अदालती कार्यवाही का सम्मान करे कांग्रेस

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संदर्भ-नेशनल हेराल्ड मामलाः-

प्रमोद भार्गव

देश के प्रथम व प्रतिष्ठित राजनीतिक गांधी परिवार की पुत्रवधु सोनिया गांधी और उनके पुत्र राहुल के परिप्रेक्ष्य में कांग्रेस को कोई हंगामा खड़ा करने की बजाय, अदालती कार्यवाही का सम्मान करने की जरूरत है। दरअसल दो हजार करोड़ रुपए के नेशनल हेराल्ड से संबंधित स्वामित्व व परिसंपत्तियों के हस्तांतरण से जुड़ा एक मामला निजी इस्तगासे के तहत निचली अदालत में विचाराधीन है। याचिकाकर्ता सुब्रामण्यम स्वामी ने अदालत में दस्तावेजी साक्ष्य प्रस्तुत करके यह दावा किया है कि अखबार का मालिकाना हक रखने वाली कंपनी ‘द एसोसिएट्स जर्नल्स लिमिटेड‘ के स्वामित्व और परिसंपत्तियों के हस्तांतरण में धोखाधड़ी की गई है। इससे लाभान्वित होने वाले कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और उपाध्यक्ष राहुल गांधी हैं। न्यायालय ने पहली नजर में इस मामले को सुनने योग्य माना और सोनिया व राहुल को निजी तौर पर अदालत में पेश होने के लिए समन जारी किए। पहले मां-बेटे को 8 दिसंबर को पेश होना था,लेकिन पेश होने की बजाय कांग्रेस ने सुनियोजित ढंग से संसद में न्यायालयीन लड़ाई को राजनीतिक जंग में बदलने में जुट गई है। अब 19 दिसंबर को सोनिया-राहुल समेत 5 अन्य व्यक्तियों को अदालत में निजी तौर पर हाजिर होने का आदेश दिया है। इसके खिलाफ कांग्रेस दिल्ली उच्च न्यायालय भी गई थी,लेकिन कोई राहत नहीं मिली। बल्कि इस अदालत ने यह भी कहा कि पहली नजर में आरोप पुख्ता लग रहे हैं। वैसे भी अदालती मुद्दे को हंगामे का हथियार बनाने की कवायद स्वतंत्र न्यायापालिका पर अविश्वास करना  है। अप्रत्यक्ष रूप से न्यायालय की अवमानना भी है ?

नेशनल हेराल्ड का मामला नया नहीं है। जनहित याचिकाएं दायर करने के बुद्धि विशेषज्ञ डाॅ सुब्रामण्यम स्वामी ने इस प्रकरण से जुड़ी याचिका 2013 में दाखिल की थी। तब केंद्र में प्रत्यक्ष रूप से डाॅ मनमोहन सिंह के नेतृत्व में संप्रग सरकार वजूद में थी,लेकिन उसे अप्रत्यक्ष रूप से चला सोनिया गांधी रही थीं। संसद में हंगामा खड़ा करके आरोप लगाए जा रहे हैं कि यह बदले की कार्यवाही है। राजनीतिक प्रतिशोध के चलते झूठा फंसाया जा रहा है। साफ है,सोनिया,राहुल अपने को फंसता देख जानबूझकर मामले को सियासी साजिश करार देने में लगे हैं। यहां सोचने की जरूरत है कि वाकई न्यायापालिका राजनीति की कठपुतली है तो फिर 2013 में जब स्वामी ने अदालत में याचिका दाखिल की थी,तब अपनी राजनीतिक ताकत का इस्तेमाल इस याचिका को खारिज कराने में क्यों नहीं किया ? याचिकाएं लगाने में सिद्धहस्त स्वामी ने कोई इकलौती यही याचिका दाखिल नहीं की,वे कई जनहित याचिकाएं लगाकर अपनी कानूनी लड़ाई को परिणाम तक पहुंचाने में सफल हुए हैं। टूजी स्पेक्ट्रम घोटाले से जुड़ी याचिका भी स्वामी ने शीर्ष न्यायालय में लगाई थी। 1.76 हजार करोड़ के इस घोटाले की याचिका लगाने के समय भी केंद्र में कांग्रेस सरकार थी और सोनिया उसकी सर्वेसर्वा थीं। बावजूद पुख्ता दस्तावेजी साक्ष्य होने के कारण कांग्रेस के सहयोगी दल के नेताओं को जेल के सींखचों में जाना पड़ा था। यदि न्यायालय राजनेताओं के दिशा-निर्देषन के अनुसार वाकई चलती हैं,तो माननीय सोनिया जी संप्रग सरकार की भद् पिटवाने वाली इस कार्यवाही को क्यों नहीं रोक पाईं ? गोया पूरा देश जानता है कि अदालतों का राजनीतिक हस्तक्षेप से कोई बास्ता नहीं है। न्यायालयीन प्रक्रिया स्वतंत्र रूप से कानूनी दायरे में गतिशील रहते हुए अंतिम परिणाम तक पहुंचती है। इस लिहाज से कांग्रेस द्वारा वर्तमान राजग सरकार को दोषी ठहराना, समझ से परे है।

नेशनल हेराल्ड से जुड़ा मामला बेहद गंभीर है। इस धोखाधड़ी में देश का शीर्ष राजनीतिक परिवार कठघरे में है। क्योंकि प्रथम दृश्टया दस्तावेजी साक्ष्यों की पड़ताल करने से ही यह साफ हो जाता है कि दाल में कुछ काला है। दरअसल एजेएल नेशनल हेराल्ड अखबार की मालिकाना कंपनी है। कांग्रेस ने एजेएल को 90 करोड़ का कर्ज दिया। इसके बाद 5 लाख रुपए की अंश पूंजी से यंग इंडियन कंपनी बनाई गई। जिसमें सोनिया व राहुल की 38-38 फीसदी भागीदारी तय की गई। शेष बची 24 प्रतिशत की हिस्सेदारी कांग्रेस नेता और पार्टी के कोशाध्यक्ष मोतीलाल बोरा और आॅस्कर फर्नाडीज को दी गई। इसके बाद एजेएल के 10-10 रुपए के नौ करोड़ शेयर यंग इंडियन को दे दिए गए। इसके बदले यंग इंडियन को कांग्रेस का कर्ज भी चुकाना था। 9 करोड़ शेयर के साथ यंग इंडियन का एजेएल की 99 फीसदी हिस्सेदारी मिल गईं। इसके बाद उदारता दिखाते हुए कांगे्रस ने 90 करोड़ जैसी बड़ी धनराशि का ऋण भी माफ कर दिया। मसलन कागजों में एक कंपनी का कृत्रिम वजूद खड़ा करके एजेएल का स्वामित्व बड़ी आसानी से हस्तांतरित कर दिया गया। स्वामी ने अदालत में अपनी दलील पेश करते हुए इस प्रकरण में हवाला करोबार को अंजाम देने का संदेह भी जताया है। जाहिर है,मामला बेहद गंभीर है। बावजूद कांग्रेस अपनी खीज संसद से सड़क तक में मुखर करने से बाज नहीं आ रही है।

वास्तव में जरूरी तो यह था कि एक जिम्मेदार और अनुभवी राजनीतिक दल होने के नाते सोनिया और राहुल समेत सातों आरोपियों को अपने निर्दोश होने के सबूत तार्किक रूप से अदालत में पेश करने थे। सरकार को जिम्मेदार ठहराने और संसद को हंगामे के हवाले करने की बजाय कानूनी प्रक्रिया के अनुरूप व्यवहार जताने की आवश्यकता थी। किंतु संसद की कार्यवाही को बाधित करने के साथ-साथ अदालती कार्रवाही पर भी अंगुली उठाना,सर्वथा अनुचित आचरण का प्रतीक है। सोनिया एवं राहुल अदालत में पेश होना शायद अपनी अवमानना मानकर चल रहे हैं। इसलिए 8 दिसंबर को राहुल बाढ़ पीढ़ितों को सांत्वना देने का बाहना बनाकर चेन्नई चले गए थे और सोनिया ने संसद में देशहित से जुड़े मुद्दों पर बहस करने का बहाना बना दिया था। जबकि इस दिन सोनिया और उनकी कांग्रेस ने संसद में कितना विधायी कार्य किया,यह पूरे देश की जनता ने समाचार चैनलों के माध्ययम से देख लिया है। इससे भी एक कदम आगे बढ़कर तिलमिलाई सोनिया ने पत्रकारों द्वारा अदालती समन के बाबत पूछे सवाल के जबाव में कहा,‘मैं इंदिरा गांधी की बहू हूं। लिहाजा किसी से डरती नहीं हूं।‘ चूंकि यह कथन अदालत की प्रक्रिया के जबाब में था,इससे साफ है कि सोनिया को अदालत में चल रही प्रक्रिया की कोई परवाह नहीं है। एक तरह से उनका यह बयान  अदालत की अवमानना है।

इंदिरा गांधी की बहू होने से आपको कांग्रेस की राजनीतिक विरासत संभालने की जिम्मेदारी मिल जाना तो उचित है,किंतु यह कतई संभव नहीं है कि इस नाते आपको सरकार,संसद और न्यायालय से भी बड़ी ताकत मान लिया जाए ? याद रहे,सोनिया जिन इंदिरा गांधी की बहू होने का दंभ भर रही हैं,उन इंदिरा गांधी ने अदालत की कार्रवाही का सामना करने में कभी हिचक नहीं दिखाई। रायबरेली चुनाव में धांधली के आरोप की सुनवाई के दौरान श्रीमती गांधी 18 मार्च 1975 को इलाहबाद उच्च न्यायालय में हाजिर हुई थीं,वह भी प्रधानमंत्री रहते हुए। इस नाते वे देश की पहली प्रधानमंत्री थीं,जो अदालत के समन के सम्मान में अदालत में हाजिर हुई थीं। हालांकि मनमाफिक फैसला नहीं होने पर,इंदिरा गांधी जून 1975 में आपातकाल घोषित करने से भी नहीं चूकी थीं। इसके बाद जब 1977 से 1979 के बीच जनता पार्टी केंद्र में सत्तारूढ़ थी,तब भी उन्हें कई मर्तबा अदालत  के कठघेरे में खड़ा होना पड़ा था। इस लिहाज से सोनिया को अपनी सास से अदालत का सम्मान करने का सबक लेने की जरूरत है,न कि अवहेलना करने की ?

इंदिरा गांधी की सीख लेते हुए अब भी अवसर है कि मां-बेटे 19 दिसंबर को अदालत में बेहिचक हाजिर हों और न्यायालयीन कार्रवाई को आगे बढ़ाने में सहयोग दें। संभव है जिरह और न्यायिक प्रक्रिया की कसौटी पर स्वामी के साक्ष्य बेदम साबित हो जाएं और अदालत मामला ही खरिज  कर दे ? यह एक उम्मीद है,लेकिन यदि स्वामी जैसी कि दलील दे रहे हैं कि प्रस्तुत साक्ष्य कूटरचित और कथित रूप से व्यक्तियों को लाभ पहुंचाने वाले हैं और अदालत उन्हें सही पाती है तो कानून में ऐसे आरोप में जिस सजा का प्रावधान है,उससे आरोपियों का बच निकलना भी मुश्किल होगा ? बेहतर है कांग्रेस अदालत पर दबाव बनाने और उसे राजनीतिक मोहरा घोषित करने की बजाय इस पूरे पहलू को कानूनी प्रक्रिया के दायरे में मानकर चले। अन्यथा कांगे्रस का इस मुद्दे के परिप्रेक्ष्य में अनर्गल प्रलाप,जनता में यह संदेश देगा कि हमारे नेता स्वंय को कानून से ऊपर मानते हैं। दलों के बीच वैसे ही कटुता तीव्र है,ऐसे में नेशनल हेराल्ड को लेकर भी हंगामा लंबा चलता है तो यह स्थिति देश के लिए दुर्भाग्यपूर्ण साबित होगी।

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  1. इंदिरा गांधी के बाद कांग्रेसियो ने इस गौरवशाली अतीत वाली पार्टी को गांधी परिवार की प्राइभेट लिमिटेड कम्पनी में रूपांतरित कर दिया है। लोकतन्त्र को परिवार तन्त्र बना दिया। इतने बड़े लोकतन्त्र में प्रमुख विपक्षी दल का मतलब माँ सोनिया और बेटे राहुल एवं उनके चमचो की पार्टी बन जाना गलत बात है। सुब्रह्मनियम स्वामी एक लम्बे अरसे से नेशनल हेराल्ड में अनियमत्तता की बाते उठाते आ रहे है, इसे एक कानूनी लड़ाई के रूप में सोनिया एवं राहुल ले, और अदालत एवं कानून को अपना काम करने दे। देश के लिए यह बड़ा प्रश्न नही है, वितण्डा खड़ा न करे। मीडिया भी मामले को अधिक तरजीह ना दे, और भी है गम जमाने में।

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