नालंदा की विस्मृत विरासत की सुध

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अरविंद जयतिलक

nalandaयह सुखद है कि पूर्वी एशियाई सम्मेलन के दौरान विश्‍वप्रसिद्ध नालंदा विश्‍वविद्यालय को पुनर्स्‍थापित करने से जुड़ी परियोजना में मदद के लिए आस्ट्रेलिया, सिंगापुर, कंबोडिया, ब्रुनेई, न्यूजीलैंड, लाओ पीडीआर और म्यांमार ने अपनी स्वीकृति दे दी है। परियोजना में मदद के लिए सिंगापुर ने 60 लाख डॉलर, आस्ट्रेलिया और चीन ने 10-10 लाख डॉलर देने की बात कही है।

उल्लेखनीय है कि बिहार स्थित नालंदा विश्‍वविद्यालय का निर्माण उसी स्थान पर हो रहा है जहां इस ऐतिहासिक अकादमिक स्थल के भग्नावषेश मौजूद हैं। वर्ष 2005 में तत्कालीन राष्‍ट्रपति डा0 एपीजे अब्दुल कलाम ने इस प्रतिष्ठित संस्थान को पुनर्स्‍थापित करने का विचार दिया था। उसके बाद केंद्र सरकार ने नालंदा विश्‍वविद्यालय पुनर्स्‍थापना से जुड़े विधेयक को राज्यसभा से पारित कराया। अब अच्छी बात यह है कि सरकार इस महान विश्‍वविद्यालय की पुनर्स्‍थापना में विश्‍व समुदाय विशेष रुप से दक्षिण-पूर्व एशिया के उन देशों को जोड़ने की पहल कर रही है जिनका भारत से सांस्कृतिक लगाव रहा है। विश्‍वविद्यालय पुनर्स्‍थापना से जुडी इस परियोजना में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित अर्थशास्त्री अमर्त्‍य सेन के अलावा कई अन्य ख्यातिलब्ध अंतर्राष्‍ट्रीय विद्वान शामिल हैं। विश्‍वविद्यालय की गवर्निंग बॉडी में पूर्वी एशिया (ईएएस) के पांच प्रतिनिधियों को शामिल करने की भी चर्चा है। निश्चित रुप से इस पहल से विश्‍वविद्यालय की ख्याति बढ़ेगी। अगले साल से शैक्षिक सत्र के शुरुआत होने की भी चर्चा जोरों पर है।

ऐतिहासिक रुप से बौद्ध शिक्षा केंद्र नालंदा की एक शानदार गौरवमयी पृष्‍ठभूमि है। 5 वीं से 7 वीं शताब्दी के मध्य यह विश्‍वविद्यालय अपनी ज्ञान ज्योति से संपूर्ण संसार को आलोकित करता रहा। लेकिन कालांतर में वैष्‍णव धर्म का उत्थान, विश्‍वविद्यालय को मिलने वाली अनुदान में कमी और विदेशी आक्रमणों ने षिक्षा के इस महान केंद्र को धूल-धुसरित कर दिया। भौगोलिक रुप से नालंदा विश्‍वविद्यालय दक्षिणी बिहार स्थित राजगिरि के समीप है। इसके ध्वंसावशेष आज भी बड़ागांव गा्रम तक फैले हुए हैं। इतिहास में गुप्तवंशी शासक कुमार गुप्त (414 से 455) द्वारा इस बौद्ध शिक्षा केंद्र को दान दिए जाने का उल्लेख मिलता है। चीनी यात्री ह्नेनसांग ने अपने विवरण में लिखा है कि 470 ई0 में गुप्त सम्राट नरसिंह गुप्त बालादित्य ने नालंदा में एक सुंदर मंदिर निर्मित करवाकर इसमें 80 फीट ऊंची तांबे की बुद्ध प्रतिमा को स्थापित करवाया। चीनी यात्री इत्सिंग के विवरण से भी नालंदा विश्‍वविद्यालय के बारे में भरपूर जानकारी मिलती है। उसने इसकी विशालता का उल्लेख करते हुए यहां छात्रों की संख्या 3000 बताया है। जिस समय चीनी यात्री ह्नेनसांग नालंदा विश्‍वविद्यालय में षिक्षा ग्रहण कर रहा था, उस समय विद्यार्थियों की संख्या करीब 10000 और शिक्षकों की संख्या 1500 थी। यह इस बात का प्रमाण है कि नालंदा विश्‍वविद्यालय अति विशाल था। उल्लेखनीय है कि ह्नेनसांग कन्नौज के राजा हर्षवर्धन के शासनकाल में भारत आया था। उसने करीब 10 वर्षों तक भारत का भ्रमण किया और लगभग 6 वर्षों तक नालंदा विश्‍वविद्यालय में अध्ययन किया। उसके ग्रंथ सी-यू-की से तत्कालीन भारतीय समाज व संस्कृति के बारे में भरपूर जानकारी मिलती है। ह्नेनसांग नालंदा विष्वविद्यालय शिक्षक परिवार का हिस्सा भी रहा। कहा जाता है कि वह अपने साथ भारत से कोई 150 बुद्ध के अवशेषों, सोने, चांदी, व संदल द्वारा बनी बुद्ध की मूर्तियां और 657 पुस्तकों की पाण्डुलिपियों को ले गया। यह भगवान बुद्ध में उसकी आस्था का ही प्रमाण है।

महान् विद्वान शीलभद्र नालंदा विश्‍वविद्यालय के कुलपति थे। उन्होंने अपने ज्ञानपूंज से नालंदा विश्‍वविद्यालय को जगत प्रसिद्ध किया। ह्नेनसांग ने अपने विवरण में अपने समय के महान विद्वान शिक्षकों-धर्मपाल, चंद्रपाल, गुणपति, स्थिरमति, प्रभामित्र, जिनमित्र, आर्यदेव, दिगनाग और ज्ञानचंद्र इत्यादि का उल्लेख किया है। ये शिक्षक अपने विषयों के साथ-साथ अन्य विषयों में भी पारंगत, निपुण और ज्ञानवान थे। नागार्जुन, असंग, वसुबंधु जैसे महान बौद्ध महायानी इसी विश्‍वविद्यालय की उपज थे। असंग की महायान सूत्रालंकार, वसुबन्धु का अभिधर्म कोश और नागार्जुन की दिव्यावदान, महावस्तु, मंजूश्रीमूलकल्प, प्रज्ञापारमिता, शतसाहस्त्रका और माध्यमिका सूत्र जैसी रचनाएं नालंदा विष्वविद्यालय के ज्ञान की ही देन है। नालंदा विश्‍वविद्यालय में बौद्ध धर्म एवं दर्शन के अतिरिक्ति न्याय, तत्वज्ञान, व्याकरण एवं विज्ञान की भी शिक्षा दी जाती थी। विश्‍वविद्यालय प्रशासन जिना कठोर था, शिक्षा को लेकर उतना ही जागरुक, संवेदनशील और सतर्क था। यह इसी से समझा जा सकता है कि प्रवेश के इच्छुक विद्यार्थियों को पहले द्वारपाल से वाद-विवाद करना पड़ता था और फिर उसमें उत्तीर्ण होने पर ही उन्हें प्रवेश मिलता था। छात्रों को रहने के लिए छात्रावास की सुविधा उपलब्ध थी। विश्‍वविद्यालय को चलाने के लिए राजाओं द्वारा विशेष अनुदान दिया जाता था। लेकिन विश्‍वविद्यालय के संचालन में उनका किसी तरह का हस्तक्षेप नहीं था। आश्‍चर्य यह कि बौद्ध धर्म न अपनाने वाले शासक भी इस विश्‍वविद्यालय को भरपूर अनुदान देते थे। यह शिक्षा के प्रति उनकी अनुरक्ति को ही रेखांकित करता है। विश्‍वविद्यालय को सुचारु रुप से चलाने के लिए हर्षवर्धन ने 200 ग्रामों का अनुदान दिया था जिससे पर्याप्त राजस्व प्राप्त होता था। वैष्‍णव धर्म के अनुयायी गुप्त शासक भी नालंदा विश्‍वविद्यालय को भरपूर अनुदान देने में अपना गौरव समझते थे।

नालंदा विश्‍वविद्यालय का प्रांगण बहुत बड़ा था। उत्खनन से प्राप्त अवशेषों से जानकारी मिलती है कि विश्‍वविद्यालय में व्याख्यान हेतु छोटे-बड़े कई कमरे थे। पुरातत्वविदों का निष्‍कर्ष है कि यहां 7 बड़े और तकरीबन 300 से अधिक छोटे कक्ष थे। शेलेन्द्र शासक बालपुत्र देव द्वारा तत्कालीन मगध के राजा देवपाल की अनुमति से नालंदा में जावा से आए भिक्षुओं के निवास के लिए एक विहार के निर्माण का भी उल्लेख है। इस अंतर्राष्‍ट्रीय ख्याति प्राप्त विश्‍वविद्यालय में भारत के अलावा जावा, चीन, तिब्बत, श्रीलंका, एवं कोरिया के विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करने आते थे। विद्यार्थियों के बीच बौद्ध दर्शन के अलावा अन्य विषयों इतिहास, भूगोल, तर्कशास्त्र और विज्ञान पर भी वाद-विवाद होता था। लेकिन बौद्ध धर्म की महायान शाखा का विशेष रुप से अध्ययन-अध्यापन होता था। शिक्षा पालि भाषा में दी जाती थी। यहां हस्तलिखित ग्रंथों का एक नौ मंजिला ‘धर्मगज’ नामक पुस्तकालय था जो तीन बड़े भवन रत्नसागर, रत्नोदधि और रत्नरंजक नाम से विभाजित था। समय की जानकारी के लिए जलघड़ी का उपयोग होता था। इस महान बौद्ध शिक्षा केंद्र का विनाश कैसे हुआ इस पर अभी धुंध छाया हुआ है। हालांकि इसकी ऐतिहासिकता को जानने के लिए पुरातत्व विभाग ने कई बार उत्खनन कराया लेकिन किसी ठोस निष्‍कर्ष पर नहीं पहुंचा। बहरहाल उसके ध्वंसावशेषों से यही प्रतीत होता है कि शिक्षा का यह महान केंद्र किसी अग्निकांड का ग्रास बना। सच्चाई जो हो लेकिन नालंदा विश्‍वविद्यालय की पुनर्स्‍थापना से भारत समेत दक्षिण एशिया की सांस्कृतिक विरासत को सहेजने में मदद मिलेगी। साथ ही चीन, जापान, कंबोडिया, इण्डोनेशिया, लाओस, मलेशिया, फिलीपींस, श्रीलंका, कोरिया, वियतनाम और थाईलैंड जिनका भारत से ऐतिहासिक सांस्कृतिक लगाव रहा है उनसे संबंध सुधरेंगे। यह सच्चाई है कि वर्तमान दौर में इन देशों से भारत के रिश्‍ते बहुत मधुर नहीं हैं।

लेकिन सच यह भी है कि इन देशों से संबंधों का एक लंबा इतिहास भी है। नालंदा विश्‍वविद्यालय की पुनर्स्‍थापना में उनका सहयोग रिश्‍तों को एक नया आयाम दे सकता है। इससे दक्षिण-पूर्व एशिया में सामाजिक और सांस्कृतिक विकास को सुनिश्चित करने और शांति एवं सुरक्षा को प्रोत्साहित करने में मदद मिलेगी। उचित होगा कि नालंदा विश्‍वविद्यालय के साथ-साथ दक्षिण एशिया के उन सभी शैक्षिक, कलात्मक और सांस्कृतिक केंद्रों की पहचान कर पुनर्जीवित किया जाए जो संस्कृतियों को जोड़ती हैं। इससे देशों के बीच घनिष्‍ठता बढे़गी और भावनात्मक लगाव पैदा होगा।

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