राष्ट्रपिता बनाम राष्ट्रपितामह – स्वामी दयानंद

dayanandमहाशिवरात्रि के पावन पर्व का सम्बन्ध उस महापुरुष ( स्वामी दयानंद सरस्वती ) से भी है जिसने लगभग डेढ़ सौ वर्ष पूर्व के मृतप्राय भारत में चेतना और बौद्धिकता के प्राण फूंके। टंकारा (गुजरात ) के मंदिर में शिवलिंग पर चढ़ा प्रसाद चूहे को खाते देख सच्चे शिव की खोज के नाम पर आज ही के दिन से उस यात्रा की शुरुआत हुई जिसकी परिणति भारतीय समाज में वैचारिक क्रांति के रूप में हुई। प्रस्तुत है उस क्रांति का संक्षिप्त परिचय।

 

स्वामी दयानंद सर्व- प्रथम हैं

डा रवीन्द्र अग्निहोत्री

” गाँधी जी राष्ट्रपिता हैं तो दयानंद राष्ट्रपितामह । ” स्वतन्त्रता सेनानी डा. पट्टाभि सीतारमैया

स्वामी दयानंद (1824 – 1883) का जन्म जिस युग में हुआ था उसे हमारे इतिहास में सांस्कृतिक जागरण काल कहा जाता है। उस समय भारतीय समाज लगभग हर क्षेत्र में पतन के गहरे गर्त में धंसा पड़ा था। हज़ारों वर्ष बाद हमारे सौभाग्य से इस काल में ऐसे अनेक महापुरुषों ने जन्म लिया जिन्होंने विभिन्न स्रोतों से शक्ति जुटाकर समाज के जीवन में ऊर्जा का संचार किया और इसे प्रगति के पथ पर अग्रसर किया। इन महापुरुषों में स्वामी दयानंद सरस्वती का महत्वपूर्ण स्थान है। सामाजिक जीवन के अनेक क्षेत्र तो ऐसे हैं जिनमें उन्होंने ही सबसे पहली बार जागरण का शंखनाद किया, और समाज को वैचारिक दृष्टि से झकझोर दिया।

स्वामी दयानंद की विशिष्टता :

फ्रांसीसी लेखक रोमां रोलां ने लिखा है, ” उस समय भारत में पश्चिमीकरण अपनी सीमा से बहुत आगे बढ़ चुका था । ” इस पश्चिमीकरण के मुख्य साधन थे – अंग्रेजी शिक्षा और ईसाई धर्म (पंथ) का प्रचार । इसके दुष्परिणाम स्पष्ट थे। जिस शिक्षा का मुख्य उद्देश्य था व्यक्ति का चरित्र निर्माण करते हुए उसे ज्ञानवान, विवेकशील और स्वावलंबी बनाना, उसका उद्देश्य अब हो गया कुछ तथ्य रटकर दो-तीन घंटों की लिखित परीक्षा पास करना , नौकरी की तलाश करना और अधिक से अधिक धन कमाना। इसी पर टिप्पणी करते हुए अकबर इलाहाबादी ने लिखा था,

क्या बताएं यार क्या कारे नुमायाँ कर गए,

बी. ए. किया, नौकर हुए, पेंशन मिली, फिर मर गए।

ईसाई मिशनरियां अपना धर्मप्रचार एवं धर्मांतरण का काम जोर-शोर से कर रही थीं और इसके लिए हिन्दुओ के धर्म, धर्मग्रंथों , सामाजिक प्रथाओं आदि की सार्वजनिक रूप से अपमान जनक शब्दों में निंदा करती थीं ताकि हिन्दुओं के मन में अपने धर्म, धर्मग्रंथों और अतीत के प्रति गर्व के स्थान पर शर्म का भाव विकसित हो। मिशनरियों को परोक्ष रूप से सरकारी संरक्षण भी प्राप्त था। विडम्बना यह थी कि तत्कालीन सभी समाज सुधारक उसी अंग्रेजी शिक्षा में दीक्षित थे और ईसाइयत के प्रशंसक थे , फिर चाहे वे बंगाल के राजा राम मोहन रॉय, द्वारकानाथ टैगोर, देवेन्द्र नाथ टैगोर , केशव चन्द्र सेन आदि ब्रह्म समाज के नेता हों या महाराष्ट्र के डा. आत्माराम पांडुरंग जैसे प्रार्थना समाज के नेता हों। इसी कारण समाज सुधार के उनके प्रयास ईसाइयत से प्रेरित और हिन्दू समाज तक सीमित थे। यह भी स्मरणीय है कि इन्होंने अपने प्रचार की शुरुआत आवासों में गिने-चुने लोगों के बीच गोष्ठियां आयोजित करके की। बाद में जब इनकी प्रचार सामग्री, पत्रिकाएं आदि छपने लगीं तब गोष्ठियों का आकार भी बढ़ने लगा, इसके बावजूद होती वे बंद कमरों में ही थीं। ये लोग किसी न किसी रूप में अँगरेज़ सरकार से जुड़े हुए भी थे, और जो काम कर रहे थे उससे ईसाइयत को बल मिल रहा था। अतः इन्हें अँगरेज़ सरकार का अप्रत्यक्ष समर्थन एवं संरक्षण भी प्राप्त था। यही कारण था कि हिन्दू समाज के धर्माचार्य इनसे खतरा महसूस करने के बावजूद इनका ‘ प्रत्यक्ष विरोध ‘ करने का साहस नहीं जुटा सके।

इसके विपरीत स्वामी दयानंद पश्चिमीकरण से सर्वथा अछूते पारंपरिक भारतीयता की देन थे। वे संस्कृत माध्यम से शिक्षित, वेदों, ब्राह्मण ग्रंथों, उपनिषदों, दर्शन शास्त्रों, स्मृतियों, आदि के उद् भट विद्वान थे, पर उस कूपमंडूकता और रूढ़िवादिता से कोसों दूर थे जो प्रायः संस्कृत वालों की पहचान मानी जाती है। समाज सुधार के साथ धर्म सुधार का भी कार्य करने वाले वे उस युग के एकमात्र ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने अपनी परिधि में केवल हिन्दुओं को नहीं, भारत में रहने वाले सभी धर्मावलम्बियों को अर्थात पूरे भारतीय समाज को, या कहें समस्त मानव समाज को समेट लिया और ‘ कृण्वन्तो विश्वमार्यम् ‘ (सबको ‘ आर्य ‘ अर्थात अच्छा इंसान बनाओ ) के अभियान पर निकल पड़े। इसीलिए उन्होंने प्रचार कार्य बंद कमरों में गोष्ठियां आयोजित करके नहीं, सामान्य जनता के बीच उपदेश देकर शुरू किया जिसे विभिन्न धर्मों के धर्माचार्यों से संवाद , चर्चा और शास्त्रार्थ करके आगे बढ़ाया। संरक्षण / समर्थन के नाम पर उनके साथ सरकार या समाज का कोई वर्ग नहीं , अपना लगभग सवा छह फुट ऊंचा, ब्रह्मचर्य एवं योगाभ्यास से अत्यंत पुष्ट – सुगठित – बलिष्ठ , कठोर तप से दीप्तिमान शरीर और ओजपूर्ण मुखमंडल था जो प्रकांड पांडित्य, तर्कशील बुद्धि , कुशाग्र प्रत्युत्पन्न मति, प्रगल्भ मधुर वाणी, प्राणिमात्र के लिए हृदय में प्रेम और करुणा, दृढ़ संकल्प, अदम्य साहस , असीमित आत्मविश्वास एवं अटूट ईश्वर विश्वास से भरा हुआ था। इस प्रकार उस युग में सामान्य व्यक्ति के साथ-साथ विभिन्न धर्मों के धर्माचार्यों एवं विद्वानों से भी संवाद स्थापित करने, उनके धर्मों / धर्मग्रंथों की समीक्षा करने, शास्त्रार्थ की प्राचीन परम्परा को पुनर्जीवित करने और रूढ़िवादी – कट्टरपंथी लोगों के हर तरह के विरोध का अकेले सामना करने वाले वे उस युग के सर्व-प्रथम और एकमात्र महापुरुष थे। उनके जिन विचारों ने तत्कालीन समाज में क्रांति उत्पन्न कर दी उनमें से कुछ विचार यहाँ प्रस्तुत हैं।

धर्म का मूलाधार वेद है ( वेदोSखिलं धर्ममूलम् ), ये शब्द हमारे धर्माचार्यों की वाणी में भले ही सुरक्षित हों, व्यवहार में इनका स्थान ढूंढे से भी नहीं मिलता। अधिकांश लोगों के लिए तो धर्म का अर्थ भी पूजा-पाठ में सिमट कर रह गया है। जब वेदाध्ययन की परम्परा खंडित होने लगी, तब वेदों के सम्बन्ध में अनेक भ्रांतियां फैलने लगीं। जैसे, वेद केवल यज्ञ करने एवं अन्य प्रकार के कर्मकांड के लिए हैं, वेद केवल परमात्मा से प्रार्थना करने के लिए हैं, वेदों में केवल आध्यात्मिक ज्ञान है, केवल संहिता (ऋग्वेद, यजुर्वेद , सामवेद और अथर्ववेद) ही वेद नहीं हैं, (उनकी व्याख्या में लिखे गए) ब्राह्मण ग्रन्थ, आरण्यक, उपनिषद आदि भी वेद हैं, वेदों में इस देश का इतिहास और भूगोल है, उनमें यहाँ की नदियों का, राजाओं का , ऐतिहासिक घटनाओं आदि का विवरण है, वेद पुराने युग के ग्रन्थ हैं , इनकी उपयोगिता उसी पुराने युग के लिए थी, आज के लिए नहीं , कलियुग के लिए तो वे बने ही नहीं , वेद में (सोमरस पीने वाले) मद्यपों का प्रलाप है, उनमें जादू – टोना, भूत -प्रेत, मारण – वशीकरण आदि का वर्णन है, वेद पढ़ने का अधिकार केवल ब्राह्मणों को है , स्त्रियों और शूद्रों के लिए तो वेदाध्ययन विशेषरूप से वर्जित है, वेद अब उपलब्ध ही नहीं क्योंकि भस्मासुर उन्हें पाताल लोक ले गया, इत्यादि । आधुनिक युग में यूरोपीय विद्वानों ने भी वेदों का अध्ययन किया , पर वह उन्होंने अपने राजनैतिक, आर्थिक, और एकेडेमिक साम्राज्य को मज़बूत बनाने की दृष्टि से किया। अतः उन्होंने भी भ्रम फैलाए।

स्वामी दयानंद ऐसे सर्वप्रथम विद्वान थे जिनके क्रांतिकारी विचारों ने वेद से संबंधित ऐसे तमाम भ्रमों को समूल नष्ट कर दिया। उन्होंने वेद मन्त्रों की व्याख्या करके यह स्पष्ट किया कि वेद सार्वजनीन हैं, अतः केवल ब्राह्मणों और / या केवल हिन्दुओं के लिए नहीं, पूरी मानव जाति के लिए हैं ; वेद सार्वकालिक हैं, अतः उनकी उपयोगिता किसी विशेष युग के लिए नहीं, हर युग के लिए है ; वेद मात्र पूजापाठ के नहीं, मानव जीवन को भौतिक और आध्यात्मिक हर दृष्टि से संपन्न बनाने के सूत्र बताने वाले ग्रन्थ हैं।

इस युग के वे प्रथम विद्वान हैं जिन्होंने यह सिद्ध किया कि वेद सब सत्य विद्याओं के भण्डार और विभिन्न प्रकार के ज्ञान – विज्ञान के मूल स्रोत हैं। भारत के गौरवशाली अतीत का आधार वेद और वैदिक साहित्य ही है। इन्हीं से भारत में ही नहीं सम्पूर्ण विश्व में ज्ञान-विज्ञान फैला, और अभी भी इन ग्रंथों में असीम संभावनाएं छिपी हुई हैं। वेदों में विभिन्न प्रकार के ज्ञान-विज्ञान (जैसे, समाज-व्यवस्था, अर्थ-व्यवस्था, राजनीति, शिल्प, सूर्य-पृथ्वी आदि का परिभ्रमण, गुरुत्वाकर्षण, सृष्टि विद्या, गणित विद्या, वायुमंडल के भेद, जल और आकाश में तीव्र गति से चलने वाले यान आदि) से संबंधित कतिपय वेदमंत्र प्रस्तुत करके उन्होंने शंकाग्रस्त लोगों / विरोधियों को चकित कर दिया। उन्होंने बताया कि पश्चिमी देशों में विज्ञान और प्रौद्योगिकी की जो खोजें आज हुई हैं, वैसी और उनसे भी उच्चतर अनेक खोजें भारत में भी पहले हो चुकी हैं। वे चाहते थे कि वेदों में निहित सूत्रों के आधार पर आधुनिक युग में भी वैज्ञानिक खोजें की जाएँ । अनेक लोग दयानंद के इस विचार से चौंक जाते हैं और इसे ” नूतन अंधविश्वास ” कहते हैं, पर महर्षि अरविन्द जैसे लोगों का विचार है कि इस विषय में दयानद ने ” अतिशयोक्ति से नहीं, बल्कि अल्पोक्ति से काम लिया है ” क्योंकि “वेदों में विज्ञान की ऐसी बातें भी हैं जिनका पता आज के वैज्ञानिकों को नहीं चला है। ”

ज्ञातव्य है कि महर्षि दयानंद के इन्हीं विचारों से प्रेरित होकर कई विद्वानों ने वैदिक साहित्य के आधार पर अपने बलबूते वैज्ञानिक अनुसंधान करके दयानंद के मत को पुष्ट किया और वेदों की गरिमा बढ़ाई ; जैसे शिवकर बापूजी तलपडे ने अमरीका के राइट ब्रदर्स से आठ वर्ष पहले 1895 में अपना पूर्णतया भारतीय विमान ” मरुत्सखा ” बनाकर मुंबई में चौपाटी पर 1500 फुट की ऊंचाई तक उड़ाकर दिखा भी दिया। इसी प्रकार जिस यज्ञ (हवन) को लोगों ने पूजा का एक कर्मकांड बना लिया है, महर्षि दयानंद ने बताया कि उसे यदि वैज्ञानिक ढंग से संपन्न किया जाए तो वह रोगनाशक, वर्षाकारक, वायुशुद्धिकारक है। उनके इस विचार को प्रमाणित करके दिखाया 1930 के दशक में डा. फुन्दनलाल एम. डी.( लंदन ) ने उस समय असाध्य कहे जाने वाले टी. बी. जैसे रोग की सफल चिकित्सा करके, और 1960 में पं वीरसेन वेदश्रमी ने सूखे की स्थिति में अनेक स्थानों पर कृत्रिम वर्षा कराकर। यह दयानंद की शिक्षाओं का ही परिणाम है कि आज खेतों में हवन करके बिना खाद के ही भरपूर फसल लेने के लिए लालूखेड़ी , बैरसिया, भोपाल में , कृषि में वायरस प्रदूषण रोकने के लिए मालवीय राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान, जयपुर में ,परमाणु रेडियो एक्टिव पदार्थों से निकलने वाले विकिरणों के प्रभाव को रोकने में सक्षम कवच निर्माण के लिए भौतिक विज्ञान विभाग, जयपुर विश्वविद्यालय जैसी संस्थाओं में यज्ञ के प्रभाव का अध्ययन किया जा रहा है।

आधुनिक विज्ञान का स्वागत :

जिस युग में हमारे ही नहीं, तथाकथित प्रगतिशील यूरोप के धर्माचार्य भी धर्म और विज्ञान को परस्पर विरोधी मानकर विज्ञान एवं शिल्प का विरोध कर रहे थे, तब संस्कृत और वेदों के क्रांतिकारी विद्वान स्वामी दयानंद ने दूरदर्शिता का परिचय देते हुए यूरोपीय विज्ञान और प्रौद्योगिकी (टेक्नोलाजी) के महत्व को पहचाना और उसका स्वागत किया। उन्होंने उसका अधिकाधिक लाभ उठाने के लिए भारत के प्रतिभाशाली विद्यार्थियों को जर्मनी भेजने की भी योजना बनाई क्योंकि जर्मनी तब विज्ञान के क्षेत्र में अग्रणी माना जाता था। इस विषय पर उनका प्रो जी वीज़ ( Prof. G. Wiese ) से पत्र व्यवहार चल रहा था, पर उनकी असामयिक मृत्यु ने इस योजना पर विराम लगा दिया।

मानव कल्याण के लिए धार्मिक एकता आवश्यक :

उस युग में स्वामी दयानंद प्रथम महापुरुष थे जिन्होंने मानव जाति के कल्याण के लिए धार्मिक एकता का होना आवश्यक बताया और इसके लिए उन्होंने व्याख्यान / लेखन द्वारा तो प्रयास किए ही, विभिन्न धर्मों के धर्माचार्यों को एक मंच पर इकट्ठा करके भी प्रयास किए ताकि सब मिलकर तर्कहीन, अवैज्ञानिक , अंधविश्वास पर आधारित, संकीर्णता फैलाने वाले, भेदभाव उत्पन्न करके समाज की समरसता को बिगाड़ने वाले साम्प्रदायिक सिद्धांतों को छोड़कर ऐसे सिद्धांत स्वीकार कर लें जो सर्वमान्य हों, और फिर सब धर्माचार्य केवल उन्हीं सिद्धांतों का प्रचार करें। इस प्रकार उन्होंने ‘ सर्व धर्म समभाव ‘ को एक तर्कसंगत आधार प्रदान करने का प्रयास किया और इसके लिए उन्होंने दो बार संगोष्ठियाँ भी आयोजित कीं। हम अच्छी तरह जानते हैं कि विश्वास तर्कों से नहीं, व्यवहार से अर्जित किया जाता है। वेदों पर पूरी निष्ठा रखने वाले दयानंद ने अपने व्यवहार से विधर्मियों तक का कितना विश्वास अर्जित किया था, उसका कुछ अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि उनके आमंत्रण पर इन संगोष्ठियों में भाग लेने डा. टी. जे. स्काट , पादरी नोबेल, दारुल उलूम, देवबंद के संस्थापक मौलवी मोहम्मद कासिम, सर सैयद अहमद खां, आचार्य केशवचन्द्र सेन जैसे तत्कालीन प्रबुद्ध लोग भी पहुंचे। यह दयानंद के उपदेशों का ही प्रभाव था कि मौलवी मोहम्मद कासिम ने देवबंद मदरसे के पाठ्यक्रम में संस्कृत को भी शामिल किया । दयानंद ने प्रत्येक धर्म / मनुष्य को समान महत्व देते हुए यह कहा कि सब लोगों को सबकी मत विषयक पुस्तकों को पढ़ना चाहिए और फिर अपने विवेकानुसार निश्चय करना चाहिए।

धार्मिक एकता के लिए किए जा रहे दयानंद के प्रयासों की मान्यता का ही यह परिणाम था कि 1875 में देश की पहली आर्यसमाज की स्थापना मुंबई में डा माणेक जी अदेरजी नामक एक पारसी सज्जन के उद्यान में हुई जो उन्होंने उसमें बने भवन सहित बाद में आर्यसमाज को दान कर दिया; और 1938 में जब उस भवन के विस्तार की योजना बनी तो सर्वाधिक दान (पांच हज़ार रु.) दिया मुंबई के एक मुस्लिम व्यापारी सेठ हाजी अलारखिया रहमतुल्ला सोनावाला ने। अनेक स्थानों पर आर्यसमाज की स्थापना मुसलमानों के घरों पर हुई, जैसे लाहौर में खान बहादुर डा. रहीम खान, अमृतसर में मियां मोहम्मद जान आदि। अनेक जैनियों ने, सिखों ने स्वामी जी के उपदेशों से प्रेरित होकर वैदिक आदर्शों को अपनाया। देश की प्रथम आर्यसमाज के प्रथम प्रधान (गिरधरलाल दयालदास कोठारी) और मंत्री (पानाचंद आनंदजी पारेख) के जन्म जैन परिवारों में हुए थे। सरदार भगत सिंह के दादा सरदार अर्जुन सिंह जी सिख थे, पर महर्षि दयानंद की प्रेरणा से उन्होंने प्रतिदिन संध्या और यज्ञ करना शुरू किया, उनका परिवार स्वतंत्रता सेनानी बना, और सिख पंथ के अनुयायी रहते हुए भी भगत सिंह का ‘ उपनयन (जनेऊ) संस्कार ‘ कराया गया।

इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है जब ‘ धर्म सुधारकों ‘ ने सुधार के नाम पर नए ‘ धर्म ‘ ( पंथ ) स्थापित कर लिए , पर स्वामी दयानंद ने कोई नया पंथ नहीं बनाया। वे सारे संसार को ‘ आर्य ‘ ( अच्छा मनुष्य ) बनाना चाहते थे। इसीलिए जो संस्था श्रद्धालुओं के आग्रह पर स्थापित की, उसका नाम ” दयानंद समाज ” न रखकर ” आर्य समाज ” रखा, और उसमें भी स्वयं कोई विशिष्ट पद ( अधिष्ठाता / अध्यक्ष / प्रधान आदि ) स्वीकार नहीं किया। वेद और वैदिक सिद्धांतों का प्रचार करना ही उसका उद्देश्य रखा। इसीलिए अपने ग्रंथों का नहीं, ” वेद का पढ़ना-पढ़ाना और सुनना-सुनाना सब आर्यों का परम धर्म ” बताया। उन्होंने स्पष्ट घोषणा की कि मेरा लेशमात्र भी उद्देश्य कोई नवीन मत चलाने का नहीं है। मैं तो उन्हीं वेदादि सत्य शास्त्रों का और ब्रह्मा से लेकर जैमिनि पर्यन्त ऋषि – मुनियों की मान्यताओं का प्रचार करना चाहता हूँ जिनके आधार पर मानव मात्र का धर्म सदा से चलता रहा है और इसीलिए जिसे सनातन धर्म कहते हैं।

हिन्दू समाज के धर्माचार्य दीर्घकाल से ‘ सनातन धर्म ‘ शब्द का प्रयोग करते आ रहे हैं और दुहाई इन्हीं वेदों, शास्त्रों आदि की देते आ रहे हैं, जबकि वास्तविकता यह है कि उनके द्वारा प्रतिपादित ” आधुनिक हिन्दू धर्म अधिकांशतः एक पौराणिक धर्म है जिसका उद्गम बौद्ध काल के पश्चात हुआ (स्वामी विवेकानंद, भारतीय नारी ; पृष्ठ 62)। “ वह कहानी आपने सुनी होगी कि हुक्के की चिलम बदल गई, फर्शी बदल गई, नैचा बदल गया, फिर भी कहते रहे कि हुक्का बहुत पुराना है। पिछले काफी समय से हिन्दू धर्म की भी यही स्थिति चली आ रही है। धर्म ग्रन्थ बदल गए (वेद एवं अन्य शास्त्रों को हटाकर वेद विरुद्ध सिद्धांत प्रतिपादित करने वाले ग्रंथ श्रीमद्भागवत, रामचरित मानस आदि प्रतिष्ठित हो गए), एक ईश्वर के स्थान पर अनेक देवी – देवता आ गए, चित्त को एकाग्र करने वाली उपासना का स्थान घंटा-घड़ियाल बजाने वाली पूजा ने ले लिया, कर्मणा वर्णव्यवस्था की जगह जन्मना जातिप्रथा को हमने अपनी पहचान बना लिया, फिर भी हम कहते हैं कि हम सनातन धर्म के अनुयायी हैं । स्वामी दयानंद ऐसे पहले महापुरुष थे जिन्होंने सच्चे ‘ सनातन धर्म ‘ से हमें परिचित कराया और धर्म के मूल ग्रंथों पर छाई धुंध को साफ़ करके उनका वास्तविक स्वरूप दिखलाया। रामधारी सिंह ‘ दिनकर ‘ के शब्दों में, ” दयानंद ने बुद्धिवाद की जो मशाल जलाई थी , उसका कोई जवाब नहीं था। वे जो कुछ कह रहे थे उसका उत्तर न तो मुसलमान दे सकते थे, न ईसाई और न पुराणों पर पलने वाले हिन्दू पंडित और विद्वान। हिन्दू नवोत्थान अब पूरे प्रकाश में आ गया था और अनेक समझदार लोग, मन ही मन, यह अनुभव करने लगे थे कि सच ही पौराणिक धर्म में कोई सार नहीं है ( संस्कृति के चार अध्याय, पृ. 556) । ”

 

समाज सुधार की क्रांतिकारी योजना :

प्रायः यह माना जाता है कि राजा राममोहन रॉय, ईश्वर चन्द्र विद्यासागर आदि की भांति स्वामी दयानंद ने भी हिन्दू समाज में व्याप्त अंधविश्वासों एवं कुरीतियों का विरोध किया , स्त्री शिक्षा का प्रचार किया, बाल विवाह, अनमेल विवाह, पर्दा प्रथा, सती प्रथा आदि का विरोध किया, विधवा विवाह का समर्थन करके स्त्रियों के प्रति सम्मानजनक व्यवहार करने की प्रेरणा दी, दलितों के साथ किए जाने वाले भेदभाव पूर्ण व्यवहार , अस्पृश्यता आदि का विरोध करके मानवमात्र में समानता का समर्थन किया, आदि । वस्तुतः इस क्षेत्र में क्रान्ति मचाने वाली स्वामी दयानंद की कुछ और भी विशिष्टताएं हैं। पूर्ववर्ती सुधारकों की प्रेरणा का स्रोत पश्चिमी समाज का अनुकरण था, जिससे भारतीयों में अपने अतीत के प्रति हीनभाव विकसित हुआ, और उनका आत्मबल कमजोर हुआ ; पर महर्षि दयानंद के सुधार कार्यक्रम का आधार था वेद जिसने अतीत के प्रति गर्व का भाव विकसित किया और आत्मबल को सुदृढ़ किया। इतना ही नहीं, उनके दृष्टिकोण में अधिक प्रगतिशीलता और दूरदर्शिता थी। उदाहरणार्थ, उन्होंने विवाह करने का अधिकार लड़का-लड़की के अधीन माना और प्राचीन स्वयंवर प्रथा का समर्थन किया। उनका कहना है कि अगर माता-पिता संतान का विवाह करने का विचार करें तो भी वे संतान की इच्छा और प्रसन्नता का ध्यान अवश्य रखें क्योंकि ” विवाह में मुख्य प्रयोजन वर – कन्या का है, माता-पिता का नहीं। ” इतना ही नहीं, उन्होंने राज्य शासन में भी स्त्रियों की भागीदारी का समर्थन किया . ध्यान दीजिए, यह उस युग की बात है जब भारत की तो बात ही क्या, यूरोप तक में स्त्रियों का राज्य शासन में भाग लेना तो दूर, उन्हें वोट देने का भी अधिकार नहीं था।

 

जब अन्य समाज सुधारक दलितों के प्रति किए जाने वाले भेदभाव, अस्पृश्यता आदि की तो निंदा कर रहे थे, पर साथ ही पैसे और रुतबे से प्राप्त की जाने वाली शिक्षा का समर्थन करके नए भेदभाव को जन्म भी दे रहे थे, तब स्वामी दयानंद ने दलितों की समस्या की जड़ पर ही प्रहार करते हुए एक ओर तो जन्मना जातिप्रथा का विरोध किया ताकि हर व्यक्ति को प्रगति और उन्नति करने और समाज में सम्मानजनक स्थान पाने के भरपूर अवसर मिल सकें , तथा दूसरी ओर समान शिक्षा व्यवस्था की संस्तुति करते हुए स्पष्ट शब्दों में कहा कि पाठशालाओं में ” सबको तुल्य वस्त्र, खानपान, आसन दिए जाएँ, चाहे वह राजकुमार वा राजकुमारी हो, चाहे दरिद्र की संतान हो। ” इतना ही नहीं, उन्होंने अनिवार्य और निश्शुल्क शिक्षा की व्यवस्था आवश्यक बताते हुए लिखा, ” इसमें राजनियम और जातिनियम होना चाहिए कि पांचवें अथवा आठवें वर्ष से आगे अपने लड़कों और लड़कियों को घर में न रख सकें। पाठशाला में अवश्य भेज देवें, जो न भेजे वह दंडनीय हो।” इस प्रकार इन क्षेत्रों में भी स्वामी दयानंद सर्वप्रथम हैं।

तत्कालीन अन्य समाज सुधारकों की अपेक्षा अपने कार्यक्रम में राजनीति, अर्थनीति, शिक्षा जैसे विषयों को भी शामिल करने वाले वे उस युग के एकमात्र और सर्वप्रथम महापुरुष हैं। अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ ” सत्यार्थ प्रकाश ” में उन्होंने पूरे – पूरे अध्याय इन विषयों पर लिखे हैं। राजधर्म के नाम से उन्होंने वेद तथा अन्य शास्त्रों आदि के आधार पर राज-व्यवस्था, शासन-व्यवस्था, न्याय-व्यवस्था, दंडनीति, कूटनीति आदि की विवेचना की है , । राजा शब्द सुनते ही हमें प्रायः वंशानुगत परम्परा की याद आती है, पर स्वामी दयानंद ने राज-व्यवस्था में राजा को “ सभापति “ कहा है और तीन “ सभाओं “ की चर्चा करते हुए राजा अर्थात सभापति को “ सभाओं के अधीन “ एवं “ सभाओं को प्रजा के अधीन “ रखने की बात की है। किसान आदि परिश्रम करने वालों को उन्होंने “ राजाओं का राजा “ और राजा को उनका “ रक्षक “ बताया है। इस प्रकार उन्होंने जनतांत्रिक व्यवस्था का समर्थन किया है। वेदों, ब्राह्मण ग्रंथों, स्मृतियों आदि से उद्धरण देकर उन्होंने स्पष्ट किया है कि यही हमारी प्राचीन परम्परा है। यजुर्वेद के अपने भाष्य में भी उन्होंने लिखा ,” प्रजाजन यह देखें कि उनका देश अकेले व्यक्ति से नहीं, अपितु सभाओं से प्रशासित हो । ”

देश की अर्थ-व्यवस्था की ओर भी ध्यान देने, कर-प्रणाली (Tax System ) ठीक करने तथा भारतीय अर्थ व्यवस्था की रीढ़ कृषि एवं गोपालन की व्यवस्था सुधारने के उपाय बताने वाले वे प्रथम महापुरुष हैं। जब अन्य लोगों के लिए गोहत्या केवल धार्मिक प्रश्न था, तब दयानंद ने उसे आर्थिक प्रश्न बना दिया। उन्होंने गाय एवं अन्य दुधारू पशुओं की उपयोगिता अर्थशास्त्र की दृष्टि से बताने के लिए ‘ गोकरुणा निधि ‘ नामक एक पुस्तक पृथक से भी लिखी , जिसमें गाय को देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ सिद्ध किया है। उन्होंने गाय से मिलने वाले दूध, गोबर, गोमूत्र आदि (और मरने के बाद चमड़ा, हड्डी आदि ) के मूल्य का आकलन रुपयों में किया है । महात्मा गाँधी के जिस नमक आन्दोलन (1930) से हम सब परिचित हैं उसकी पृष्ठभूमि महर्षि दयानंद ने लगभग छह दशक पहले ही तैयार कर दी थी। नमक पर कर लगाने और वनों से प्राप्त होने वाले ईंधन पर कर लगाने के लिए उन्होंने अँगरेज़ सरकार की कटु आलोचना की। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि व्यापार करने वालों से पचासवें भाग तक तथा अन्न उपजाने वाले किसानों से छठे / आठवें / बारहवें भाग तक ही टैक्स लिया जाए। उन्होंने चेतावनी दी है कि टैक्स उतना` ही लेना चाहिए जिससे किसान को खाने – पीने का और धन से रहित होने का दुःख न हो। शासक यह ध्यान सदैव रखें कि जब जनता को भरपूर खाने-पीने को मिलता है, उसका स्वास्थ्य अच्छा होता है, वह धनवान होती है, तभी शासक की भी उन्नति होती है।

उनकी शिक्षा-योजना क्रांतिकारी है। समान शिक्षा, अनिवार्य शिक्षा और निश्शुल्क शिक्षा की चर्चा ऊपर की ही जा चुकी है। पश्चिमी देशों की नक़ल पर हमने शिक्षा के प्राथमिक-माध्यमिक आदि विभिन्न स्तर बना लिए, और बाद में नर्सरी, प्रि-नर्सरी से शिक्षा का प्रारम्भ मान लिया, पर स्वामी दयानंद ने तो और आगे बढ़कर शिक्षा का प्रारंभ गर्भ से ही बताया और इस सम्बन्ध में माता-पिता की भूमिका स्पष्ट की। अपने विद्यालयों में हम तो केवल कुछ ही विषयों का अध्ययन कराकर अधूरी शिक्षा को ही पूरा मान लेते हैं, पर स्वामी जी ने सबके लिए 20 – 21 वर्ष में “ पृथ्वी से लेकर आकाश पर्यन्त “ सभी विषयों के अध्ययन (जैसे ,भूगर्भ, खगोल, चिकित्सा, राजनीति, , शस्त्र-अस्त्र, संगीत, नृत्य, विभिन्न कलाकौशल इत्यादि) की संस्तुति करके सम्पूर्ण शिक्षा की योजना प्रस्तुत की।

स्वराज्य और स्वदेशी की उपासना :

उस युग में स्वदेशी वस्तुओं के उपयोग और स्वराज्य की बात करके उन्होंने इस क्षेत्र में भी क्रान्ति उत्पन्न कर दी। 1857 की क्रान्ति के बाद हमारे देश के शासन की बागडोर ब्रिटेन की संसद ने संभाल ली थी , पर महारानी विक्टोरिया को भारत की ” साम्राज्ञी ” घोषित किया लगभग बीस वर्ष बाद 1876 में । इस देरी का कारण इतिहास में तो दर्ज नहीं किया गया, पर तत्कालीन दस्तावेज और लोकगीत गवाही दे रहे हैं कि जिन लोगों पर क्रान्ति में शामिल होने / सहयोग देने का सरकार को ज़रा-सा भी संदेह था, उन्हें ढूंढ-ढूंढ कर, घरों से पकड़ कर, खुलेआम पेड़ पर लटका कर फांसी दी गई और जनता में दहशत पैदा की गई। यह दुष्कर्म बीस वर्ष तक चलता ही रहा। जब यह क्रूर काण्ड पूरा हो गया तब विक्टोरिया को भारत की साम्राज्ञी घोषित किया और उसने इस पर पर्दा डालने की दृष्टि से घोषणा की कि भारत की प्रजा मेरी संतान के समान है। उसके साथ पूरा न्याय किया जाएगा। धर्म आदि के कारण कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा।

इस घोषणा का तत्कालीन नेताओं ने भरपूर स्वागत किया। राजा राममोहन रॉय तो पहले ही भारत में ब्रिटिश शासन के लिए परमात्मा को धन्यवाद देकर उसके शताब्दियों तक बने रहने की प्रार्थना कर चुके थे , अब आचार्य केशवचन्द्र सेन ने ब्रिटिश शासन की मुक्तकंठ से प्रशंसा और चिरजीवी होने की कामना कर डाली। साहित्यकारों में ब्रिटेन के राष्ट्रगीत “ Long Live the Queen “ का भारतीय भाषाओं में अनुवाद करने की जैसे होड़ लग गई। हिंदी में भारतेंदु हरिश्चन्द्र , बांग्ला में सुरेन्द्र मोहन टैगोर, मलयालम में महाराजा त्रावणकोर,, गुजराती में एच एन कत्रे , मराठी में बी बी नैनी जैसे लोग जब अनुवाद करके अँगरेज़ सरकार से वाहवाही लूटने का प्रयास कर रहे थे, संस्कृत में ” शिवराजविजय ” लिखकर ‘ हिन्दू धर्म के रक्षक शिवाजी ‘ का गुणगान करने वाले पं अम्बिका दत्त व्यास जैसे साहित्यकार हिंदी में ” चिरजीवी रहो विक्टोरिया महारानी “ जैसे गीत लिख रहे थे, तब महर्षि दयानंद एकमात्र ऐसे व्यक्ति थे जो सिंह गर्जना कर रहे थे कि “ कोई कितना भी करे, परन्तु जो स्वदेशीय राज्य होता है वही सर्वोपरि उत्तम होता है। अथवा मतमतांतर के आग्रह – रहित , अपने और पराये का पक्षपात शून्य, प्रजा पर माता – पिता के समान कृपा , न्याय और दया के साथ विदेशियों का राज्य कभी भी पूर्ण सुखदायी नहीं होता। “ इसी कारण नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने कहा था , ” स्वराज्य मंदिर में पहली मूर्ति दयानंद की ही स्थापित की जाएगी। ” एनी बेसेंट ने भी इसी तथ्य को रेखांकित करते हुए कहा, ” जब स्वराज्य मंदिर बनेगा तो उसमें बड़े – बड़े नेताओं की मूर्तियाँ होंगी और उनमें सबसे ऊंची मूर्ति दयानंद की होगी। ”

 

अखिल भारतीय जनभाषा – हिंदी :

स्वामी दयानंद की मातृभाषा गुजराती थी, अध्ययन एवं व्यवहार की भाषा संस्कृत रही; पर उन्होंने अपना सारा साहित्य हिंदी में लिखा। देश के हज़ारों वर्ष के इतिहास में वे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने वेदों की व्याख्या लोकभाषा हिंदी में करके उन्हें सामान्य व्यक्ति तक के लिए सुलभ बना दिया। उस युग में हिंदी के अखिल भारतीय महत्व की ओर सबसे पहले ध्यान तो बंगाल के मनीषियों का गया था, स्वामी दयानंद को भी हिंदी अपनाने की प्रेरणा वहीँ से मिली ; पर हिंदी का अखिल भारतीय भाषा के रूप में जैसा प्रचार दयानंद ने किया , वह अनुपम है। उन्होंने हिंदी को ‘ आर्यभाषा ‘ नाम दिया (उनका दिया यह नाम भी तब इतना लोकप्रिय हुआ कि जब 1893 ई. में काशी नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना की गई तो उसके पुस्तकालय का नाम ‘ आर्यभाषा पुस्तकालय ‘ ही रखा गया)। स्वामी दयानंद देश के जिस भाग में गए, उनके संवाद / भाषण की भाषा हिंदी ही रही। जस्टिस रानडे तथा अन्य सज्जनों के निमंत्रण पर स्वामी जी 1875 में पुणे गए और वहां पचास व्याख्यान दिए, सभी हिंदी में। पब्लिक स्कूलों में अंग्रेजी के वर्चस्व से हम सब परिचित हैं। भारत में इनकी शुरुआत जिन स्कूलों से हुई वे ‘ राजकुमारों ‘ के लिए थे और इन्हें उस समय ‘ चीफ्स कालेज ’ कहा जाता था । ऐसा ही एक ‘ कालेज ‘ राजकोट (सौराष्ट्र) में 1868 में खुला, नाम था ‘ राजकुमार कालेज ‘। इस समय तक स्वामी दयानंद की प्रसिद्धि एक ऐसे महापुरुष के रूप में हो चुकी थी जिसकी वार्ता सुनने में लोग गर्व का अनुभव करते थे। यही कारण है कि जब वे गुजरात में आए तो राजकुमार कालेज के ईसाई प्रिंसिपल मैकनाटन ने उन्हें भाषण के लिए यह जानते हुए भी आमंत्रित किया कि वे भाषण हिंदी ही में देंगे। पब्लिक स्कूलों के लगभग डेढ़ सौ वर्ष के इतिहास में यह पहला, और संभवतः अंतिम, अतः एकमात्र उदाहरण है। इस प्रकार स्वामी जी ने हिंदी उन स्थानों तक भी पहुंचाई जहाँ उसका प्रवेश ‘ वर्जित ‘ था।

दयानंद का सन्देश – सत्य पर बल :

दयानंद का सन्देश अगर एक वाक्य में कहना हो तो वह होगा उनके द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत ” सत्य के ग्रहण करने और असत्य के त्यागने को सर्वदा उद्यत रहना चाहिए। ” उनका जीवन भी इसी का उदाहरण है । उनका जन्म परम धार्मिक शैव परिवार में हुआ, किशोरावस्था तक उन्होंने उसी की परम्पराओं का निष्ठापूर्वक पालन किया, पर मूर्तिपूजा की निस्सारता सामने आते ही मूर्तिपूजा को छोड़ा, शैवधर्म के अन्य सिद्धांतों को नहीं। जब वे अपने गुरु स्वामी विरजानंद से दीक्षा लेकर सार्वजनिक क्षेत्र में उतरने का विचार लेकर मथुरा से चले तब उनकी आयु लगभग 40 वर्ष हो चुकी थी, पर अनेक विषयों पर उनके विचार अभी सुस्थिर नहीं थे। तब शुरू में उन्होंने शैवधर्म का प्रचार किया, पर कालान्तर में अनुभव-समृद्ध होने पर जब उन्होंने अपने प्रारम्भिक विचारों को सत्याधारित नहीं पाया, तो त्यागने में देर नहीं लगाई। इसके कई उदाहरण उपलब्ध हैं। जैसे, अपने प्रारम्भिक जीवन में उन्होंने वेदान्त की मान्यताओं का समर्थन किया, पर जब उसमें ‘ ईश्वर को भी भ्रम हो जाता है ’ जैसा सिद्धांत पाया (विद्यारण्य स्वामी, ‘ पञ्चदशी ‘), तो उसे छोड़ दिया और उसका खंडन किया। इसी प्रकार प्रारम्भ में, निस्संतान विधवाओं के लिए वैदिक कालीन ‘ नियोग ‘ प्रथा का समर्थन किया, पर बाद में वर्तमान समाज में विधवाओं की दुर्दशा देखकर पुनर्विवाह के पक्ष में दृढ़ता से खड़े होकर कहा कि जब विधुर पुरुष को पुनर्विवाह का अधिकार है तो विधवा स्त्री को क्यों नहीं ? अतः यह कहा जा सकता है कि उनका सम्पूर्ण जीवन सत्यान्वेषण की अनवरत यात्रा है।

इसी कारण उन्होंने जिस ग्रन्थ में अपने महत्वपूर्ण विचारों का प्रतिपादन किया, उसका नाम रखा ‘ सत्यार्थ प्रकाश ‘। इसके प्रथम दस अध्यायों ( समुल्लासों ) में उन्होंने जीवन के विभिन्न पक्षों से संबंधित प्रमुख वैदिक सिद्धांतों से परिचय कराया है और अंतिम चार अध्यायों में देश में प्रचलित विभिन्न ‘ धर्मों ‘ से। इस प्रकार यह धर्म का ऐसा संक्षिप्त विश्वकोश बन गया है जिसमें विभिन्न धर्मों (पंथों) की समीक्षा भी उपलब्ध है। इसे ही लक्ष्य करते हुए दीनबंधु सी ऍफ़ एंड्रयूज़ ने कहा था, ” मैंने भारत आकर सच्चे हिन्दू धर्म का परिचय सत्यार्थ प्रकाश के स्वाध्याय से पाया है क्योंकि धर्म से भटकने वालों के लिए यह एक पथप्रदर्शक है। ” स्वातन्त्र्य वीर सावरकर ने इसका महत्त्व बताते हुए कहा, ” सत्यार्थ प्रकाश की विद्यमानता में कोई धर्मावलम्बी अपने मत की शेखी नहीं मार सकता। ”

 

राष्ट्रपिता बनाम राष्ट्रपितामह :

स्वामी दयानंद को अपने श्रद्धा-सुमन अर्पित करते हुए राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने जो कहा उससे राष्ट्रीय जीवन में स्वामी दयानंद का महत्व स्वतः स्पष्ट हो जाता है। उन्होंने लिखा,

” जनता से संपर्क, सत्य-अहिंसा, जन-जागरण, लोकतंत्र, स्वदेशी प्रचार, हिंदी, गोरक्षा, स्त्री उद्धार, शराब बंदी, ब्रह्मचर्य, पंचायत, सदाचार, देश उत्थान के जिस-जिस रचनात्मक क्षेत्र में मैंने कदम बढ़ाए, वहां दयानंद के पहले से ही आगे बढ़े कदमों ने मेरा मार्गदर्शन किया। ”

 

राष्ट्रपिता की इस आत्म स्वीकृति के बाद भी क्या यह कहने की कोई आवश्यकता है कि महर्षि स्वामी दयानंद सरस्वती सर्वप्रथम हैं ?

 

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डा. रवीन्द्र अग्निहोत्री
जन्म लखनऊ में, पर बचपन - किशोरावस्था जबलपुर में जहाँ पिताजी टी बी सेनिटोरियम में चीफ मेडिकल आफिसर थे ; उत्तर प्रदेश एवं राजस्थान में स्नातक / स्नातकोत्तर कक्षाओं में अध्यापन करने के पश्चात् भारतीय स्टेट बैंक , केन्द्रीय कार्यालय, मुंबई में राजभाषा विभाग के अध्यक्ष पद से सेवानिवृत्त ; सेवानिवृत्ति के पश्चात् भी बैंक में सलाहकार ; राष्ट्रीय बैंक प्रबंध संस्थान, पुणे में प्रोफ़ेसर - सलाहकार ; एस बी आई ओ ए प्रबंध संस्थान , चेन्नई में वरिष्ठ प्रोफ़ेसर ; अनेक विश्वविद्यालयों एवं बैंकिंग उद्योग की विभिन्न संस्थाओं से सम्बद्ध ; हिंदी - अंग्रेजी - संस्कृत में 500 से अधिक लेख - समीक्षाएं, 10 शोध - लेख एवं 40 से अधिक पुस्तकों के लेखक - अनुवादक ; कई पुस्तकों पर अखिल भारतीय पुरस्कार ; राष्ट्रपति से सम्मानित ; विद्या वाचस्पति , साहित्य शिरोमणि जैसी मानद उपाधियाँ / पुरस्कार/ सम्मान ; राजस्थान हिंदी ग्रन्थ अकादमी, जयपुर का प्रतिष्ठित लेखक सम्मान, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान , लखनऊ का मदन मोहन मालवीय पुरस्कार, एन सी ई आर टी की शोध परियोजना निदेशक एवं सर्वोत्तम शोध पुरस्कार , विश्वविद्यालय अनुदान आयोग का अनुसन्धान अनुदान , अंतर -राष्ट्रीय कला एवं साहित्य परिषद् का राष्ट्रीय एकता सम्मान.

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