राष्ट्रीयता से दूर राष्ट्रीय खेल

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शशांक शेखर

किसी भी देश के लिए राष्ट्र से जुड़े हरेक पहलु का संरक्षण करना एक नैतिक जिम्मेदारी होती है। फिर चाहे वो ऱाष्ट्र ध्वज हो , राष्ट्रीय गान हो , राष्ट्रीय प्रतीक हो, राष्ट्रीय पशु-पक्षी हो, राष्ट्रीय धरोहर हो या फिर राष्ट्रीय खेल हो। भारत का वर्तमान राजनीतिक तंत्र सरकारी नीति और वोट बैंक के ईर्द-गिर्द ही घुमती रहती है एसे मैं सबसे विपरित असर राष्ट्रीयता से जुड़े हरेक पहलु पर ही पड़ा है।

भारतीय संविधान ने ऱाष्ट्रीय ध्वज, राष्ट्रीय गान औऱ राष्ट्रीय प्रतीक पर जितना ध्यान दिया अगर उतनी ही कर्तव्यनिष्ठा राष्ट्रीय खेल पर भी दिखाई होती तो भारतीय हॉकी भी ऑस्ट्रेलिय़ाई क्रिकेट और अमेरिकी बेसबॉल की तरह अर्श पर होती। भारत ने काफी सोच – समझ कर हॉकी को राष्ट्रीय खेल का दर्जा दिया था साथ ही शुराआती धमाकेदार जीत ने इसके चयन को सोलह आना सही ठहराया था, पर वक्त के साथ जैसे-जैसे संपूर्ण राजनीति वोट और सत्ता की हो कर रह गई वैसे-वैसे हॉकी राष्ट्रीयता से दूर होती गई।

कभी जसदेव सिंह की कॉमेंटरी ईंदरा गाधी तक की दिल की धड़कन बढ़ा देती थी ,पर आज आम लोगों से लेकर प्रधानमंत्री तक को हॉकी से विकर्षण हो गया है। आज हमारे राष्ट्रीय खेल की एसी दूर्दशा हो गई है कि ओलंपिक में क्वालिफाई करने के लिए भी एड़ी-चोटी का जोड़ लगाना पड़ता है। जहां हॉकी को लेकर ही दो फांक की राजनीति हो वहां इससे अधिक की अपेक्षा बेइमानी होगी।

हमारे प्रधानमंत्री तक क्रिकेट के दर्शक दिर्घा में लंबा समय बिता देते हैं,पर राष्ट्रीय खेल नीति पर ध्यान देने के लिए समय की तंगी में रहते हैं। फिर ओलंपिक में क्वालिफाई कर लेने पर ही खिलाड़ियों के लिए सराकारी ख़जाना खोल दिया जाता है। अगर यह आर्थिक पुरस्कार विकास के रुप में मिलते रहते तो हॉकी और देश दोनों का सम्मान होता।

मैदान पर खेले जाने वाले सबसे लंबे खेल से सत्तर मिनट का यह खेल मात्र सरकारी सौतेलेपन के कारण ही रसातल की ओर है। पंजाब,हरियाणा,झारखंड,ओडिसा के आलावा अन्य प्रदेश के खिलाड़ी तो विरले ही मिलते हैं। 28 राज्य और 7 केंद्र शासित प्रदेश में से मुश्किल से 6-7 प्रदेश के खिलाड़ी भारतीय टीम का सम्मान बढ़ाते हैं। दिल्ली से लेकर असम और दक्षिण भारत में कई जगह खूले मैदानों में क्रिकेट और फुटबॉल खेलते बच्चे मिल जाते हैं, पर हॉकी स्टिक लेकर मैदान पर दौड़ लगाते लड़ाके विरले ही मिलते हैं। राष्ट्रीय खेल का राष्ट्रीय स्टिक आज मैदानों से ज्यादा माड़-पीट के काम आता दिखता है। गांधी के इस भारत में राष्ट्रीय खेल का यह सम्मान किसे रास आता है यह पता नहीं।

भारत सरकार को राष्ट्रीय पशु संरक्षण और राष्ट्रीय ध्वज के अपमान के विरुद्ध होने वाले मुकदमों की तरह ही राष्ट्रीय खेल के प्रति कठोर नियम बनाने होंगे। सरकारी स्कुलों से लेकर कॉलेंजों तक हॉकी को अनिवार्य करना होगा ताकि हॉकी इस देश में जिंदा रह सके और धनराज पिल्लै की तरह कोई ये न दोहरा पाए कि “मैं अपने बेटे को कभी हॉकी नहीं खेलने दूंगा”।

 

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