अपना दिल फैला रही है हिंदी

अखिलेश आर्येन्दु

दुनिया वालों के दिलों पर राज्य करने के लिए अपना दिल फैला रही है हिंदी

हिंदी अब केवल भारत में ही नहीं जानी समझी और बोली जाती बलिक विश्व स्तर पर इसका व्यापक व्यवहार होने लगा है। कर्इ देशों में तो यह वहां की प्रमुख भाषा के रूप में मान्य है। कम्प्यूटर के आगमन के बाद और भी इसका विस्तार हुआ है। अंग्रेजी कम्प्यूटर में अधिक प्रयोग होती है, इसका मतलब यह नहीं होता कि हिंदी कम्प्यूटर भाषा के रूप में उपयुक्त नहीं है। इंटरनेट के माध्यम से जिस प्रकार से विश्व की दूसरी अनेक भाषाएँ प्रतिष्ठित हो रही हैं उसी प्रकार से हिंदी भी इंटरनेट के माध्यम से विश्व स्तर पर भाषा जिज्ञासुओं और भाषाविदों को आकर्षित कर रही है। एक सर्वेक्षण के अनुसार विश्व के 44 देशों में हिंदी को जानने समझने और बोलने वाले हैं। विश्व जनसंख्या 1999 के आंकड़ों के अनुसार विश्व में हिंदी का व्यवहार करने वालों की संख्या 1103 मिलियन है। वहीं पर चीनी जानने वालों की संख्या 1060 मिलियन है। अँग्रेजी जिसे विश्व भाषा कहकर पुकारते हैं उसके जानने वालों की संख्या चीनी भाषा समझने वालों से भी कम है। हिंदी जहां विश्व के 44 देशों में बोली और समझी जाती है वहीं पर विश्व के 120 विश्व विधालयों में यह पढ़ार्इ जा रही है।

अमेरिका के 38, पश्चिमी जर्मनी के 17 तथा रूस के 7 विश्व वि़धालयों में हिंदी शिक्षण की स्तरीय व्यवस्था है। इसके अतिरिक्त पोलैण्ड, पेरिस, ब्रिटेन, स्वीडन और बेलिजयम के ‘भारतीय अध्ययन विभाग में हिंदी एक प्रमुख विषय के रूप में पढ़ार्इ्र जाती है। जापान के दो विश्व विद्यालयों में हिंदी के स्नातकोत्तर स्तर पर अध्ययन की व्यवस्था है। इसी प्रकार मारीशस में 300 प्राथमिक एवं माध्यमिक पाठशालाओं में हिंदी विषय एवं माध्यम के रूप में पढ़ार्इ जाती है। त्रिनिडाड एवं टोबेगो के 27 संस्थाओं में हिंदी का विधिवत अध्ययन एवं अध्यापन की व्यवस्था है। विश्व के और जिन देशों में हिंदी किसी न किसी रूप में जहां प्रयोग में आती है वहां इसका निरन्तर विस्तार हो रहा है।

जिन देशों में भारतीय अठारवीं और उन्नीसवीं शताब्दी में जाकर बसे थे वहां हिंदी अधिक समृद्ध हुर्इ है। जितनी परिमार्गित हिंदी भारत के बाहर बोली जाती है उतनी भारत में शायद ही कहीं बोली जाती हो। हिंदी का ठीक-ठीक प्रयोग कैसे बिना दूसरी भाषाओं के मिलावट के बोली जा सकती है इसका नमूना भारत में नहीं रूस, गुयाना, फिजी और मारीशस के लोगों की बोलचाल की हिंदी में देखा जा सकता है।

भूमण्डलीकरण के बाद हिंदी का जैसा व्यापक विस्तार हुआ है वह हिंदी की सशक्तीकरण का प्रमाण है। इंटरनेट, कम्प्यूटर और फिल्मों के माध्यम से हिंदी को वह विस्तार मिला है, जिसकी इसे आवश्यकता थी। विश्व के अनेक देशों में हिंदी के विस्तार के कर्इ कारण हैं। इनमें नर्इ बाजार व्यवस्था, भाषा एवं संस्कृति का आदान-प्रदान और आध्यातिमक (योग) क्रिया-विधियों के प्रति विदेशियों में आकर्षण।

1991 में भारत विश्व व्यापार संगठन का सदस्य बना। इससे देश में उदारीकरण एवं निजीकरण का दौर प्रारम्भ हुआ। उदारीकरण एवं निजीकरण के विकास के इस नये माडल में विदेशी पूंजी एवं विदेशी कम्पनियों को आमंत्रित करने का कानून पास किया गया। हिंदी राजभाषा होने के कारण इसका प्रयोग बाजार के स्तर पर भी होने लगा। विदेशियों को भी बाजार की मांग के अनुसार हिंदी जानना आवश्यक हो गया। इससे यह उन देशों एवं क्षेत्रों में भी प्रयोग होने लगी जहां नहीं होती थी। अमेरिका, जापान, जर्मनी, चीन, रूस एवं फ्रांस में हिंदी के प्रति एक गहरा जुड़ाव पिछले पन्द्रह वर्षों में देखने को मिला है। इसलिए इन देशों में हिंदी सीखने के अनेक शिक्षण संस्थान खुले हैं और निरंतर खुलते जा रहे हैं। अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति जार्ज बुश ने तो अमेरिका वासियों को हिंदी सीखने के लिए कहा, जिससे भारत के बाजार, संस्कृति एवं धर्म का जाना समझा जा सके।

भूमण्डलीकरण के इस नये दौर में बाजार मानव सभ्यता के आधार के रूप में होते जा रहे हैं। इसलिए बाजार के लिए जो भी आवश्यकता होती है उसे उपलब्ध कराया जाता है। हिंदी भारत की जन भाषा है। इसे 70 करोड़ से भी अधिक लोग जानते, समझते और बोलते हैं। इतनी बड़ी जनसंख्या के लिए बाजार की भाषा निश्चित ही हिंदी है। इसलिए हिंदी को बाजार की भाषा मानकर उसे तर्कसंगत बनाया गया। विदेशों में यह अनुभव किया जाने लगा है कि यदि भारत के विशाल बाजार में उत्पादों को बिना किसी बाधा के बेचना है तो हिंदी को लिखना, पढ़ना और बोलना आवश्यक है। अब धीरे-धीरे यह कहा जाने लगा है कि आज विश्व बाजार की भाषा भले ही अंग्रेजी हो लेकिन आने वाले वर्षों में हिंदी को यह स्थान सहज उपलब्ध हो जाएगा।

विश्व बाजार में उस भाषा को मान्यता और सम्मान मिलता है जिसके लिखने, पढ़ने और बोलने वालों की संख्या करोड़ों में होगी। हिंदी अंग्रेजी की अपेक्षा अधिक सरज, सहज और मधुर भाषा हैं। कम्प्यूटर पर इसका प्रयोग बहुत भी सहज ढंग से किया जा सकता है। इसके सीखने और बोलने में उतना परिश्रम नहीं करना पड़ता जितना अंग्रेजी के लिए। इस कारण से सभी यह विदेशियों की ‘चहेती भाषा बनती जा रही है।

हिंदी का विश्व स्तर पर फैलाव का जो दूसरा महत्वपूर्ण कारण है, वह है भारत का विश्व के दूसरे देशों से भाषार्इ एवं सांस्कृतिक भव्यता का प्रचार-प्रसार। और दूसरी तरफ विदेशी संस्कृति ने भारत में अपना पांव फैलाया है। विदेशों में भारत महोत्सवों के माध्यम से भारत के जो सांस्कृतिक चित्र प्रस्तुत किय जाते रहे हैं उससे भी हिंदी का प्रचार-प्रसार हुआ। हिंदी प्रदेशों के लोक कलाकार, शास्त्रीय संगीत के कलाकार, फिल्मों एवं नाटकों के कलाकारों ने विदशों में अपनी बेबाक प्रस्तुतियों एवं आकर्षक संवाद-शैली के माध्यम से विदेशियों को हिंदी के प्रति अनुराग पैदा किया। इसका प्रमाण यह है कि बहुत सारे विदेशी पर्यटक और विद्वान हिंदी भाषा में प्रस्तुत अनेक प्रकार के कार्यक्रमों में बड़े रुचिपूर्वक भाग लेते हैं और कार्यक्रमों के माध्यम से भारत की सांस्कृतिक विविधताओं का आनन्द उठाते रहे हैं। विदेशी धरती पर भारत का जो रूप प्रस्तुत किया जाता रहा है उसका प्रभाव वहां के लोगों पर बहुत ही गहरे तक पड़ा और निरन्तर पड़ रहा है। विदेशियों को यह लगने लगा है यदि भारत को पूरी तरह जानना-समझना है तो हिन्दी को जानना व समझना आवश्यक है। सांस्कृतिक चेतना के साथ भाषार्इ चेतना को जागृत करने की युकित बहुत ही प्रभावशाली मानी जाती है। शताबिदयों से भाषाओं का जो विस्तार हुआ उसमें लोक नृत्य, लोक संगीत एवं लोक नाटयों का बहुत योगदान रहा है। हिंदी यदि पूरे भारत में फैली तो उसका एक प्रमुख कारण सांस्कृतिक प्रस्तुतियां भी रही हैं। हिंदी के महान साहित्यकार राम नरेश त्रिपाठी और देवेन्द्र सत्यार्थी ने इस तथ्य को समझा था। अनेक शोधार्थियों ने अपने शोध के दौरान यह पाया कि सांस्कृतिक गौरव का सम्बन्ध भाषार्इ गौरव से सीधा जुड़ा होता है।

भारत धर्म-प्रधान और आध्यातिमक चेतना ये युक्त देश रहा है। वेद, उपनिशद, रामायण, ब्राह्राण ग्रन्थ, महाभारत एवं स्मृतियों ने पूरे विश्व में अपना अमिट प्रभाव डाला। शताब्दियों आध्यातिमक गुरुओं एवं धर्म प्रचारकों ने बाहर जाकर तत्कालीन प्रचलित भाषाओं में मानव धर्म (वैदिक धर्म) एवं अध्यात्म का प्रचार-प्रसार करके विश्व में ज्ञान, भकित, कर्म और मानवता का संदेश दिया, उसी परम्परा में आज भी अनेक योग साधक, आध्यातिमक उपदेशक, गुरु, धर्माधिकारी एवं मानवता के संदेश वाहक विदेशों में जाकर हिंदी के माध्यम से प्रचार-प्रसार करने में लगे हुए हैं। इनमें आर्य समाज के आध्यातिमक गुरुओं का योगदान प्रमुख है।

आर्यसमाज ने अपने स्थापना के साथ ही विदेशों में जाकर वेदों, उपनिशदों, योग, स्मृतियों और सत्यार्थ प्रकाश का प्रचार-प्रसार हिंदी में किया। जो गिरमिरिया मजदूर विदेशों में काम धंधे के लिए गये थे, वे साथ में रामचरित मानस एवं सत्यार्थ प्रकाश को भी साथ लेकर गए थे। आज वहां भले ही वे प्रमुख धारा में शामिल हो गए हों लेकिन वे हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए प्राणपन से लगे हुए हैं। इसमें हिंदी विदेशों में लगातार बढ़ती जा रही है। विदेशों में भारत से गए अनेक साधु संत हिंदी माध्यम से अपने वेद ज्ञान एवं योग का प्रचार-प्रसार कर रहे हैं। अनेक विदेशी इनके सम्पर्क में आकर हिंदी इस लिए सीख रहे हैं कि जिससे वे भारत के अध्यात्म एवं धर्म को ठीक से समझ सकें।

इस प्रकार देखें तो हिंदी भारत में भले ही उस गति से न बढ़ रही हो जितनी अंग्रेजी, लेकिन विदेशों में हिंदी का भविष्य निश्चित ही उज्ज्वल है।

 

 

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