सामाजिक समरसता के उपासकों का सम्मान आवश्यक

राजीव मिश्रा

संस्कारों का भारतीय मानवीय चेतना से गहरा संबंध है। इसके माध्यम से शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक परिष्कार की प्रक्रियाएं पूर्ण होकर परिवार, समाज एवं देश में समर्पण भाव से प्रशिक्षित सुसंस्कृत तथा समरस्ता से संपन्न सामाजिक सत् परिणामों को प्राप्त किया जा सकता है। शिक्षा स्वावलंबंन, संस्कृति के समन्वय से ही सामाजिक उन्नति के द्वार खुलेंगे।

जब व्यक्ति का व्यावहारिक जीवन तथा नैतिक स्तर ही भ्रष्ट होगा तो उसकी थोपी नातों को कौन सुनेगा। जब तक नैतिक ह्रास के मूल कारणों पर गंभीरता से विचार मंथन नहीं होगा तब तक सामाजिक विकास संभव नहीं होगा। इसके लिए समाज में भ्रष्टाचार से अनीतिपूर्वक धन संपदा एकत्र कर लेने वाले बगुला भक्तों को महिमा मंडित करना बंद कर सामाजिक बहिष्कार का दंड प्रारंभ करना होगा। सदाचारिता संस्कृत-संस्कृति के पोषक ‘वयं राष्ट्रे जागयामः’ को आत्मसात करने वाले देश के लिए प्राणार्पित समाजिक समरस्ता के उपासकों को सम्मान देना होगा।

हिंदू समाज लगभग 1300 वर्षों से विदेशी एवं विधर्मी शक्तियों से संघर्षरत रहा है। यह बहुत लंबा काल है। इसमें हमने बहुत कुछ खोया है। वह एक लंबी गाथा है किंतु हम एक समाज हैं, एक ही भारत माता की संतान हैं, हम सबके पूर्वज एक हैं, हम एक कुटुंब हैं यह भी भूला बैठे। इसकी अनुभूति कराना, यह स्मरण कराना, समाज कल्याण की पहली प्राथमिकता होनी चाहिए।

कुछ भ्रम जो लंबी राजनीतिक दासता के कारण पैदा हो गए, उनका निदान इस प्रयत्न में सहायक होगा। जैसे यह भ्रम पैदा हो गया है कि सामाजिक छुआ-दूत, भेदभाव हिन्दू व्यवस्था की देन है। यह असंभव को संभव बनाने जैसा भ्रम है। यह पाप इस्लाम एवं ईसाइयत की देन है। इस्लाम के भारत प्रवेश के पहले सामाजिक छुआ-छूत का कोई उदाहरण नहीं मिलता।

दूसरा भ्रम यह व्याप्त है कि आज जो हमारे हिंदू बंधु अस्पृश्य श्रेणी में माने जा रहे हैं ये शुद्र है। यह मान लेना इतिहास के साथ बलात्कार एवं क्रूर मजाक है। इससे बड़ा कोई झूठ नहीं हो सकता। सच्चाई यह है कि हमारा यह समाज वर्ग उन शासक एवं योध्दा जातियों की संतान है जो देश की रक्षा में विधर्मी आक्रांता मुसलमानों से लड़े और दुर्भाग्य से पराजित होकर राजनीति बंदी के रूप में उपस्थित किए गए। उनके सामने प्रस्ताव आया किया तो इस्लाम स्वीकार करो अथवा हमारी सेवा के कार्य करने पड़ेंगे। जिन्होंने इस्लाम स्वीकार कर लिया वे तो मुसलमान हो गए। किंतु जिन्होंने धर्म नहीं छोड़ा, उनकी सेवा स्वीकार की। उन म्लेच्छों ने उन हिंदू बने रहे राजनीतिक बंदियों में किसी को अपना मैला धोने का काम सौंपा और अनेक गंदे से गंदे काम सौंप कर अपमानित किया अर्थात् अछूत बना दिया।

आज आवश्यक है इस सच्चाई को उजागर करने की। इस भ्रम के कारण जो वीर योध्दा समाज में सर्वाधिक सम्मान के पात्र थे वे उस सम्मान से वंचित रह गए। हिंदू समाज को जिनके प्रति सर्वाधिक कृतज्ञ होना चाहिए था, वह भी संभव न हो सका।

* लेखक स्वतंत्र चिंतक हैं।

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