-प्रभात कुमार रॉय
भूखे भजन न हो गोपाला/ ले ले अपनी कंठी माला
भूख वस्तुत: एक ऐसी स्थिति जो मनुष्य को कुछ भी करने के लिए विवश कर सकती है। तभी तो नजी़र अक़बराबादी फरमाते हैं.
दिवाना आदमी को बनाती हैं रोटियां/खुद नाचती है सबको नचाती हैं रोटियां/ बूढा चलाए ठेले को फाकों से झूल के/बच्चा उठाए बोझ खिलौने को भूलके/ देखा ना जाए सब वो दिखाती हैं रोटियां/….
यूएनडीपी के ऑंकडो़ पर यकी़न किया जाए तो भारत में भूखे पेट सोने वालो की संख्या तकरीबन 40 करोड़ तक पँहुच चुकी है। यूएनडीपी द्वारा तो हमारे राष्ट्र के आठ राज्यों उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान, उडी़सा, झारखंड, छत्तीस गढ़ और पश्चिम बंगाल को दुनिया सबसे गरीब अफ्रीका के 26 देशों से भी अधिक भूखा और गरीब करार दिया गया है। गरीबी रेखा से जीने वाले भारतवासियों का पैमाना ही महज 2400 कलौरी खुराक़ रही है। जिन लोगों को यह निर्धारित कलौरी हासिल नहीं हुआ करती, सिर्फ वे ही तो गरीबी रेखा के भी नीचे तसलीम किए जाते हैं। देश के कुल बच्चों की आबादी के पचास फीसदी बच्चें तो कुपोषित रहने के लिए अभिशप्त हैं ।
हुकूमत ए हिंदुस्तान ने राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून (नेशनल फूड सिक्यूरिटी एक्ट) लाने ऐलान कर दिया है। देश में खाद्य पदार्थो की आसमान छूती हुई कीमतों के कारण तो इस कानून की प्रासंगिकता और भी अधिक बढ़ गई है। किंतु राष्ट्रीय आर्थिक सलाहकार परिषद ने एक गरीब परिवार को पैंतीस किलो से अधिक अनाज प्रदान करने से स्पष्ट इंकार कर दिया है। जबकि पांच व्यक्तियों के गरीब मेहनतकश परिवार को सत्तर किलो प्रतिमाह अनाज चाहिए। भारत तईस करोड़ टन खाद्यान्न प्रतिवर्ष उत्पन्न करता है और इसमें सरकारी खरीद महज पांच करोड़ टन की ही है। देश के सभी नागरिकों को सकल खाद्य का अधिकार प्रदान करने स्थान पर, यदि हुकूमत केवल गरीबों के लिए यह प्रावधान करती तो संभवतया यह सार्थक तौर पर लागू किया जा सकता था। भारत में प्रति व्यक्ति खाद्यान्न पदार्थो की उपलब्धता पांच सौ ग्राम से कम है, जबकि चीन में यह तीन किलो ग्राम है। चीन की आबादी भारत से केवल 20 करोड़ ही अधिक है और वह भारत के 23 करोड़ टन के मुकाबले 50 करोड टन खाद्यन्न पैदा करता है। चीन अपनी आबादी को बाकायदा कंट्रोल कर चुका है और भारत की आबादी अबाध गति से बढ़ रही है। आखिरकार फिर कैसे भारतवर्ष की सरकार ऐसी नीतियों के चलते इतनी विशाल आबादी का पेट भर सकेगी, जिन आर्थिक नीतियों के कारणवश दशकों से कृषि और किसान तो देश के आर्थिक हाशिए पर फेंक दिए गए हैं।
राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून की सार्थकता तभी मुमकिन हो सकती है, जबकि सर्वप्रथम उस जमीन की हिफा़जत की जाए जोकि खाद्य पदार्थो मुख्यत: अनाज, दाल, सब्जी, और फलों को पैदा करती है। उस जल की हिफा़जत हो सके जोकि वर्षा के रूप में सूखी जमीन को सरसब्ज करता है और सूखे के हालत में धरती की कोख से निकल कर जमीन को जिंदगी प्रदान करता है। उन तमाम वर्षा वनों की हिफाजत हो जोकि सैलाब और बाढो़ को रोकते आए हैं। उस अन्नदाता किसान की हिफाज़त हो जो शस्यशामला धरा पर अपना खून पसीना एक करके समस्त देश का पेट भरता रहा है। इन तमाम सुरक्षाओं के आभाव में खाद्य सुरक्षा कानून की बात एकदम ही बेमानी है।
केंद्रीय हुकूमत को कृषि के विकास की कितनी चिंता रही है। लालकिले से बोलते हुए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा था कि कृषि विकास दर को सात फीसदी तक बढाने तक की सरकार कोशिश करेगी। आजकल यह दर महज तकरीबन ढाई फीसदी है। भारतीय कृषि के समुचित विकास की खातिर हुकूमत ने एक सरकारी कमेटी का गठन अंजाम दिया है। इस कमेटी में कृत्रिम बीज उत्पादक मोसोंटो और कारगिल कंपनियों के नुमाइंदे शामिल किए गए। यकी़नन अब खेती की तरक्की के लिए कृत्रिम बीजों के उपयोग को बढावा दिया जाएगा। साथ ही साथ उपज का बचाने के के लिए पुरानी तर्ज पर ही विदेश से इंर्पोटेड कीटनाशक दवाओं को भी तरजीह प्रदान की जाएगी। इस सब कवायद का फायदा किसे मिलेगा इसमें अब कोई शक ओ शुबा नहीं होना चाहिए। देश का किसान इससे और अधिक कंगाल होगा और देशी विदेशी कंपनियां और अधिक मालामाल हो जाएगीं।
केंद्रीय हुकूमत का विज़न डाक्यूमेंट वर्ष 2020 बयान करता है कि सकल राष्ट्रीय उत्पादन में कृषि के 14 फीसदी योगदान को घटाकर केवल 6 फीसदी तक लाना है। एक तरफ सरकार का यह लक्ष्य है और दूसरी तरफ राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून की खोखली बातें हैं। शुरू से ही सरकारी नीतियों के कारण सकल राष्ट्रीय उत्पादन में कृषि का योगदान निरंतर ही घटता चला गया। प्रथम पंचवर्षीय योजना के वक्त़ यह 53 फीसदी था जोकि अब मात्र 14 फीसदी रह गया। आजकल देश की आबादी का सत्तर फीसदी किसानों का है जोकि सन् 2020 तक 60 फीसदी रह जाएगी। 60 फीसदी किसान सकल राष्ट्रीय उत्पादन में केवल 6 फीसदी का ही योगदान करेंगें, तो फिर किसान कितने और अधिक गरीब हो जाएगें। शासकीय नीतियों के कारण भारत में खेती बाडी़ तो एक जबरदस्त घाटे का सौदा बन ही चुकी है। इन हालात के जारी रहते तकरीबन 70 फीसदी किसान कर्ज कि बोझ तले दबा हुआ है। किसान की उपज का मूल्य निर्धारित करने के लिए जो मापदंड सन् 1949 में अपनाया गया था, वह तो बदस्तूर आज भी जारी है। कृषि और किसान की भयावह लूट खसोट का स्पष्ट मकसद रहा, देश में औद्यौगिकरण की रफ्तार को और तेजतर करना। युगों से किसानों और मजदूरों के हिस्से के धन की लूट से ही जबरदस्त पूंजी संग्रह होता आया है। केवल यही वजह रही कि किसान की उपज का मूल्य निर्धारण हूकुमत ने अपने ही हाथों में ले रखा है । मुक्त व्यापार को और खुले बाजार को अपना सबसे अहम सिद्धांत करार देने वाले पूंजीपति गण और उनके हिमायती बुद्धिजीवी सरकार इस रीति नीति पर खामोश खडे़ हुए हैं। किसानों को सरकारी बैंकों से हासिल होने वाले कर्ज पर चक्रवृद्धि ब्याज का प्रावधान रहा है। अंग्रेजों के काल तक में यह कानून था कि ब्याज किस भी सूरत में मूलधन से ज्यादा नहीं हो सकेगा। अब इस आजादी के दौर में कोई क्या कहे और क्या सुने। किसानों का मूलधन से अनेक गुना ब्याज अदा करना पड़ता है। जो राहतें और सहूलियतें किसानों को प्रदान करने का डंका सरकार बजाती है वह तो उस तमाम लूट का एक हिस्सा मात्र है जो किसान से की जाती रही है। इन्हीं विषम हालात के कारण विगत वर्षो में लगभग देश के दो लाख किसान आत्मघात के विवश हो चुके हैं।
देश को यदि वास्तव में खाद्य सुरक्षा प्रदान करने की नीयत हुकूमत की है तो स्पेशल इकानमिक जोन(सेज) की कारपोरेट साजिश को परित्याग करके किसानों की छोटी जोतों को लाभकारी बनाने का संजीदा और समुचित प्रयास करना होगा। अन्यथा किसानों की बर्बादी और उनकी लाशों पर अपनी मखमली सेज सजाने वाली आर्थिक नीतियों के निर्माता देश को कैसी खाद्य सुरक्षा दे सकेगें। ग्लोब्लाइजेशन का नारा बुंलद करने वाले हो अथवा शाइनिंग इंडिया की दुहाई देने वालो की आर्थिक नीतियों ने किसान और कृषि को तबाह कर दिया है।