लोकतंत्र के बिंदास लेखक नागार्जुन

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

बाबा नागार्जुन को मंदी और नव्य-उदारीकरण के संदर्भ में पढ़ना निश्चित रूप से बड़ी उपलब्धि है। मैंने करीब एक दशक से बाबा को नहीं पढ़ा था, इस बीच में उन्हें चलताऊ ढ़ंग से पढ़ा और रख दिया था। लेकिन इस बीच में उनकी जो भी किताबें बाजार में आईं उन्हें खरीदता चला गया और इधर उन्हें मन लगाकर पढ़ गया।

बाबा नागार्जुन से मुझे कईबार व्यक्तिगत तौर पर जेएनयू में पढ़ते समय मिलने और बातें करने का मौका मिला था। उनसे मेरी पहली मुलाकात 1981 में हुई जब मैंने उनकी आपात्कालीन कविताओं पर एम.फिल् करने का फैसला किया था। केदारनाथ सिंह गाइड थे। उसके बाद तो कईबार मिला और उनके साथ लंबी बैठकें भी कीं।

बाबा नागार्जुन सहज,सरल,पारदर्शी और धुनी व्यक्तित्व के धनी थे। प्रतिवादी लोकतंत्र उनके स्वभाव में रचा-बसा था। उनकी कविता लोकतंत्र की तरह पारदर्शी और आवरणहीन है। उन्हें प्रतिवादी लोकतंत्र का बिंदास लेखक भी कह सकते हैं। प्रतिवादी लोकतंत्र की प्राणवायु में जीने वाला ऐसा दूसरा लेखक हिन्दी में नहीं हुआ। नामवर सिंह को नागार्जुन का व्यंग्य अपील है । मुझे उनका प्रतिवादी लोकतंत्र के प्रति लगाव आकर्षित करता है।

नागार्जुन के व्यक्तित्व और कविता की यह खूबी थी कि वे जैसा सोचते थे वैसा ही जीते भी थे। आज हिन्दी के अधिकांश लब्ध प्रतिष्ठित लेखक इससे एकदम उलट हैं। सोचते कुछ हैं जीते कुछ हैं। आज के हिन्दी लेखकों के कर्म और विचार में जो महा-अंतराल आया है वह हमारे लिए चिन्ता की बात है। कवि चतुष्टयी की जन्मशती पर कम से कम हिन्दी के स्वनामधन्य बड़े लेखक इस सवाल पर सोचें कि उनके कर्म और विचार में महा-अंतराल क्यों आया है ? उनके हाथ से सामयिक यथार्थ क्यों छूट गया है ?

नागार्जुन की कविता की महानता इसमें है कि उसने कविता को लोकतांत्रिक संरचनाएं दी हैं। कविता की आंतरिक बुनाबट में आमूलचूल परिवर्तन किया है।

नागार्जुन के लेखे कविता का नया अर्थ है लोकतंत्र का संचार। अछूते को स्पर्श करना। उन विषयों पर लिखना जो कविता के क्षेत्र में वर्जित थे। प्रतिवादी लोकतंत्र के पक्ष में कविता का जितना विस्तार होता गया वह उतना ही लोकतांत्रिक होती गयी। कविता में लोकतंत्र का अर्थ है कविता और माध्यमों की पुरानी सीमाओं का अंत। लोकतंत्र का अर्थ है अनंत सीमाओं तक कविता के आकाश का विस्तार। कविता की पुरानी संरचनाओं का अंत।

कविता के लिए पहले राजनीति बेमानी थी,कविता ने अपना छंद बदला राजनीति को अपना लिया। कविता में पहले प्रकृति,श्रृंगार और शरीर की लय का सौंदर्य था। आज कविता इनके पार समूचे मानवीय कार्य-व्यापार तक अपना दायरा विकसित कर चुकी है।

कविता में आज भेद खत्म हो चुका है। पहले कविता में विषयों को लेकर भेदभाव था ।आज ऐसा नहीं है। कविता ने अछूते विषयों की विदाई कर दी है। कविता में पहले अर्थ छिपा होता था। अर्थ और संरचनाएं रहस्यात्मक होते थे। उन्हें खोलना होता था। अर्थ खोजने पड़ते थे। आलोचक-शिक्षकरूपी मिडिलमैन की जरूरत होती थी। आज कविता को किसी मिडिलमैन की जरूरत नहीं है।

कविता की आंतरिक संरचनाओं का वि-रहस्यीकरण हुआ है। कविता और उसके अर्थ आज ज्यादा पारदर्शी हैं। कविता का जीवन संघर्षों के साथ सघन संबंध स्थापित हुआ है। कविता पहले प्रशंसा में लिखी जाती थी आज यथार्थ पर लिखी जाती है। कविता में जीवन की आलोचना का आना कविता के लोकतांत्रिक होने का संकेत है।

कविता को पहले मिथों की जरूरत थी आज कविता मिथों को तोड़ती है। कविता में मिथों का लोप हो चुका है। मिथों की जगह जीवन का यथार्थ आ गया है। जीवनशैली के प्रश्न आ गए हैं। पहले कविता में अप्रत्यक्ष वर्चस्व हुआ करता था इनदिनों कविता का वर्चस्व के खिलाफ जमकर विस्तार हुआ है।

पहले कविता मनोरंजन का साधन थी,आज कविता जीवन की प्राणवायु है। कविता ने तरक्की की है वह सहज ही हमारी दैनंदिन सांस्कृतिक आस्वाद प्रक्रिया का हिस्सा बन गयी है।

पहले कविता लेखक और पाठक तक सीमित थी,आज उसने संस्कृति उद्योग तक अपना विस्तार कर लिया है। पहले कविता मुद्रण तक सीमित थी आज वह ऑडियो-वीडियो ,नेट ,वेब तक फैल गयी है। कविता का इतना फैलाव होगा हमने कभी सोचा नहीं था। यह सच है सभ्यता के विकास के साथ कविता का भी विकास हुआ है। कविता मरी नहीं है बदली है। हमें इसकी बदली हुई धुन और मिजाज को पकड़ना होगा।

आज पुराने काव्यमानकों के आधार पर कविता नहीं लिख सकते। यदि लिखोगे तो कोई पढ़ेगा नहीं। कविता के इस बदले मिजाज पर व्यंग्य करते हुए बाबा ने लिखा-‘‘ वो रूठ गई है/उसे परेशान मत करो/जाने किस मुहूर्त्त में/उसे अपमानित किया था तुमने /तुम्हारी धुली मुस्कान पे/ उसे घिन आती है…/आपके शब्दालंकार/भुस की बोरियाँ हैं उसके लिए/प्लीज,हट जाओ सामने से/ उसे परेशान मत करो

आप/अभिधा-लक्षणा-व्यंजना/सबकी सब सहेलियाँ हैं उसकी/सबकी सब…/उसे खो चुके हो आप,सदा-सदा के लिए !’’

कविता के बदले पैराडाइम में नया है कविता में अछूते विषयों और नए माध्यमों का आना। इसका एक नमूना देखें- ‘‘जन्म लिया /मेरे काव्य शिशु ने/गहन रात्रि में/क्या किसी ने सुना उसका क्रन्दन/क्या किसी ने सुना उसका आर्त्तनाद/मैं स्वयं ही इस नवजात की धात्री/मैं स्वयं ही इस नवजात की जननी/जन्म लिया है /मेरे शिशु ने /गहन रात्रि में।’’

इन दिनों लालगढ़ से लेकर छत्तीसगढ़ तक माओवादियों का भूत मंडरा रहा है। केन्द्र से लेकर राज्य सरकारों तक सभी परेशान हैं कि हम क्या करें ? प्रशासन में बैठे अधिकारियों से लेकर नेताओं तक किसी को समझ में नहीं आ रहा कि आखिर माओवादी भूत को कैसे वश में करें ?

माओवादी भूत हमारे समाज के अलगाव के गर्भ से पैदा हुआ है। विगत 60 सालों में आदिवासी जीवन से मुख्यधारा के महानगरों और शहरों में रहने वालों का अलगाव बढ़ा है.अपरिचय बढ़ा है। अपरिचय और अलगाव ही है जो हमें आज इस अवस्था तक ले आया है।

बाबा ने आदिवासियों पर कई कविताएं लिखी हैं और अनेक आदिवासी नेताओं पर भी लिखा है। ऐसी ही उनकी एक कविता है ‘हवन-काष्ठ…’,इसमें आदिवासी जीवन के साथ अपरिचय की स्थिति का रूपायन किया गया है। लिखा है-‘‘ क्या उससे भी कभी मिलोगे ? / मुण्डा -जन-जाति के उस पुरूषोत्तम से ? / सौ-सौ किवदंतियों का नायक था वो /गिरिजन उसे कहते हैं ‘विरसा भगवान!’’

माओवादी आज जिस तरह की हिंसा कर रहे हैं। इस तरह की परिस्थितियों और हिंसा के पुजारियों पर व्यंग्य कसते हुए बाबा ने लिखा- ‘‘ यही धुँआ मैं खोज रहा था/ यही आग में खोज रहा था/यही गन्ध थी मुझे चाहिए/बारूदी छर्रे की खुशबू!…/ठहरो-ठहरो इन नथनों में इसको भर लूँ…/बारूदी छर्रे की खुशबू !’’ आगे लिखा ‘‘ यहाँ अहिंसा की समाधि है/ यहाँ कब्र है पार्लमेंट की।’’

माओवादी जिस तरह का हिंसाचार रहे हैं ,वैसी ही अवस्था को ध्यान में रखकर ‘‘प्रतिहिंसा का महारूद्र’’ शीर्षक कविता लिखी। लिखा-‘‘फिलहाल,/तुम्हारा यह मारक खेल/ अभी कुछ और चलेगा/लेकिन याद रखो -हम तुम्हारी विरादरी के एक-एक सदस्य का वध करेंगे।’’

कश्मीर में लंबे समय से अशान्ति चल रही है। पाकिस्तान और उसके अनुयायी पृथकतावादी संगठन एक ओर हैं तो दूसरी ओर हिन्दुत्ववादी संगठन हैं,बीच में कहीं तीसरा धड़ा धर्मनिरपेक्ष काश्मीरियों का है जो कश्मीर की रक्षा किए हुए हैं और उनके कारण ही आज कश्मीर भारत का हिस्सा है वरना हिन्दू साम्प्रदायिक ताकतें और फंडामेंटलिस्ट-पृथकतावादी अपने-अपने तरीकों से जम्मू-कश्मीर को बांट चुके होते।

बाबा नागार्जुन के पास कश्मीर को लेकर एक समझ थी और वे कश्मीर की धड़कन को अच्छी तरह पहचानते थे। कश्मीर पर लिखी उनकी कविता का शीर्षक है ‘ केसर की मासूम क्यारियों से आती आवाज’। बाबा ने लिखा-

‘‘ काश्मीरी ही काश्मीर कर सकते उद्धार/’’ जो लोग यह समझते हैं कश्मीर की समस्या देशी है वे गलतफहमी के शिकार हैं,पहले भी आज भी काश्मीर की समस्या बाहरी ताकतों के द्वारा पैदा की गई है। अमेरिका और पाक की इन दिनों कश्मीर में अतिरिक्त दिलचस्पी दर्ज की गई है। अमेरिकी रवैय्ये पर बाबा ने लिखा-‘‘ अमरीकी बन्दर पंचों की खुल जाएगी पोल/काश्मीर में बजा करेंगे काश्मीर के ढ़ोल।’’

कश्मीर को लेकर तथाकथित सुलह कराने वालों पर बाबा ने लिखा – ‘‘ डिनर नई दिल्ली में और कराची में कर लंच/ तौल रहे रावलपिंडी में लड्डू बन्दर पंच।’’

अंत में बाबा नागार्जुन ने जो लिखा वह और भी महत्वपूर्ण है। लिखा ‘‘ मात खाएँगे हिन्दी पंडित,पाकिस्तानी पीर/ लो देखो ,वह खड़ा हो रहा नया-नया कश्मीर।’’

हिन्दी में महान बनने की मध्यवर्गीय बीमारी चली आयी है। महान बनने के चक्कर में जो कुछ लिखा जा रहा है उस पर बाबा ने लिखा- ‘‘ असल में-/हुआ है क्या,बतलाऊँ ? आहिस्ते-आहिस्ते/ तुमने इन्हें अपंग हो जाने दिया है/ शब्द, स्पर्श, गन्ध,रस,रूप/सारे के सारे छीज गए हैं लगभग/ लानत है,तुम तो खुलकर हँस भी नहीं पाते/ प्रभावित नहीं होती /लाजवन्ती तुम्हारे छूने से/ गन्ध -चेतना ठस है तुम्हारी/रसबोध पंगु है/ श्रुति-कुहर हो गए रबर की तरह/ अपने ‘स्व’ को सुला दिया है तुमने / ऐसे में क्या हो आप ? झाग ही झाग हो !’’

हिन्दी के स्वनाम धन्य आलोचक यह दावा करते हैं कि वे हिन्दी में सांस्कृतिक शून्य को भर रहे हैं। वे शब्दों के जरिए सांस्कृतिक क्षय का वर्णन करते हैं और इसके बाद अपने भाषण की महत्ता बताने लगते हैं ,गोष्ठी की महत्ता बताने लगते हैं। ऐसे आलोचकों को ध्यान में रखकर बाबा ने लिखा था ‘‘ काम नहीं आएगा/ चौथेपन का यह नाटक/बेकार जाएँगे प्रवचन सारे/आओ ,उठा लो आप भी चाट का दोना / लो जी, लो,इत्र के फाहे-/ भगतिनें लाई हैं/आँ हाँ ,इन्हें ना उतारो/ झूलने दो जरा-देर/मोगरे ती इकहरी लड़ियाँ वक्ष पर/ उतरने दो इन्हें छाया छवियों में/ आँ हाँ,इन्हें ना उतारो/ निःस्संकोच टेपित होने दो अपने आपको/ और भला कैसे होगा दूर /सांस्कृतिक सूनापन/अगली पीढ़ियों का !

2 COMMENTS

  1. सर,आपका यह लेख मुझे बहुत पसंद आया है…आपने बाबा के नवीन संदर्भो को प्रकाश में लाकर एक नवीन दृष्टिकोण से अवगत कराये…धन्यवाद

  2. कुछ दिन पहले लखनऊ गया था और नागार्जुन का ‘कोई भी’ काव्य संग्रह माँगा तो कुछ नहीं मिला . युनिवर्सल में एक चित्र लगा था और कुछ पंक्तियाँ थीं … “मैं नवयुग का दुर्वास …” काफी ढूँढा पर पता नहीं चला … अगर आपको पता हो तो बताएं …

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