कहा जाता कि मुसलामानों को कांग्रेस को ही वोट देना चाहिए मगर यह ज़रूर कहा जाता है कि चूँकि हमें इस देश में सांप्रदायिक ताक़तों को संसद तह पहुँचने से रोकना है इसलिए मुसलमानों को चाहिए कि वह सेक्युलर ताक़तों को वोट दें।  भाजपा के नेताओं के बार बार के बयानों से यह तो साफ़ साफ लगता है कि यह पार्टी सांप्रदायिक है मगर कई दंगे के बाद भी कांग्रेस सेक्युलर कैसे है यह समझ में नहीं आता।  मुस्लमान बेचारा भरोसा करे तो किस पर करे।  हर नेता अपनी मर्ज़ी से जब चाहे सेक्युलर बन जाता है और जब चाहे भाजपा से हाथ मिला लेता है।  नितीश अपने को सेक्युलर कहते हैं मगर भाजपा के साथ मिलकर सत्ता के मज़े लूटते रहे।  रामविलास पासवान तो हमेशा सेक्युलर कहलाये। मुसलमानोंकी टोपी पहन कर वह मुसलामानों को टोपी पहनाते रहे।  इस चुनाव में उन्हों ने भाजपा से हाथ मिला लिया है और कमाल कि बात यह है कि जो मोदी उन्हें अब तक मुसलमानों के क़ातिल लगते थे वह अब नेक लगने लगे हैं।  उस से बड़ा कमाल तो यह है कि वह भाजपा से हाथ मिला लेने के बाद पासवान अब भी यह कह रहे हैं कि मैं सेक्युलर था , सेक्युलर हूँ और सेक्युलर रहूँगा।
समाजवादी चीफ मुलायम सिंह यादव तो मुसलामानों से क़रीब होने की वजह से मुल्ला मुलायम तक कहलाते थे मगर अभी मुज़फ्फरनगर दंगे के दौरान उन्हों ने दिखा दिया कि हमें तो राजनीती करनी है हमें मुस्लमान से क्या मतलब ? मुज़फ्फरनगर दंगे भड़काने वालों के खिलाफ उन्हों ने कोई ठोस कारर्वाई तो नहीं की अलबत्ता राहत कैम्प में रह रहे लोगों को उन्हों ने भाजपा और कांग्रेस का एजेंट बता दिया।  टेलिविज़न चैनल पर और अख़बारों में यह ख़बरें आती रही कि राहत शिविर में मासूम बच्चे ठण्ड से मर रहे हैं मगर मुलायम के नेता विदेश घुमते रहे।  विदेश घूमने वालों में आज़म खान भी थे।
असल में एक बड़ी समस्या यह भी है मुस्लमान के अपने लीडर भी उनके काम नहीं आते।  जिन मुसलामानों को राजनीति में जाने का मौक़ा मिल गया है वह अपनी क़ौम के नहीं बल्कि अपनी पार्टी के वफादार हो जाते हैं।  मुज़फ्फरनगर में दंगे हुए, मुसलामानों को मारा गया मगर उत्तर प्रदेश के क़रीब 70 मुस्लिम विधायकों में से किसी को यह शर्म महसूस नहीं हुई कि वह इन दंगे के विरोध में इस्तीफा दे दें।  उसी प्रकार देश की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस में जो मुस्लिम हैं वह सबके सब राहुल और सोनिया के वफादार हैं उन्हें अपनी क़ौम की चिंता नहीं है।  देश में आये दिन बिना किसी सबूत के मुस्लिम बच्चों की गिरफ़्तारी होती रहती है मगर इन कांग्रेसी मुसलमानों में से किसी की यह हिम्मत नहीं होती कि वह अपनी पार्टी के बड़े नेताओं से बात करके कहें कि सर यह गलत हो रहा है मुस्लमान अपने ही देश में डर के साये में जी रहे हैं।  कुल मिलाकर कांग्रेस को मुसलमानों का वोट तो मिल रहा है मगर बदले में मुसलामानों को सिर्फ वादे मिल रहे हैं।
देश में आम आदमी पार्टी के नाम से एक तूफ़ान मचा हुआ है मगर मुसलमानों के बड़े लीडर और बड़े मुस्लिम संगठनों ने अब तक आप को समर्थन देने का मन नहीं बनाया है।  पता नहीं इस मुस्लिम संगठनों के पास कोई सबूत है या नहीं मगर इनमें से अधिकतर यही कहते है कि आप मुसलमानों की हमदर्द नहीं हो सकती और यह लोग भी संघ के एजेंडा पर काम करेंगे।  केजरीवाल ने  मोदी से दो दो हाथ करने का मन बना लिया  है उसके बाद भी मुस्लिम संगठनों को कुछ फाइनल फैसला लेने में दिककत हो रही है।  हालाँकि  मोदी से केजरीवाल के मुक़ाबले की बात के बाद कई बड़े मुस्लिम लीडर ने केजरीवाल को समर्थन देने की बात कही है मगर जो मुस्लमान हमेशा  कांग्रेस के लिए काम करते रहे हैं उन्हें आप में अब भी कई बुराई नज़र आती है।  बहुत से लोगों का तो यह भी कहना है कि जो बड़े मौलवी या जो बड़े मुस्लिम रहनुमा कांग्रेस के लिए काम करते रहे हैं वह मुसलामानों से आप को कभी भी समर्थन देने की अपील नहीं करेंगे इसकी एक बड़ी वजह यह है कि कांग्रेस की भांति आप इन मौलाना हज़रात को या इन मुस्लिम रहनुमा को यह काम करने के लिए कुछ देगी नहीं।  मतलब यह कि चूँकि कांग्रेस से डील होती है इसलिए उसके लिए अपील की जाती है।
मुस्लमान बेचारा सुने भी तो किसकी सुने।  मोहम्मद अदीब ने अलग टीम बना ली है।  अहमद बुखारी के लोग अलग पूरे देश में घूम कर देख रहे हैं कि मुसलमान किसे वोट दें और डाकटर मंज़ूर आलम की मिल्ली कौंसिल ने भी कह दिया है कि एक टीम बनायीं जाये जो तय करे कि मुस्लमान जाएं तो आखिर आखिर किस पार्टी की ओर जाएं। पिछले दिनों जमात इस्लामी हिन्द ने पब्लिक घोषणापत्र जारी किया और कहा कि जो पार्टी इन बातों पर काम करेगी यह इनमें से अधिकतर पर काम करने का वादा करेगी जमात उस पार्टी को अपना समर्थन देगी और मुसलमानों से भी कहेगी कि वह ऐसी पार्टियों को अपना क़ीमतों वोट दें। जमात की बातों को दूसरे बड़े मौलवी कितना महत्त्व देंगे यह एक दूसरी समस्या है।  मौलवी हज़रात के साथ एक समस्या यह है कि वह हैं तो मौलवी और दिन रात अल्लाह रसूल की बातें करते हैं मगर आपस में संगठित नहीं हैं।  हर कोई खुद ही लीडर बनना चाहता है।  इमाम बुखारी की मीटिंग में दुसरे बड़े मौलाना नहीं जाते तो इन मौलाना की मीटिंग में बुखारी नहीं आते।  ऐसे में मुसलमानों का भला कैसे होगा और उन्हें आखिर कौन  यह बतायेगा कि मुसलमान आखिर किस पार्टी को वोट दें और कौन पार्टी उनका भला करेगी ?

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