नामवर सिंह के भक्त और लोकसमाज के लोकसेवक

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

हिन्दी में अनेक आलोचक हैं जो अभी भी चेतना की आदिम अवस्था में जी रहे हैं. कुछ ऐसे हैं जो सचेत रूप से आदिम होने की चेष्टा कर रहे हैं। समाज जितना तेजी से आगे जा रहा है वे उतनी ही तेजी से पीछे जा रहे हैं। हमें इस फिनोमिना पर गौर करना चाहिए कि हिन्दी का आलोचक और शिक्षक तेजी से कूपमंडूक क्यों बन रहा है? कूपमंडूकता का आलम यह है कि जिनकी ज्यादा बेहतर विश्वविद्यालय, यानी जेएनयू जैसे विश्वविद्यालय , में शिक्षा हुई है वे और भी ज्यादा कूपमंडूक बनते जा रहे हैं।

यह भी कह सकते हैं हिन्दी के कुछ आलोचकों में जल्दी -जल्दी कूपमंडूक बनने की होड़ लगी है। कहीं इस कूपमंडूकता की जड़ें हमारे हिन्दी के पठन-पाठन में तो नहीं हैं? यह भी हो सकता है हमारी हिन्दी साहित्य की शिक्षा-दीक्षा खास किस्म का हनुमान तैयार करती हो? हमें सोचना चाहिए कि आखिरकार वे कौन से कारण हैं जिनके कारण हिन्दी का सबसे शिक्षित तबका तेजी से कूमंडूकता, अतीतप्रेम और पुराने के नशे में मजा लेने लगा है।

इस भूमिका को बनाने का एक कारण है, पिछले दिनों कोलकाता में भारतीय भाषा परिषद ने एक सेमीनार किया जिसमें हिन्दी के एक नामी ‘आलोचक’ को बुलाया गया और उन्होंने बड़ी ही ‘विद्वतापूर्ण शैली’ में उन्होंने अपनी बातें रखी। वह ‘आलोचक’ मेरा दोस्त है, हम साथ पढ़े हैं, वे समझदार और संवेदनशील भी हैं। गुरूभक्ति में उन्होंने सभी साथियों को पछाड़ा है और जितने भी आशीर्वाद गुरूवर नामवर सिंह से मिल सकते थे वे प्राप्त किए हैं।

वे नामवर सिंह (जो हिन्दी के द्रोणाचार्य हैं) के अर्जुन हैं। यह सच है गुरूवर नामवर सिंह ने हिन्दी के द्रोणाचार्य के रूप में जितने अर्जुन पैदा किए हैं उससे ज्यादा एकलव्य पैदा किए हैं। जिन्हें कभी गुरू का आशीर्वाद नहीं मिला, हां, गुरूदक्षिणा लेने में गुरूवर ने कभी देरी नहीं की।

गुरूवर नामवर सिंह का व्यक्तित्व महान है। जो उनके महान व्यक्तित्व के प्रभाव में आकर भक्ति करता है वह कूपमंड़ूकता के मार्ग पर जाता है। दूसरी ओर उनके व्यक्तित्व की भक्ति किए बिना जो उनका सम्मान करते रहे हैं वे शिष्य वैज्ञानिकचेतना के करीब पहुँचे हैं। नामवर सिंह के व्यक्तित्व के इस दुरंगे प्रभाव की आमतौर पर हिन्दी में अनदेखी हुई है। कहने का अर्थ है नामवर सिंह की शिक्षा में शिष्य को मनुष्य और बंदर एक ही साथ बनाने की विलक्षण क्षमता है। समस्या यह है गुरूवर नामवर सिंह से शिष्य क्या सीखता है? किस परंपरा में जाता है। बंदर, भक्त और अर्जुन की परंपरा में जाता है या वैज्ञनिकचेतना संपन्न आधुनिक और मार्क्सवादी की परंपरा में जाता है।

यह सच है गुरूवर नामवर सिंह की दो परंपराएं हैं, एक भक्त परंपरा जो सीधे भक्ति साहित्य तक ले जाती है और दूसरी मार्क्सवादी परंपरा जो अत्याधुनिक विषयों और आधुनिक समाज की समस्याओं की ओर ले जाती है। जिन शिष्यों ने भक्तिमार्ग का अनुसरण किया वे लेखन में पुराने विषयों के प्रेमी बने। अतीत के प्रचारक बने। वे वर्तमान में लौटते ही नहीं हैं। वे सत्ता के चाकर बने। वर्चस्वशाली ताकतों का हिस्सा बने। भीड़ बने।

नामवर सिंह की कक्षा में हमेशा भक्त और आलोचक दो कोटि के विद्यार्थी रहे हैं। भक्तों को मेवा मिली, डिग्री मिली, ग्रेड मिले, पद मिले, पुरस्कार मिले, लेकिन ज्ञान नहीं मिला। आलोचक शिष्यों को ज्ञान मिला, सम्मान मिला, आलोचनात्मक विवेक मिला, संघर्ष का रास्ता मिला, चुनौतियां मिलीं और जनता का बेइंतिहा प्यार मिला।

गुरूवर नामवर सिंह के जो आलोचक शिष्य थे वे उनकी बातों पर विवाद करते थे, उनकी बातों, धारणाओं पर असहमति व्यक्त करते थे। इस कारण उन्हें अनेकबार क्षति भी उठानी पड़ती थी और क्षति का सिलसिला बाद में भी बना रहता था। इसके बावजूद नामवर सिंह की विद्वतापूर्ण परंपरा का विकास इन्हीं आलोचक शिष्यों ने किया, भक्त शिष्यों ने नहीं किया।

गुरूवर नामवर सिंह की शिष्य परंपरा का जिक्र करना इसलिए भी जरूरी है कि उसमें जो कूपमंडूक शिष्य रहे हैं, जो इन दिनों गुरूकृपा और सिंहों (स्व.विश्वनाथप्रताप सिंह, अर्जुन सिंह, दिग्विजय सिंह आदि) की कृपा से परमपदों को प्राप्त कर चुके हैं, वे इन दिनों ज्ञान में दूर की कौडियां फेंक रहे हैं उनमें से ही एक जनाब पिछले दिनों कोलकाता आए और बताकर गए कि 12वीं सदी में ही लोकसमाज था और उस लोकसमाज की अभिव्यक्ति का भक्ति साहित्य लिखा गया। अब बताइए इस अतीतप्रेम का क्या करें?

हमारे बीच में अतीतपूजकों की भीड़ है और वे सब जगह उपलब्ध हैं। श्रोताओं ने वाह-वाह की, अध्यक्षता कर रहे एक स्थानीय विद्वान ने प्रशंसा करते-करते चरण ही पकड़ लिए। मेरी समस्या यह नहीं है कि बोलने वाले कितने बड़े विद्वान हैं, विद्वान तो वे हैं ही, वे जेएनयू में प्रोफेसर रहे हैं, इन दिनों लोकसंघसेवा आयोग के सदस्य हैं। उनका नाम पुरूषोत्तम अग्रवाल है। वे सुंदर वक्ता हैं। लोग उनकी भक्ति करें और प्रशंसा में बिछ जाएं, मुझे इससे भी कोई शिकायत नहीं है। मेरी समस्या यह है कि भारत में 12वीं सदी में लोकसमाज कहां से पैदा हो गया?

आज के जमाने में कोई व्यक्ति, वह भी जेएनयू का पढ़ा-लिखा, वहां का भू.पू. प्रोफेसर जब यह कहे तो निश्चित रूप से चिंता की बात है। तथ्य, सत्य और सामाजिक इतिहास इन तीनों ही दृष्टियों से यह बात गलत और आधारहीन है। मजेदार बात यह है कि यह सच्चाई किसी भी मध्यकाल के मार्क्सवादी और गैर मार्क्सवादी इतिहासकार को नजर नहीं आयी। स्वयं कार्ल मार्क्स, एंगेल्स को एशियाई उत्पादन पद्धति का विश्लेषण करते हुए दिखाई नहीं दी। देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय से लेकर के.दामोदरन तक किसी भी दर्शनशास्त्री को नजर नहीं आयी। रामशरण शर्मा से लेकर रोमिला थापर, मोहम्मद हबीब से लेकर इरफान हबीब तक किसी को भी 12 वीं सदी में लोकसमाज की धारणा हाथ नहीं लगी।

तकरीबन सभी बड़े इतिहासकारों ने भक्ति आंदोलन पर काम किया है उन्हें भी वहां लेकसमाज दिखाई नहीं दिया। यहां तक कि समाजशास्त्री धूर्जटि प्रसाद मुखर्जी को भी भक्ति आंदोलन के मूल्यांकन के क्रम में यह धारणा नजर नहीं आयी। मार्क्सवादी समाजशास्त्री टाम बाटमोर को भी दिखाई नहीं दी। मानवविज्ञानियों को भी यह बात नजर नहीं आयी और यह दूर की कौड़ी पुरूषोतम अग्रवाल को दिख गई है।

धन्य हैं वे और उनका ज्ञान। लोकसमाज समाज कभी औद्योगिक पूंजीवाद के बिना जन्म नहीं लेता। व्यापारिक पूंजीवाद में किसी भी देश में लोकसमाज नहीं बना है।

हिन्दी में पुरूषोत्तम अग्रवाल अकेले ‘आलोचक’ नहीं हैं जो 12वीं सदी में लोकसमाज खोज लाए हैं यह काम बड़े ही अवैज्ञानिक ढ़ंग से रामविलास शर्मा पहले कर चुके हैं। अन्य छुटभैय्ये आलोचक तो अनुकरण करके रामविलास शर्मा का भावानुवाद करते रहे हैं।

12वीं शताब्दी का भारत कैसा था और सामाजिक संरचनाएं कैसी थीं इस पर मध्यकाल के इतिहासकार अधिकारी विद्वानों ने इतना लिखा है कि उसे भी यदि गंभीरता से पुरूषोत्तम अग्रवाल ने पढ़ लिया होता तो उनका उपकार होता। लेकिन वे अतीतप्रेम और मौलिक खोज के चक्कर में जिन तर्कों के आधार पर 12 वीं सदी में लोकसमाज खोज रहे हैं वैसा और उससे भी सुंदर लोकसमाज तो वैदिककाल में भी है। ईसा के जमाने और देश में भी था। कुरान के रचनाकाल में था।

लोकसमाज एक समाजशास्त्रीय केटेगरी है। हिन्दी का आलोचक इसका बड़े ही चलताऊ ढ़ंग से इसका इस्तेमाल करता है और उसका यही चलताऊ ढ़ंग ही है जो उसे अवैज्ञानिक अवधारणात्मक समझ तक ले जाता है।

12 वीं सदी में लोकसमाज नहीं था बल्कि वर्ण व्यवस्था पर आधारित जाति समाज था। यह निर्विवाद सत्य है। जाति समाज में क्षय के लक्षण नजर आ रहे थे। लेकिन जाति संरचनाओं के सामाजिक आधार को कभी उस दौर में चुनौती नहीं दी गयी। भक्ति आंदोलन के कवियों के यहां जो जाति व्यवस्था का विरोध है वह एक मानसिक कोटि के रूप में है, भक्ति के कवि जातिप्रथा के सामाजिक आधार को कभी चुनौती नहीं देते। भौतिक तौर पर यह संभव भी नहीं था।

दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि लोकसमाज के उदय और विकास के लिए प्रकृतिविज्ञान का उदय जरूरी है। प्रकृतिविज्ञान की खोजों के पहले लोकसमाज, औद्योगिक पूंजीवाद जन्म नहीं लेता। कम से कम 12 वीं सदी में प्रकृतिविज्ञान का उदय सारी दुनिया में कहीं पर भी नहीं हुआ था। भारत में भी नहीं। प्रकृतिविज्ञान और आधुनिक विज्ञान की अन्य खोजों के कारण लोकसमाज के निर्माण की प्रक्रिया 18वीं सदी के आरंभ से दिखती है। उसके पहले नहीं।

1 COMMENT

  1. सरजी आपने नामवरसिंह को धूलधूसरित किया समझ में आया ,पुरषोत्तम अग्रवाल भी कहीं बहक गए तो उन्हें आपने डपट दिया किन्तु राम विलास शर्मा जी को आपने कठघरे में खड़ा किया वह क्यों? उन्होंने किसी सन्दर्भ विशेष में इसे रेखांकित किया हो तो बताएं . ये अपने जैसे अखाड़े के लतखौये की समझ में नहीं आया , मध्यकालीन इतिहास की ऐसी कोई महीन बिभाजक काल रेखा का निर्धारण, तत्सम्बन्धी लोकसमाज के बरक्स्स ,किसी भी प्रगतिशील इतिहासकार ने तत्कालीन समाज के कतिपय प्रगत जनाभिमुख ,मूल्यों से प्रेरित होकर भले ही किया हो किन्तु इसमें एतिहासिक द्वंदात्मकता कहीं आड़े नहीं आती .यदि मेरी समझ में कोई गड़बड़ हो तो कृपया दुरुस्त करें .

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