सम्पूर्ण क्रांति का वाट जोहते बोधगया के नवभूधारी महादलित

-देवेन्द्र कुमार- Atrocities-on-Dalits_newaa
महात्मा बुद्ध की ज्ञानस्थली, डॉ. विनियन से लेकर महापंडित राहुल सांकृत्यायन , स्वामी सहजानन्द सरस्वती की कर्मस्थली और विभिन्न नक्सली समूहों के लिए प्रयोगस्थली रही बोधगया में आज से करीबन चार दशक पूर्व एक ऐतिहासिक भूमि संघर्ष के परिणामस्वरुप बोधगया महंत के कब्जे से तकरीबन दस हजार एकड़ भूमि महादलित परिवारों के बीच वितरित की गई थी। इस भूमि संघर्ष का नेतृत्व जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में गठित छात्र – युवा संघर्ष वाहिनी ने किया था ।
हालांकि वाहिनी के इस क्षेत्र में प्रवेश के पहले भाकपा, सोशलिस्ट पार्टी और विभिन्न नक्सली संगठन इस क्षेत्र में काम कर चुके थें और इस क्रम में एक भाकपा कार्यकर्ता महंत के गुर्गों से लड़ते हुए अपनी शहादत भी दे चुका था। लेकिन महादलित -भूमिहीनों के इस संघर्ष को मुकाम तक पहुंचाया था- छात्र – युवा संघर्ष वाहिनी और शांतिमय संघर्ष के उनके अनुठे प्रयोग ने ही। तब वाहिनी के इस भू-मुक्ति आन्दोलन में देश के कोने-कोने से युवाओं ने आकर अपनी भागीदारी दी थी, स्कूल-कॉलेज छोड़ छात्रों ने पुलिस की लाठियां खाईं और आखिरकार करीबन दस हजार एकड़़ जमीन महादलित जाति के भूमिहीनों के बीच बांट दी गई। इसी क्रम में वाहिनी ने मस्तीपुर में महंत के गुर्गों के हाथों अपने दो साथियों को खो दिया और इसके प्रत्युतर में ‘हमला चाहे जैसा हो ,हाथ हमारा नहीं उठेगा‘ की नीति से विचलित होते हुए वाहिनी की ओर से किये गये रक्षात्मक कार्रवाई में बोधगया महंत का एक गुर्गा खेत रहा। पर लम्बे संघर्ष और शहादत के बाद मिली सफलता की वर्तमान स्थिति बेहद अफषोसजनक है, नवभूधारी और खास कर भुईयां जाति जो वाहिनी के भू -आन्दोलन का रीढ़ था , आज फिर से भूमिहीन हो गया है। और सिर्फ वाहिनी के भू आन्दोलन से मिली जमीन ही नहीं भूदान आंदोलन के तहत मिली जमीन भी इसके हाथ से निकल चुकी है। यद्धपि भूदान आंदोलन से मिली जमीन का हस्तांतरण उस गति से नहीं हुआ, पर इसका कारण मात्र इतना है कि ये सारे जमीन बंजर और असिंचित थे, इसमें पटवन की व्यवस्था आज तक नहीं की गई। जबकि वाहिनी के भू-आन्दोलन के तहत मिली जमीन पुरी तरह सिंचित और बहुफसली थी। यही कारण है कि वाहिनी के भू आन्दोलन के तहत वितरित जमीन में भूदान की तुलना में भू हस्तांतरण की प्रक्रिया काफी तेज रही, कूल मिलाकर भू-दान और वाहिनी के तहत बंटी जमीन का 80 से 90 फीसदी हिस्सा नवभूधारियों के हाथों से निकल चुका है
महुआ और मुसहर का संबंध पुराना और अटूट है। मुसहर और महुआ की संस्कृति की व्यापक चर्चा होती रही है। जहां-जहां भी महुआ आबाद है मुसहर मस्त हैं। यद्यपि भुइयां – मुसहर जाति मुख्यतः एक मजदूर जाति रही है। खेती से इनका संबंध तो पुराना है पर हैसियत वही मजदूर की ही रही है और मजदूर आज में जीता है। आने वाले कल की चिन्ता कल की जायेगी, यही उसकी जीवन दृष्टि रही है। इसके विपरीत किसान कल की आस में आज भूखा रह कर भी अपने बीज को सहेजे रखता है। बरस दर बरस का बाढ़ और सुखाड़ उसकी जिजीविषा को तोड़ नहीं कर पाता। जीवन दृष्टि में यही अंतर भू-हस्तांतरण का एक बड़ा कारण है ,कारण और भी है भू-वितरण के बाद भुईयां जाति के बीच में रह कर, उससे अपना संबंध बनाये रख कर उसके जीवन दृष्टि में बदलाव लाने की कोई कोषिष नहीं की गई। और न ही उस अधिसंरचना का विकास किया गया जो किसानी के लिए जरुरी है। यही कारण है कि धीरे-धीरे नवभूधारियों से जमीन निकलता चला गया। भू-हस्तांतरण के कुछ नमुनों को देखने से ही इसकी पुष्टि हो जायेगी।
प्रख्ंाड डोभी , ग्राम हबीबपुर में बोघगया महंत की 119 एकड़ जमीन वितरित की गई। इसमें से करीबन 55 एकड़ जमीन बेच दी गई है । इसी गांव में 400 एकड़ जमीन सामूहिक खेती के लिए रखी गई थी, पर आज यह जमीन सामूहिक खेती का प्रयोग के लिए बांट जोह रही है । ग्राम बिजा प्रखंड डोभी में 800 एकड़ जमीन वितरित की गई, इसमें से 150 एकड़ जमीन बंधक रख दी गई, इसी गांव में भूदान की 500 एकड़ जमीन वितरित की गई और इसमें से 400 एकड़ जमीन बंधक रख दी गई, ग्राम परवतिया प्रखंड डोभी में बोघगया महंत की 15 एकड़ जमीन वितरित की गई, इसमें से 9 एकड़ जमीन बंघक रखी जा चुकी है ,जयप्रकाष नगर प्रखंड डोभी इस गांव में खुद जेपी आये थे ,भुईयां जाति के साथ घंटों बैठ कर भविष्य का खंाचा तैयार किया था,विकास के सपने संजोये थें और इन्ही के नाम पर इसका नामांकरण जयप्रकाष नगर किया गया था ,यह वही गांव है ,जहां प्रसिद्ध पत्रकार मणिमाला ने अपने हाथों से हल चलाकर पृत्रसतात्मक सत्ता को चुनौती पेष की थी , और उस प्रचलित धारणा को तार -तार किया था कि हल और फावला पर सिर्फ और सिर्फ पुरुषों का एकाधिकार है। इसी गांव में भूदान की 156 एकड़ जमीन वितरित की गई थी ,इसमें से अभी भी 125 एकड़ जमीन परती पड़ी है,मात्र 31 एकड़ में खेती होती है और इसमें से भी 12 एकड़ जमीन बेच दी गई है। इस गांव में भुईयां जाति के पास जीविका का मुख्य साधन पत्थर तोड़ स्थानीय बाजार में बेचना है , सुबह से लेकर षाम तक वृद्ध महिलाएं से लेकर छोटे-छोटे बच्चे तक इसी में लगे रहते हैं। ग्राम कुरमामा टोला बलजोरी बिगहा प्रखंड बाराचट्टी में बोधगया मंहत का 25 एकड़ और भूदान का 100 एकड़ जमीन वितरित की गई भूदान की जमीन सिंचाई की कोई सुविधा नहीं रहने के कारण परती पड़ी है, इसमें से 50 एकड़ पर वनविभाग की ओर से नवभूधारियों की सहमति से वृक्षारोपण करवा दिया गया है जबकि बोधगया महंत की 25 एकड़ जमीन में से 22 एकड़ बंधक रखी हुई है। ग्राम लक्ष्मीपुर, प्रखंड मोहनपुर में 100 एकड़ भूदान और 119 एकड़ बोधगया महंत की जमीन वितरित की गई, बोधगया महंत की जमीन में से 35 एकड़ पर गाांव के दबंग जातियों ने कब्जा कर लिया जबकि 30 एकड़ जमीन बेच दी गई है। ग्राम धरहरा ,प्रखंड मोहनपुर में डंगरा बाजार के व्यापारी- बनीया जातियों को 35 एकड़ भूदान की जमीन वितरित की गई, इसमें से 26 एकड़ जमीन अवैध तरीके से हस्तांतरीत कर दी गई, मतलब की बेच दी गई। व्यापारी जातियों ने खेती से बेहतर व्यापार माना ,परस्पर सहमति से अवैध हस्तांतरण संपन्न किया गया और इस राशि को व्यापार में लगाा दिया गया, कइयों ने जमीन बेच कर मकान बनाना बेहतर माना । ग्राम बगुला, बोधगया महंत का पहला और सबसे प्रमुख मठ था, आन्दोलन का केन्द्र बिन्दु भी यही गांव था, देश के कोने -कोने से बगाावत का तेवर और सम्पूर्ण क्रांति का सपना संजोये युवाओं की टोली यहीं जुटती थी , इसी गावं में डॉ. विनियन कम उम्र किशोरों – युवकों के साथ कबड्डी -छुर्र आदि देसी- परंपरागत खेल खेलते हुए बातों ही बातों में ,खेल खेल में युवाओं को मार्क्सवादी अभिधारणा और संकल्पना से लैष किया करते थे। इसी गांव बगुला में बोधगया महंत की 225 एकड़ जमीन वितरित की गई थी आज इसमें से 210 एकड़ जमीन बंधक भुइयां जाति के हाथों से निकल चुकी है, ठीक यही हाल ग्रााम धरहरा में महंत की वितरित 222 एकड़ जमीन की है, ग्राम बगहा, प्रखंड मोहनपुर यहां महंत की 200 एकड़ जमीन वितरित की गई, इसमें से 137 एकड़ जमीन बंधक रखा हुआ है, इसी का बगल गांव बान्देगड़ा में 40 एकड़ जमीन वितरित की गई, आज इसमें से 34 एकड़ जमीन बंधक रखा हुआ है।
यहां, यह याद रहे कि जमीन का यह हस्तांतरण सवर्ण जातियों की ओर नहीं हुआ, बल्कि गांव के ही मघ्यम पिछड़ी और दबंग पिछड़ी जातियों की ओर हुआ है, मध्यम पिछड़ी जातियों का सामाजिक -आर्थिक स्तर दलित-महादलित जातियों से बेहतर नहीं है, पेशा आधारित जातियों की स्थिति तो कई जगहों पर महादलितों की तुलना में भी बदतर है। इन मध्यम पिछड़ी जातियों ने स्वास्थ, शिक्षा और आवास की उपेक्षा कर, भोजन में कटौती कर, इस जमीन के टुकड़े को खरीदा या बंधक रखा है। यद्यपि इस जमीन का हस्तांतरण ही अवैध है। पर इन मध्यम जातियों से जमीन का महादलितों की ओर पुनःहस्तांतरण की कोशिश एक त्रासदपूर्ण सामाजिक तनाव पैदा करेगा और साथ ही सामाजिक सद्भाव की प्रक्रिया को बाधित भी।
यदि सम्पूर्णता में देखा जाय तो जमीन प्राप्त करना एक बड़ी लड़ाई का एक बेहद छोटा सा हिस्सा था। इसके बाद सामाजिक , आर्थिक और राजनीतिक बदलाव की लड़ाई लड़ी जानी थी। सामूदायिक विकास के विभिन्न प्रयोग खड़े किये जाने थे। पर छात्र पृष्ठभूमि से आये नेतृत्व के लिए यह मात्र भू मुक्ति का आन्दोलन था। सामाजिक- राजनीतिक संरचना में बदलाव का बुनियादी संघर्ष नहीं। एक छात्र के नाते समता -समानता का संघर्ष उन्हें प्रेरित तो करता था पर कुल मिला कर यह उनके लिए एक पार्ट टाइम आन्दोलन ही था और तब इस आन्दोलन का षंखनाद दूर तक कैसे जाता, अपने मुकाम तक कैसे पहुंचता। इसीलिए तो आज मुसहर -भुइयां और भी विकट परिस्थितियों में जीने को विवष है। एक बात नोट करने वाली है कि बोधगया भू-मूक्ति के पूर्व तक अपने तमाम त्रासदपूर्ण जीवन के बावजूद भी मुसहर-भुइयां को कभी किसी ने भीख मांगते नहीं देखा और आज वे बोधगया के विभिन्न मंदिरों में भिक्षाटन करते देखे जा सकते हैं। लालच और प्रलोभन में उनका एक बड़ी संख्या में धर्मान्तरणा करवाया जा रहा है, स्थिति बिगड़ी या सुधरी ?
पर, दूसरी तरफ इस धारा से निकला नेत्त्व बड़े-बड़े मंचों और संस्थाओं से जुड़ कर किसी न किसी रुप में इस आन्दोलन का पॅकेजिंग कर रहा है, कुछ ने राजनीति की राह पकड़ अपने जीवन को सुगम बना लिया, तो किसी ने बोधगया मठ के समानान्तर मठ गढ़ – बना अपने को ही मठाधीष में तब्दील कर लिया, हां, आज भी सम्पूर्ण क्रांति का वाट जोहते लोगों की राह दुश्वार जरूर रही। कइयों ने तो आज भी हिम्मत नहीं खोया है, दम नहीं तोड़ा हैं। बोधगया भू-आन्दोलन के केन्द्र में रहे कौशल गणेश आजाद कहते है कि अपनी तमाम कमजारियों और विफलताओं के बावजूद हमने संघर्ष नहीं छोड़ा, अपने सीमित संसाधनों के बुते ही सही मुसहरों के बीच खड़ा तो हूं। पर सवाल तो यह है कि संसाधनों की कमी तो तब भी नहीं थी, जब इस इलाके में कथित स्वयंसेवी संस्थाओं का मकड़जाल नहीं फैला था, तब यह जमीन सिर्फ तप -त्याग, आन्दोलन और बगावत के लिए जाना जाता था और आज जब बोधगया की तप – त्याग – ज्ञान और संघर्ष – बगावत की जमीन पर करीबन 300 स्वयं सेवी संस्थाओं का मकड़जाल फैला है, सिर्फ भुइयां-मुसहरों के नाम पर कई संस्थाएं करोड़ों की तसील कर रही है, वह बच्चा -बच्ची जो शारीरिक-मानसिक यातना, वंचना-कुपोषण का शिकार हो बरसों पूर्व इस दुनिया को छोड़ चुका है, जिसकी जमीन में भी हड्डी गल चुकी है, उसकी देख -भाल के लिए भी विदेषी दानकर्ताओं से प्रत्येक वर्ष एक निष्चित रकम नियमित रूप से आता रहता है, खैर, यह एक लम्बी कहानी है, कभी और फिलहाल तो हमें ग्राम बगुला के एक युवा मुसहर का वह संवाद याद आता है कि कभी न कभी तो दिन फिरेगा ही, दषरथ मांझाी के वंशज हैं, तुलसीवीर का लहू हमारी रगों में फिरता -तैरता है, क्रांति तो होगी ही, सम्पूर्ण क्रांति का सपना बेकार नहीं जायेगा और अबर हुमच के होगा।

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