आदि-अनादि संवाददाता नारद

-रमेश शर्मा-
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कुछ विधाएं ऐसी होती हैं जो कालजयी होती हैं। समय और परिस्थितियां उनकी जरूरत महत्व को प्रभावित नहीं कर पातीं। बस उनका नाम और रूप बदलता है। कहने-सुनने या उन्हें इस्तेमाल करने का अंदाज बदलता है लेकिन उनका मूल तत्व नहीं बदलता। पत्रकारिता ऐसी ही विधा है। पत्रकारिता करने वालों को पत्रकार कहें, संवाददाता कहें अथवा मीडियाकर्मी। यह नाम समय के बदलाव और तकनीक के विकास के कारण बदले। जब संचार के आधुनिक साधन नहीं थे, या संवाद संप्रेषण के लिये कागज-कलम का प्रयोग नहीं होता था, तब तक इस विधा से जुड़े लोग संवाददाता ही कहलाते थे। अपनी भावनाओं, अपनी जरूरतों या अपने अनुभव का संदेश देना और दूसरे से संदेश लेना प्रत्येक प्राणी का प्राकृतिक गुण है, स्वभाव है। अब वह ध्वनि में हो या संकेत में, सभी प्राणी ऐसा करते देखे जाते हैं। मनुष्य ने अपना विकास किया। उसने ध्वनि को पहले स्वर में बदला फिर शब्दों में और शब्दों को संवाद में। वह संवाद संप्रेषण करता है और ग्रहण भी। जीवन का दायरा बढ़ने के साथ संदेशों की जिज्ञासाएं भी बढ़ीं और आवश्यकताएं भी। नारद इसी आवश्यकता की पूर्ति करने वाले पहले संवाददाता प्रतीत होते हैं। हो सकता है नारद से पहले स्थानीय या क्षेत्रीय स्तर पर कुछ संवाददाता रहे हों किंतु उनका उल्लेख नहीं मिलता। एक संवाददाता के रूप में पहला उल्लेख केवल नारदजी का ही मिलता है। उनका संपर्क संसार के हर कोने में, हर प्रमुख व्यक्ति से मिलता है।

भारतीय वांगमय की ऐसी कोई पुस्तक नहीं जिसमें नारद का जिक्र न हो। प्रत्येक पुराण कथा में नारद एक महत्वपूर्ण पात्र हैं, वे घटनाओं को केवल देखते भर नहीं हैं बल्कि उन्हें एक सकारात्मक और सृजनात्मक दिशा देने में एक महत्वपूर्ण भूमिका भी निभाते हैं। संसार में घटने वाली हरेक घटना एवं व्यक्ति का विवरण उनकी जुबान पर होता है। वे हर उस स्थान पर दिखाई देते हैं जहां उनकी जरूरत होती है। वे कहीं जाने के लिये आमंत्रण की प्रतीक्षा नहीं करते और न संवाद संप्रेषण के लिये किसी प्रेस-नोट की। वे अपनी शैली में संवाद तैयार करते हैं और संप्रेषित करते हैं। उनका कोई भी संवाद निरर्थक नहीं होता। हरेक संवाद सार्थक है और समाज को दिशा देने वाला। उनकी प्रत्येक गतिविधि प्रत्येक क्रिया आज भी सार्थक है और सीखने लायक।

नारद जी के बारे में माना जाता है कि कभी किसी स्थान पर रुकते नहीं थे, सदैव भ्रमणशील रहते थे। इसका संदेश है कि पत्रकारों अथवा मीडिया कर्मियों को भी सदैव सक्रिय रहना चाहिये। समाचार या संवाद के लिये किसी एक व्यक्ति अथवा एक स्थान पर निर्भर न रहें। आज के मीडिया में विसंगतियां केवल इसलिये हैं कि मीडियाकर्मी अधिकांश समय पार्टी मुख्यालय, शासन मुख्यालय अथवा प्रवक्ताओं पर आश्रित हो गये। उनके अपने संवादसूत्र कम होते हैं। बड़े-बड़े स्टिंग ऑपरेशन अथवा स्कैंडलों का भंडाफोड़ भी इसलिये हो पाया कि पत्रकारों ने उनसे एप्रोच की। जबकि नारद जी के मामले में ऐसा नहीं था। उनकी दृष्टि की तीक्ष्णता अथवा श्रवण शक्ति की अनंतता का आशय है कि विभिन्न क्षेत्रों में उनके सूत्र कायम रहे होंगे। उनका अपना नेटवर्क इतना तगड़ा रहा होगा कि उन्हें प्रत्येक महत्वपूर्ण सूचना समय पर मिल जाती थी। नारद जी का समय-समय पर नेमीसारण्य में ऋषियों की सभा में, कैलाश पर शिव के ज्ञान संग में जाने, पुलस्थ्य से अभिराम (परशुराम) कथा गरुण से रामकथा सुनने अथवा वद्रिकारूय में तप करने के प्रसंग मिलते हैं। इन प्रसंगों से संदेश है कि मीडियाकर्मियों को अपने लिये निर्धारित कामों के बीच में समय निकालकर स्वयं के लिये ज्ञानार्जन का काम भी करना चाहिये। तप करने का अर्थ कुछ दिनों के लिये थोड़ा हटकर मेडीटेशन हो सकता है। हम अपने सीमित ज्ञान से असीमित काम नहीं कर सकते। जिस प्रकार कम्प्यूटर के सॉफ्टवेयर को डाटा अपडेशन की जरूरत होती है, ठीक उसी प्रकार हमारे मस्तिष्क को भी ताजी जानकारियों, बदली परिस्थिति के अनुरूप स्वयं को अपडेट करने की जरूरत होती है। जिन पत्रकारों ने ऐसा नहीं किया वे आउट ऑफ डेट हो गए। नारद युगों तक इसलिये प्रासंगिक रहे कि ऋषियों के पास जाकर स्वयं को अपडेट करते रहे। ऋषियों के पास जाने से उनको दोहरा लाभ होता था। एक तो वे ज्ञान विज्ञान की दृष्टि से अपडेट होते थे दूसरी उन्हें संसार की सूचनाएं मिलती थीं। उस जमाने में ऋषि आश्रम सामाजिक गतिविधियों, संस्कार, शिक्षा और व्यवस्थात्मक मार्गदर्शन का केन्द्र होते थे। आज भी ऐसे व्यक्ति हैं जिनके पास अनुभव है, वे चलती-फिरती संस्थाएं हैं और उनका जनसंपर्क बहुत है। यदि मीडियाकर्मी उनसे मिलेंगे, कुछ वक्त उनके साथ गुजारेंगे तो सूचनाएं मिलेंगी। स्टोरी के नये आइडिये मिलेंगे और अनुभव का लाभ मिलेगा सो अलग। इसी तरह आज की भागदौड़ से भरी जिंदगी में बहुत तनाव है, काम्पटीशन है, जिससे तनाव होता है। इसका निराकरण मेडिटेशन से होता है जो उस जमाने में तप के रूप में जाना जाता था जो नारद वद्रयकाश्रम में जाकर करते थे।

नारद जी का संपर्क व्यापक था। वे देवों में जाते थे और दैत्यों में भी। वे गंधर्वों के बीच भी जाते और असुर-राक्षसों के पास भी। वे धरती पर मनुष्यों के बीच भी पहुंचते थे एवं नागों-मरुतों के बीच भी। उनका सब समान आदर करते थे। ऐसे उदाहरण तो हैं कि किसी को उनका आना पसंद न था लेकिन ऐसा एक भी प्रसंग नहीं है कि कहीं उनका अपमान हुआ हो। इसकी नौबत आने से पहले ही वह वहां से चल देते थे। उनकी इस शैली से आज के मीडियाकर्मियों को संदेश है कि वे अपना संपर्क कायम रखें। कोई भी उन्हें दुश्मन न समझे। यदि किसी के विरुद्ध भी हो तो भी चेहरे से, भाव-भाषा से न झलके। भावनाएं चाहे जैसी हों लेकिन व्यवहार के स्तर पर सबसे समान व्यवहार करें। सबसे मीठा बोलो, सबको लगना चाहिये कि वे उनके हित की बातें कर रहे हैं। नारद जी के चरित्र से एक बात साफ झलकती है, वह कि नारद जी का समर्पण नारायण के प्रति था। वे अधिकांश सूचनाएं नारायण केा ही दिया करते थे। उन्हीं का नाम सदैव उनकी जुबान पर होता था और उनके विरुद्ध षड्य़ंत्र करने वालों के विरुद्ध योजनापूर्वक अभियान भी चलाया। उनके इस गुण में दो विशेषताएं साफ हैं एक तो उन्होंने नारायण के प्रति अपना समर्पण नहीं भुलाया और दूसरा यह कि जब उन्होंने नारायण के विरोधियों के विरुद्ध अभियान चलाया तो यह तथ्य अंत तक किसी को पता नहीं चला और न उन्होंने इसका श्रेय लेने का प्रयास किया। इसका उदाहरण हम हिरण्याकश्यपु के प्रसंग में देख सकते हैं। हिरण्याकश्यपु की पत्नी कपादु को नारद जी ने ही शरण दी। उन्हीं के संरक्षण में प्रहलाद का जन्म हुआ उन्होंने ही प्रहलाद को नारायण के प्रति समर्पण की शिक्षा दी। इतना बड़ा अभियान बहुत धीमी गति से वर्षों चला। और जब प्रहलाद के आव्हान पर भगवान नरसिंह ने हिरण्याकश्यपु का वध किया तब नारद वहां दिखाई नहीं देते। स्वयं श्रेये लेने का प्रयास नहीं करते, वे लग जाते हैं किसी दूसरे अभियान में। इस प्रसंग में आज के मीडियाकर्मियों या पत्रकारों को संदेश है कि वे सदैव सत्य के संस्थापकों की लाइजनिंग करें। सत्य के विरोधी और अहंकारी की ताकत कितनी भी प्रबल क्यों न हो उससे भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है, बल्कि उसी के बीच से रास्ता निकाला जाता है। यदि कोई अहंकारी है, अराजकतत्व है जिससे राष्ट्र को, संस्कृति को और सत्य को हानि हो रही है तब उसके परिवार में घुसकर सूत्र बनाना, संवाद संग्रह करना बड़ी युक्ति और धीरज से होना चाहिये वह भी श्रेय लेने की लालसा से दूर रहकर। जैसा नारद जी ने किया लेकिन आज उलटा हो रहा है। अराजक तत्वों की, आतंकवादियों की या नक्सलवादियों की मीडियाकर्मियों के माध्यम से जितनी सूचनाए शासन तक जाती हैं, उससे ज्यादा उन्हें मिल जाती हैं। यही कारण है कि उनके हमलों से जन सामान्य आक्रांत हो रहा है।

नारद जी की इतनी विशेषताएं होने के बावजूद उनके चरित्र की समाज में नकारात्मक प्रस्तुति की गई है। उन्हें लड़ाने वाला और इधर की बात उधर करने वाला माना जाता है। इसका कारण संभवत: दो हो सकते हैं। एक तो यह कि भारत लगभग एक हजार वर्ष तक गुलाम रहा। कोई भी समाज गुलाम तब रहता है जब उस समाज या देश के संस्कार, संगठन, स्वाभिमान और शक्ति खत्म हो जाये। इसके लिये जरूरी है कि उसे उसकी जड़ों से दूर किया जाये। उसके गौरव प्रतीकों की या तो जानकारी न दी जाये अथवा विकृत करने दी जाये। भारत में योजनापूर्वक भारतीय महापुरुषों को, गौरव के प्रतीकों को विकृत करके प्रस्तुत किया गया। नारद जी उसमें से एक हैं। कृष्ण कर्मेश्वर हैं, योगेश्वर हैं, नीतेश्वर हैं लेकिन उनके रास के प्रसंगों के अतिरिक्त चर्चा नहीं होती। परशुराम जी के चरित्र को कैसा प्रस्तुत किया जाता है, यह किसी से छिपा नहीं है। राम के चरित्र को कल्पना बताई जाती है जबकि विदेशी आक्रांताओं को महान कहकर महिमामंडित किया जाता है। इसका कारण यह हो सकता है कि हम अपने बच्चों को ऐसा चरित्र समझाने से बचना चाहते हैँ जो यश-ऐश्वर्य के साधन अर्जित करने के बजाय चौबीस घंटे सेवा में लगा रहे। आज की पीढ़ी इस वास्तविकता को समझ रही है और चरित्रों का अन्वेषण करके सत्य सामने ला रही है। नारद जी के चरित्र पर भी होने वाले कार्यक्रम, संगोष्ठियां इस दिशा में एक महत्वपूर्ण पहल हैं।

नारद जी के भक्तिसूत्र और नीतिसूत्र भी हैं। उनके नीतिसूत्र में राजकाज चलाने, दंड देने आदि की बाते हैं। जो आज के पत्रकारों को इस बात का संदेश है कि वे अपने अध्ययन, अनुभव और चिंतन के आधार पर कोई ऐसा संदेश समाज को दे जो आने वाली पीढ़ियों का मार्गदर्शन कर सकें। आज के कितने पत्रकार हैं, जो अखबार से हटते ही या टीवी चैनल से दूर होते ही अप्रासंगिक हो जाते हैं। इसका कारण यह है कि उनका जीवन अध्ययन कम होता है, राष्ट्रबोध कम होता है इसलिये अनुभव परिपक्व नहीं होता। नारद जी जीवनभर अपना काम करने के साथ-साथ अध्ययन भी करते रहे इसीलिये वे भक्तिसूत्र और नीतिसूत्र तैयार कर सके। आज हजारों-लाखों वर्षों बाद भी नारद जी का चरित्र हमारे लिये आदर्श है। तकनीकी विकास के बावजूद आज के मीडियाकर्मियों के लिये मार्गदर्शक भी है।

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