लंगड़ा आम का नामकरण कथा

mangoअशोक प्रवृद्ध

यूँ तो प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी के संसदीय निर्वाचन क्षेत्र बनारस आज भी बहुत-सी चीजों के लिए लोकप्रिय है, मशहूर है, तथापि जिस चीज के लिए वह सारे उत्तर भारत में प्रसिद्ध है, वह है बनारस का लंगड़ा आम, जिसे देखते ही लोगों के मुँह में पानी आ जाता है और वे उसे किसी भी कीमत पर खरीदने को तैयार हो जाते हैं। बनारस के लंगड़ा आम की जन्म-कथा भी रोचक है।

लंगड़ा आम का नामकरण कथा

 

लगभग ढाई सौ वर्ष पूर्व की घटना है। कहते हैं, बनारस के एक छोटे-से शिव-मन्दिर में एक साधु आया और मन्दिर के पुजारी से वहाँ कुछ दिन ठहरने की आज्ञा माँगी। मन्दिर परिसर में लगभग एक एकड़ जमीन थी, जो चाहर दीवारियों से घिरी हुई थी । साधु के पूछने पर पुजारी ने कहा, मंदिर परिसर में कई कक्ष हैं, किसी में भी ठहर जाएँ। साधु ने एक कमरे में अपनी धूनी रमा दी।

साधु के पास आम के दो छोटे-छोटे पौधे थे, जो उसने मन्दिर के पीछे अपने हाथों से रोप दिये। सुबह उठते ही वह सर्वप्रथम उनको पानी दिया करता, जैसा कि कण्व ऋषि के आश्रम में रहते हुए कालिदास की शकुन्तला नित्यप्रति किया करती थी। साधु ने बड़े मनोयोग के साथ उन पौधों की देखरेख की। वह चार साल तक वहाँ ठहरा। इन चार वर्षों में पेड़ काफी बड़े हो गये। चौथे वर्ष आम की मंजरियाँ भी निकल आयीं, जिन्हें तोड़कर उस साधु ने भगवान शंकर पर चढ़ायीं। फिर वह पुजारी से बोला, मेरा काम पूरा हो गया। मैं तो रमता जोगी हूं। कल सुबह ही बनारस छोड़ दूंगा। तुम इन पौधों की देखरेख करना और इनमें फल लगें, तो उन्हें कई भागों में काटकर भगवान शंकर पर चढ़ा देना, फिर प्रसाद के रूप में भक्तों में बांट देना, लेकिन भूलकर भी समूचा आम किसी को मत देना। किसी को न तो वृक्ष की कलम लगाने देना और न ही गुठली देना। गुठलियों को जला डालना, वरना लोग उसे रोपकर पौधे बना लेंगे। और वह साधु बनारस से चला गया।

मन्दिर के पुजारी ने बड़े चाव से उन पौधों की देखरेख की। कुछ समय पश्चात पौधे पूरे वृक्ष बन गये। हर साल उनमें काफी फल लगने लगे। पुजारी ने वैसा ही किया, जैसा कि साधु ने कहा था। जिन लोगों ने उस आम को प्रसाद के रूप में खाया, वे लोग उस आम के स्वाद के दीवाने हो गये। लोगों ने बार-बार पुजारी से पूरा आम देने की याचना की, ताकि उसकी गुठली लाकर वे उसका पौधा बना सकें, परन्तु पुजारी ने ऐसा करने से साफ इनकार कर दिया।

इस आम की चर्चा काशी नरेश के कानों तक पहुँची और वह एक दिन स्वयं वृक्षों को देखने राम-नगर से मन्दिर में आ पहुँचे । उन्होंने श्रद्धापूर्वक भगवान शिव की पूजा की और वृक्षों का निरीक्षण किया। फिर पुजारी के समक्ष यह प्रस्ताव रखा कि इनकी कलमें लगाने की अनुमति प्रधान-माली को दे दें। पुजारी ने कहा, आपकी आज्ञा को मैं भला कैसे टाल सकता हूँ। मैं आज ही सांध्य-पूजा के समय शंकरजी से प्रार्थना करूँगा और उनका संकेत पाकर स्वयं कल महल में आकर महाराज का दर्शन करूँगा और मंदिर का प्रसाद भी लेता आऊँगा।

इसी रात भगवान शंकर ने स्वप्न दिया, काशी नरेश के अनुरोध को मेरी आज्ञा मानकर वृक्षों में कलम लगवाने दें। जितनी भी कलमें वह चाहें, लगवा लें। तुम इसमें रुकावट मत डालना। वे काशीराज हैं और एक प्रकार से इस नगर में हमारे प्रतिनिधि स्वरूप हैं। दूसरे दिन प्रातकाल की पूजा समाप्त कर प्रसाद रूप में आम के टोकरे लेकर पुजारी काशी नरेश के पास पहुँचा। राजा ने प्रसाद को तत्काल ग्रहण किया और उसमें एक अलौकिक स्वाद पाया।

काशी नरेश के प्रधान-माली ने जाकर आम के वृक्षों में कई कलमें लगायीं, जिनमें वर्षाकाल के बाद काफी जड़ें निकली हुई पायी गयीं। कलमों को काटकर महाराज के पास लाया गया और उनके आदेश पर उन्हें महल के परिसर में रोप दिया गया। कुछ ही वर्षों में वे वृक्ष बनकर फल देने लगे। कलम द्वारा अनेक वृक्ष पैदा किये गये। महल के बाहर उनका एक छोटा-सा बाग बनवा दिया गया। कालान्तर में इनसे अन्य वृक्ष उत्पन्न हुए और इस तरह रामनगर में लंगड़े आम के अनेकानेक बड़े-बड़े बाग बन गये। आज भी जिन्हें बनारस के आसपास या शहर के खुले स्थानों में जाने का , घुमने का अवसर प्राप्त हुआ होगा, उन्हें लंगड़े आम के वृक्षों और बागों की भरमार नजर आयी होगी। हिन्दू विश्वविद्यालय के विस्तृत विशाल प्रांगण में लंगड़े आम के सैकड़ों पेड़ हैं।

 

साधु द्वारा लगाये हुए पौधों की समुचित देखरेख जिस पुजारी ने की थी, वह लंगड़ा था और इसीलिए इन वृक्षों से पैदा हुए आम का नाम लंगड़ा पड़ गया, और आज तक इस जाति के आम सारे भारतवर्ष में इसी नाम से अर्थात लंगड़ा आम की नाम से प्रसिद्ध हैं।

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अशोक “प्रवृद्ध”
बाल्यकाल से ही अवकाश के समय अपने पितामह और उनके विद्वान मित्रों को वाल्मीकिय रामायण , महाभारत, पुराण, इतिहासादि ग्रन्थों को पढ़ कर सुनाने के क्रम में पुरातन धार्मिक-आध्यात्मिक, ऐतिहासिक, राजनीतिक विषयों के अध्ययन- मनन के प्रति मन में लगी लगन वैदिक ग्रन्थों के अध्ययन-मनन-चिन्तन तक ले गई और इस लगन और ईच्छा की पूर्ति हेतु आज भी पुरातन ग्रन्थों, पुरातात्विक स्थलों का अध्ययन , अनुसन्धान व लेखन शौक और कार्य दोनों । शाश्वत्त सत्य अर्थात चिरन्तन सनातन सत्य के अध्ययन व अनुसंधान हेतु निरन्तर रत्त रहकर कई पत्र-पत्रिकाओं , इलेक्ट्रोनिक व अन्तर्जाल संचार माध्यमों के लिए संस्कृत, हिन्दी, नागपुरी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओँ में स्वतंत्र लेखन ।

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