क्यों कर रहे हैं नक्सली आत्मसमर्पण ?

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-गिरीश पंकज-
naxali

नक्सलवाद अब धीरे-धीरे दम तोड़ रहा है. यह भी कहा जा सकता है कि खुद नक्सलियों का अपने आप से मोहभंग होता जा रहा है. पिछले एक महीने में छत्तीसगढ़ में लगभग पचास नक्सलियों ने अलग-अलग स्थानों में आत्म समर्पण किये। कहीं दो ने, तो कहीं पांच ने.. आंध्र प्रदेश में भी कुछ नक्सली आत्मसमर्पण कर चुके हैं. इस बीच अनेक नक्सली गिरफ्तार भी हुए हैं. केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने पिछले दिनों घोषणा की थी कि वे नक्सलियों से कोई बात नहीं करेंगे और उनको मुंहतोड़ जवाब देंगे। इस चुनौती को नक्सलियों ने कितनी गंभीरता से लिया यह तो आने वाले समय में पता चलेगा, लेकिन जिस तेजी से नक्सली आत्म समर्पण कर रहे हैं या गिरफ्तार हो रहे है, उसे देख कर तो यही लगता है कि नक्सली निरंतर कमजोर पड़ रहे हैं. सात राज्यों १६० जिलों में फैले नक्सलवाद की चूले अब हिलने लगी हैं। आंध्र प्रदेश में नक्सल आंदोलन काफी कमजोर हो चुका है. पश्चिम बंगाल में उसकी उपस्थिति लगभग शून्य है, बिहार, ओडिशा, झारखण्ड और छत्तीसगढ़ में फ़िलहाल इनके आंशिक उत्पात जारी है, मगर कोई बड़ी वारदात नहीं हुयी है.

इस बीच सरकार ने नक्सली आंदोलन को एक नया नाम दिया है, सरकार इन्हें ‘वामपंथी उग्रवादी’ कहने लगी है. विचारधारा के सहारे हिंसा के रस्ते पर चल रहे नक्सलियों के बारे में छत्तीसगढ़ के पूर्व पुलिस मुखिया विश्वरंजन ठीक फरमाते हैं कि ‘नक्सली हमारी राजनीतिक सोच और संरचना को प्रजातंत्री नहीं मानते। वे हमारी व्यवस्था को शोषण पर आधारित व्यवस्था मानते है.’ विश्वरंजन का यह कथन सही है. नक्सलवाद जब सन 1967 में नक्सलवाड़ी (पश्चिम बंगाल) से शुरू हुआ था, तब यह एक विचारधारा की लड़ाई थी और उसमे शोषणमुक्त समाज की स्थापना की एक ललक भी दिखती थी. तब, इस आंदोलन को समाज के एक वर्ग की सहानुभूति भी मिलने लगी थी. लेकिन जैसे-जैसे यह आंदोलन हिसा की चपेट में आया, समाज से ही दूर होता चला गया. और आज तो हालत यह है कि सभ्य नागरिक नक्सलवाद के नाम से ही कांप उठता है, क्योंकि नक्सलवाद का सीधा मतलब है हिंसा, ख़ूनख़राबा और विध्वंस. पिछले दो दशक के आंकड़े बताते हैं कि नक्सली हिंसा में अब तक लगभग तेरह हजार लोग मारे जा चुके हैं। परिवर्तन के लिए हिंसा के रास्ते को स्वीाकर नहीं किया जा सकता। क्योंकि हिंसक परिवर्तन अंततः हिंसक प्रक्रियाओं से ही जूझते रहते हैं. दुनिया के अनेक देशों, खास कर इस्लामिक देशों की हालत हम देख रहे हैं.

नक्सलवाद से त्रस्त राज्यों के लिए यह सुकून भरी खबर है कि अब अनेक नक्सली मुख्यधारा में लौटना चाहते हैं. जिस तेजी से नक्सली आत्मसमर्पण कर रहे हैं, उसे देखते हुए विशवास किया जा सकता है कि भविष्य में यह संख्या और अधिक बढ़ेगी. आत्मसमर्पण करने वाले तमाम नक्सलियों ने समर्पण के बाद जो बातें पुलिस और मीडिया को बताईं, वो यही है कि नक्सली सिर्फ़ और सिर्फ शोषण कर रहे हैं, उनका लक्ष्य सामाजिक परिवर्तन या शोषण के विरुद्ध लड़ाई नहीं रह गया है. यह चंद लुटेरों का एक गिरोह बन गया है. नक्सलियों के चंगुल से फरार हो कर आत्मसमर्पण करने वाली अठारह साल की युवती सृष्टि अभी हाल में आत्मसमर्पण करके अदम्य साहस का परिचय दिया है, सृष्टि जब तेरह साल की थी, तभी नक्सलियों के बहकावे आकर उनके साथ जंगल चली गयी थी. पांच साल तक वह नक्सलियों के साथ रही, कुछ वारदातों में भी शरीक हुयी लेकिन वो नक्सलियों की कारगुजारियों से ऊब चुकी थी. उसने बताया कि नक्सली खुद बड़े शोषक हैं. नक्सलियों को निकट से देखने के बाद सृष्टि का मोहभंग हुआ और वो मौके की तलाश में थी और एक दिन वह निकल भागी और आत्मसमर्पण कर दिया. अब वह पढ़ना चाहती है, देश के लिए कुछ करना चाहती है. इसके पहले भी जितने नक्सलियों ने आत्मसमर्पण किये सबका यही कहना था की हम मुख्यधारा में शामिल होकर कुछ करना चाहते हैं, हम भटक गए थे, हमें गुमराह किया गया. आत्मसमर्पण करने वालों में उग्र नक्सली वेंकटाकृष्णा प्रसाद उर्फ़ गुड्सा उसेंडी और उसकी पत्नी भी शामिल है. गुड्सा नक्सलियों का प्रवक्ता भी था. कुछ महीने पहले इसने आत्म समर्पण किया था. गुड्सा का भी यही कहना था कि नक्सलवाद की अगुवाई कर रहे नेता हर तरह का शोषण करते हैं और लूट की दौलत अपने परिजनों के पास भेजते रहते हैं। अनेक जोड़ों ने भी पुलिस के समझ आत्मसमर्पण किये, क्योंकि जंगल में साथ रहते उनमें आपस में प्रेमभाव भी जगा और उन्होंने संकल्प किया कि वे एक सभ्य-शालीन नागरिक बनेंगे।

केंद्र सरकार ने नक्सल गतिविधियों की कमर तोड़ने के लिए अभी हाल ही में १९ हजार अतिरिक्त पुलिस बल देने का फैसला किया है. अभी यहां लगभग ४० हजार अर्धसैनिक बल तैनात हैं. १९ हजार अतिरिक्त बल छत्तीसगढ़ सरकार में और हिम्मत आयी है. अन्य राज्यों को भी अर्धसैनिक बल भेजे जा रहे हैं, इस निर्णय के बाद भी नक्सलियों के आत्मसमर्पण की रफ़्तार तेज हुयी है, सरकार ने नक्सलियों से निबटने की जो इच्छाशक्ति दिखाई है, उसे देखते हुए यही लगता है कि आने वाले समय में नक्सलवाद निरंतर कमजोर पड़ता जाएगा. हो सकता है कि केंद्र सरकार को जवाब देने के लिए नक्सली कोई बड़ी वारदात भी करें, मगर यह उनकी हताशा से उपजी प्रतिक्रिया ही कही जाएगी. सच्चाई तो यही है की अब नक्सलियों का मोहभंग होता जा रहा है और वे मुख्यधारा में आने के लिए व्यग्र नज़र आ रहे हैं। इन पंक्तियों के लेखक ने पिछले वर्ष एक उपन्यास लिखा था, ‘टाउनहॉल में नक्सली’. इस उपन्यास में नक्सल समस्या का गांधीवादी समाधान बताया गया था कि नक्सलवाद से जुड़े लोग नागरिकों के प्रतिनिधियों के आग्रह पर अंततः मुख्यधारा में शामिल हो जाते हैं और एक शहर के टाउनहाल में आकर आत्मसमर्पण कर देते हैं. बहुत पहले जयप्रकाश नारायण की अगुवाई में अनेक दस्युओं ने आत्मसमर्पण किया था, पंजाब से आतंकवाद भी ख़त्म हो चुका है, अगर सकारात्मक कदम उठाये जाएं तो नक्सलवाद भी ख़त्म हो सकता है.

केंद्र सरकार को नक्सलियों के विरुद्ध आक्रामक करवाई के पहले एक बार संवाद की कोशिश जरूर करनी चाहिए. जिस तेजी से नक्सली आत्मसमर्पण कर रहे हैं, उसे देख कर यही लगता है की बातचीत के बाद शायद कोई बेहतर परिणाम निकल सके, अगर नक्सलवाद विचारधारा की लड़ाई है और नक्सली शोषणमुक्त समाज चाहते हैं तो उनके अपने एजेंडे भी होंगे. अगर उनके अनुकूल सरकार निर्णय करती है तो कोई कारण नहीं कि नक्सली हिंसक रस्ते पर चले, अगर बातचीत और आश्वासन के बावजूद वे मुख्यधारा में शामिल नहीं होते तो बलप्रयोग किया जाना उचित होगा। यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि बातचीत किये बगैर सीधी कार्रवाई हुई तो जंगल में रहने वाले हजारों आदिवासी बंधुओ की जान पर भी बन आएगी। इसलिए फ़िलहाल आदिवासी क्षेत्रों के विकास की योजनाएं और तेज होनी चाहिए। वनवासी भाइयों को जल, जंगल और जमीन का उनका बुनियादी हक दिया जाना चाहिए. उन्हें सूदखोरों और अन्य शोषकों से मुक्त करना होगा. इस दिशा में सोच-विचार कर अगर केंद्र एवं राज्य सरकारे मिल कर साझा कदम उठती है तो नक्सलवाद अपने आप दम तोड़ देगा, वैसे भी अनेक नक्सलियों के आत्मसमर्पण के बाद नक्सलियों के मुखिया वैसे भी कमजोर पड़ते जा रहे हैं.

3 COMMENTS

  1. हम सभी आशान्वित हैं …..किंतु अन्दर ही अन्दर रावघाट के भीतरी क्षेत्रों में कुछ सुगबुगाहट है । पता चला है कि लोग गाँव खाली रहे हैं …रेलवे लाइन जो पड़नी है वहाँ । आत्मसमर्पण करने वाले उग्रवादियों (माओवादियों) और विचाराधीन माओवादी बन्दियों के पुनर्वास के लिए कोई योजना दिखायी-सुनायी नहीं पड़ती । हमने कुछ अधिकारियों से इस सम्बन्ध में बात करने की चेष्टा की किंतु कोई हल नहीं निकल सका । इनके पुनर्वास की कोई ठोस योजना हो तो शायद किसी दिन माओवाद बस्तर से बोरियाबिस्तर समेट कर चलता बने । यूँ भी कोई आयातित विचारधारा अधिक समय तक भारत की धरती पर ठहर नहीं सकी कभी । दल्ली-राजहरा से रावघाट और फिर आगे जगदलपुर तक बनने जा रही रेल लाइन के कारण होने वाले लोक-विस्थापन की ठोस योजना के अभाव में माओवादियों को फिर एक ख़ुराक मिलने जा रही है …यह ध्यान रखा जाना चाहिये ।

  2. प्रिय -गिरीश पंकज जी
    बहुत अंतराल के पश्चात समस्या सुलझने के मार्गपर दिख रही है। आप ने अंत में दिए हुए सुझाव भी उचित प्रतीत होते हैं। अच्छा समाचार है।
    संघर्षवादी,संघर्ष को सीढी प्रति सीढी ऊपर(Escalation) ही चढा देता है। उसकी चरम सीढियाँ फिर हिंसा और प्रतिहिंसा में परिणत होती है। १३ हज़ार लोगों की हत्त्या के दोष के मूल में यह ‘वामपंथी उग्रवादी’ “हैं,पथ भूले देशभक्त”।
    गिरीश जी आप के सुझाव पर भी शासन को विचार करना चाहिए।इस समाचार ने आज का दिन आनंदमय कर दिया।
    बहुत बहुत धन्यवाद।

    • अगर नक्सलवाद विचारधारा की लड़ाई है और नक्सली शोषणमुक्त समाज चाहते हैं तो उनके अपने एजेंडे भी होंगे. अगर उनके अनुकूल सरकार निर्णय करती है तो कोई कारण नहीं कि नक्सली हिंसक रस्ते पर चले, अगर बातचीत और आश्वासन के बावजूद वे मुख्यधारा में शामिल नहीं होते तो बलप्रयोग किया जाना उचित होगा।

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