दुनिया के साथ साझा होगी भारतीय ज्ञान परंपरा

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संदर्भः प्रधानमंत्री की प्राचीन ज्ञान को दुनिया के साथ साझा करने की अपील

 

प्रमोद भार्गव

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारतीय प्राचीन ज्ञान और परंपरा को रेखांकित करते हुए इसे दुनिया के साथ बांटने की सार्थक अपील केरल के कोझिकोड में संपन्न हुए आयुर्वेद सम्मेलन में की है। क्योंकि भारत के पास प्राचीन विद्या की लिखित व मौखिक ऐसी समृद्ध विरासत मौजूद है,जिससे दुनिया लाभांवित हो सकती है। प्रधानमंत्री ने दावा किया है कि उनकी सरकार इस दृष्टि से आयुर्वेद समेत तमाम क्षेत्रों में प्राचीन ज्ञान को बढ़ावा देने के उपाय कर रही है। यदि वाकई ऐसा गंभीरतापूर्वक होता है तो भारत को एक साथ कई लाभ होने की उम्मीद बढ़ जाएगी। स्वास्थ्य,खेती-किसानी,पशुधन और पानी के क्षेत्रों में इस परंपरा के असरकारी प्रभाव दिखाई देंगे। जिन संस्कृत ग्रंथों को हमने केवल पूजा और कर्मकाण्ड की विषयवस्तु बना दिया है,उनसे धूल झड़ेगी और आर्थिक समृद्धि के ऐसे सूत्र मिलेंगे जिनसे समावेषी विकास और प्रधानमंत्री के मेक इन इंडिया जैसे स्वप्नों को देशज आधार मिलेंगे।

प्राचीन भारतीय समृद्धि और समरसता के मूल में प्राकृतिक संपदा,कृषि और गोवंश थे। पाकृतिक संपदा के रूप में हमारे पास नदियों के अक्षय-भंडार के रूप में षुद्ध और पवित्र जल स्रोत थे। हिमालय और उष्ण कटिबंधीय वनों में प्राणी और वनस्पति की विशाल जैव-विविधता वाले अक्षुण्ण भंडार और त्रृतुओं के अनुकूल पोषक तत्व पैदा करने वाली जलवायु थी। मसलन मामूली सी कोशिश आजीविका के लायक पोष्टिक खाद्य सामग्री उपलब्ध करा देती थी। इसीलिए नदियों के किनारे और वन प्रातंरों में मानव सभ्यता और भारतीय संस्कृति विकसित हुई। आहार की उपलब्धता सुलभ हुई तो सृजन और चिंतन के पुरोधा सृष्टि के रहस्यों की तलाष में जुट गए। आर्थिक संसाधनों को समृद्ध बनाने के लिए ऋषि-मनीषियों ने नए-नए प्रयोग किए। कृषि फसलों के विविध उत्पादनों से जुड़ी। फलतः अनाज,दलहन,चावल,तेलीय फसलें और मसालों की हजारों किस्में प्राकृतिक रूप से फली-फूलीं। 167 फसलों और 350 फल प्रजातियों की पहचान की गई। अकेले चावल की करीब 80 हजार किस्में हमारे यहां मौजूद हैं। 89 हजार जीव-जंतुओं और 47 हजार प्रकार की वनस्पतियों की खोज हुई। मनीषीयों ने प्रकृति और जैव-विविधता के उत्पादन तंत्र की विकास सरंचना और प्राणी जगत के लिए उपयोगिता की वैज्ञानिक समझ हासिल की। इनकी महत्ता और उपस्थिति दिर्घकालिक बनी रहे,इसलिए धर्म व अध्यातम के बहाने अलौकिक तादात्म्य स्थापित कर इनके,भोग के लिए उपभोग पर व्यावहारिक अंकुश लगाया। दूरद्रष्टा मनीषीयों ने हजारों साल पहले ही लंबी ज्ञान-साधना व अनुभवजन्य ज्ञान से जान लिया था कि प्राकृतिक संसाधनों का कोई विकल्प नहीं है। वैज्ञानिक तकनीक से हम इनका रूपांतरण अथवा कायातंरण तो कर सकते हैं,किंतु तकनीक आधारित किसी भी आधुनिकतम ज्ञान के बूते इन्हें प्राकृतिक स्वरूप में पुनर्जीवित नहीं कर सकते ? तमाम दावों के बावजूद क्लोन से अभी तक जीवन का पुनरागमन नहीं हुआ है। गोया,हमारी कृषि एवं गौवंश आधारित अर्थव्यस्था उत्तरोतर विकसित व विस्तारित हुई। विकास का समावेषी रूप बना रहा। अपढ़ भी गरिमा के साथ स्वावलंबी रहा। नतीजतन हम अर्थ व वैभव संपन्न हुए और सोने की चिड़िया कहलाए।

कथा-सरित्सागर और जातक कथाओं में समुद्र व हिमालय पार जाकर माल का क्रय-विक्रय करने वाले युवा उत्साहियों की कथाएं भरी पड़ी हैं। ईसवी संवत की दूसरी सदी से लेकर ग्यारह-बारहवीं शताब्दी तक भारतीयों के लिए व्यापारिक स्थितियां अनुकूल थीं। लेकिन ग्यारहवीं सदी में मंगोल और अरबों के व बारहवीं सदी में तूर्कों के अक्रमाण ने भारत में उनकी सत्ता स्थापित कर दी। भारत का राजनीतिक क्षरण और व्यापक आर्थिक आधार विघटित होने लगा। देश की समृद्धि लूटेरों की लूट का शर्मनाक पर्याय बनकर रह गई। तत्पश्चात अंग्रेजों ने व्यापार के बहाने भारत का रुख किया और आर्थिक दोहन में लग गए। जनपदों में बंटे,भोग-विलास में डूबे और मुगल शासकों से भयभीत सामंत कोई प्रतिरोध नहीं कर पाए,बल्कि उनकी सत्ता-कायमी में सहयोगी बन गए। अंग्रेजों ने कुटिल चतुराई से देश की संपदा व समृद्धि दोनों का ही दोहन योजनाबद्ध तरीके से किया। हालांकि फिरंगियों ने रेलवे की सरंचना और कानून व्यवस्था की देशव्यापी एकरूपता के चलते देश को एक सांचे में ढालने का काम भी किया,जो भारत की अखंडता के लिए एक बड़ी उपलब्धि है। लेकिन ‘फूट डालो और राज करो‘ की विभाजनकारी मानसिकता के ऐसे बीज बोए की आजादी की उपलब्धी के साथ देश तो बंटा की सांप्रदायिक कुरूपता ने सांस्कृतिक समरसता का क्षय कर दिया।

वे अंग्रेज ही थे,जिन्होंने लोक में व्याप्त भारतीय ज्ञान परंपरा व गुरूकुल शिक्षा पर अंग्रेजी शिक्षा थोप कर इसे क्रमबद्ध तरीके से नष्ट करने की नींव डाली। वहीं,सांस्कृतिक विरासत आमजन के लिए महत्वहीन हो जाए,इस दृष्टि से संस्कृत साहित्य को आध्यात्मिक साहित्य की संज्ञा देकर ज्ञान-विज्ञान के सूत्र को पूजा की वस्तु बना देने की रणनीति चल दी। इन धूर्त उपायों को हमने विनम्र भाव से स्वीकार भी लिया। जबकि हमारे वेद तात्कालिक विश्व ज्ञान के कोष हैं। उपनिषद ब्रह्मण्ड की जिज्ञासाएं हैं। रामायण और महाभारत ऐतिहासिक कालखंडों की सामाजिक भौगोलिक,राजनीतिक,आर्थिक व युद्ध कौशल के वस्तुपरक चित्रण हैं। 18 पुरण ऐतिहासिक क्रम में शासकों के समकालीन गाथाएं हैं। आयुर्वेद व पतंजलि योग,औषधीय व शारीरिक चिकित्सा शास्त्र हैं। कौटिल्य का अर्थशास्त्र और वात्स्यायन का कामसूत्र अर्थ और काम-विषयक अद्वितीय व सर्वथा मौलिक ग्रंथ हैं। चार्वाक के दर्शन ने हमें प्रत्यक्षवाद दिया,जो समस्त ईष्वरीय अवधारणाओं को नकारता है। ये ग्रंथ ज्ञान और संस्कार के ऐसे उपाय थे,ज्न्हिें आचरण की थाती बनाकर समाज,संपदा के दुरूपयोग और माया के मोह से दूरी बनाए रखकर प्रकृति को प्राणी जगत के लिए उपयोगी समझता रहा। बुद्ध,महावीर और गांधी दर्शन में भी यही असंचयी भाव है।

कुछ समय पहले ही हमें इस ज्ञान परंपरा की सार्थकता तब अनुभव हुई थी,जब हमने इसी ज्ञान के बूते पेटेंट से जुड़ी दो बड़ी वैश्विक मुकदमे जीते हैं। पहली लड़ाई जावित्री ;जायफल से ‘कुल्ला‘ करने के पारंपरिक तरीकों को हथियाने के परिप्रेक्ष्य में कोलगेट पामोलिव से जाती,तो दूसरी आयोडीन युक्त नमक उत्पादन को लेकर,हिंदुस्तान यूनिलीवर लिमिटेड से जीती। इन दोनों ही मामलों में विदेशी कंपनियों ने भारत की पारंपरिक ज्ञान प्रणालियों से उत्पादन की पद्धति व प्रयोग के तरीके चुरा लिए थे। भारत की वैज्ञानिक व औद्योगिक अनुसंधान परिषद ने भारतीय पारंपरिक ज्ञान के डिजीटल पुस्तकालय से तथ्यपरक उदाहरण व संदर्भ खोजकर आधुनिक विज्ञान के सिद्धांतों के क्रम में यह लड़ाई लड़ी थी। इस कानूनी कामयाबी से साबित हुआ है कि भारत की पारंपरिकता सदियों से भविष्य द्रष्टा रही है। प्राकृतिक संपदा के उपयोग और उपभोग को लेकर हजारों वर्ष पूर्व ही हमारे मनीषीयों ने आचार संहिता निर्मित कर दी थी। क्योंकि इसके दीर्घकाल तक सुरक्षित रहने में ही प्राणी जगत की शाष्वतता और मनुश्य की आर्थिक संवृद्धि का मूल-मंत्र छिपा था। यही वजह रही कि एक लंबे कालखंड तक भारत फसलों,मसालों,खनिजों,वस्त्रों,चिकित्सा पद्धातियों और विभिन्न तकनीक का उत्पादक व निर्यातक देश बना रहा।

नमक बनाने की पद्धतियों को विदेशी कंपनियों द्वारा हड़पने की मंशा को पारंपरिक ज्ञान से चुनौती देने की कानूनी प्रक्रिया ने यह तय कर दिया है कि हमारी ज्यादातर ज्ञान प्रणालियां विज्ञान की कसौटी पर खरी हैं। दरअसल,हमारी बौद्धिक कुशाग्रता और श्रम के समन्वय से फूटने वाला ठेठ देशज चिंतन हमारी अर्थव्यवस्था का ठोस आधार था। बदलते परिवेश में जिस तकनीकी ज्ञान पर हम इतरा रहे हैं और भारत को डिजीटल इंडिया बना देने का दम भर रहे हैं,उसकी अधिकांश क्षमताएं महज आयातित प्रौद्योगिकी से जुड़ी प्रबंधन व्यवस्था तक सीमित हैं। गोयाकि जब तक हम उत्पादन के मूल स्रोत खेती,पशुधन तथा पशु-पालक की सुरक्षा व संवृद्धि की सुध नहीं लेंगे आर्थिक समृद्धि की पुनरावृत्ति संभव नहीं है। इसके साथ ही सीमित रूप में खनिज और वन-संपदा के दोहन की जरूरत है। इसीलिए महात्मा गांधी भारत की परंपरागत अर्थव्यस्था और स्थानीयता के धरातल पर रोजगारमूलक शिक्षा के पक्षधर थे। लेकिन गांधी की इस सोच को स्वंतत्रता के प्रारंभिक नेहरू युग में ही बहिष्कृत कर दिया गया। पेटेंट संबंधी  य और अंतरराष्ट्रीय अदालतों में अपने साक्ष्य की मजबूती के लिए प्रस्तुत की गईं ज्ञान प्रणालियों से अब साबित हो रहा है कि स्वदेशी प्रौद्योगिकी कितनी महत्वपूर्ण हैं।

गोया,विदेशी कंपनियों से लड़ाई जीतने के बाद अब तय हो गया है कि बौद्धिक संपदा पर अधिकार के प्रमाण हमारी पारंपररिक ज्ञान पद्धातियों में सुरक्षित हैं। लिहाजा इस ज्ञान को फिर से लोक में स्थापित करने की जरूरत है। वैसे भी बौद्धिक संपदा अपीली बोर्ड में आयोडीन युक्त परंपरागत नमक बनाने व जावित्री से कुल्ला करने की जो विधियां प्रस्तुत की गईं,उन प्रौद्योगिकियों को बोर्ड ने ‘अनूठी,अविष्कारी और असाधारण‘ माना है। दरअसल,हमारे पारंपारिक ज्ञान में अंतनिर्हित जो स्वदेशी प्रौद्योगिकी है,वह खाद्य और कृषि आधारित औद्योगिक विकास में बाधा बनती है,इसलिए इन्हें स्वीकारने से कहीं ज्यादा विज्ञान के बहाने नकारने की कोशिशें तेज हो जाती हैं। जबकि ‘मेक इन इंडिया‘ के दर्शन में खासतौर से खाद्य,कृषि और स्वास्थ्य संबंधी प्रैद्योगिकी में पारंपरिक ज्ञान पद्धतियों का समावेषन आम आदमी के लिए कहीं ज्यादा लाभदायी है। लिहाजा प्राचीन ज्ञान दुनिया के साथ साझा होता है तो इसकी महिमा वैश्विक स्तर पर स्थापित होगी।

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