नए मोड़ पर नेपाल

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अरविंद जयतिलक

imagesनेपाल का राजनीतिक भविष्‍य तय करने वाली संविधान सभा का चुनाव संपन्न हो गया। लगभग 70 फीसद मतदाताओं ने अपने अधिकार का इस्तेमाल कर सीपीएन-माओवादी के बहिष्‍कार को नकार दिया है। यह उत्साह रेखांकित करता है कि नेपाल में भले ही राजनीतिक अराजकता और आर्थिक अनिश्चितता का आलम हो, लेकिन नेपाली जनता में लोकतंत्र के प्रति आस्था कम नहीं हुई है। इस चुनाव के जरिए नेपाल 601 सदस्यीय संविधान सभा चुनेगा जो नया संविधान तैयार करेगी। संविधान सभा में 240 सदस्य प्रत्यक्ष मतदान प्रणाली से चुने जाएंगे और 335 सीटों के लिए आनुपातिक मतदान होगा। शेष 26 सदस्य सरकार द्वारा नामित किए जाएंगे। तकरीबन 235 विदेशी पर्यवेक्षकों समेत 23000 पर्यवेक्षकों की निगरानी में संपन्न नेपाल संविधान सभा का चुनाव परिणाम आने लगे हैं। यूनिफाइड कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल-माओवादी के अध्यक्ष पुष्‍प दहल कमल उर्फ प्रचंड और उनकी बेटी दोनों ही चुनाव हार गए हैं। प्रचंड को नेपाली कांग्रेस के नेता केसी राजन के हाथों शिकस्त मिली है। नेपाली कांग्रेस की बढ़त बनी हुई है और वह नंबर एक पर है। नेकपा-यूएमल दूसरे स्थान पर है। यह चुनाव परिणाम इस बात का संकेत है कि नेपाल के लोग माओवादियों द्वारा लाए जा रहे मौलिक और प्रगतिशील एजेंडे पर सहमत नहीं है। उम्मीद है कि कुछ एक दिन में संविधान सभा के सभी परिणाम आ जाएंगे।

अब जब माओवादियों को चुनाव में हार का स्वाद चखना पड़ा है तो वह चुनाव की निश्पक्षता पर ही सवाल उठाने शुरु कर दिए हैं। जबकि यह चुनाव पूरी निष्‍पक्षता से हुए हैं। इस चुनाव में पर्यवेक्षक के रुप में यूरोपिय संघ, कार्टर सेंटर और एशियन नेटवर्क फॉर फ्री इलेक्‍शन जैसे अंतर्राष्‍ट्रीय संगठनों ने अपने प्रतिनिधि भेजे। कार्टर सेंटर की टीम का नेतृत्व तो खुद अमेरिका के पूर्व राश्ट्रपति जिमी कार्टर किया। इसके अलावा दक्षेस देशों, ब्रिटेन, जापान और आस्ट्रेलिया से भी पर्यवेक्षक आए। चुनाव नतीजों के बाद संविधान सभा के लिए चुने गए प्रतिनिधि तब तक कामचलाऊ सरकार का नेतृत्व करेंगे जब तक कि संविधान बन नहीं जाता है। लेकिन मौजूं सवाल यह है कि क्या इस चुनाव से नेपाल का राजनीतिक भविष्‍य तय होगा? कहना अभी मुश्किल है। सिर्फ इसलिए नहीं कि पूर्व प्रधानमंत्री बीपी कोइराला के पुत्र और नेपाली कांग्रेस के नेता प्रकाश कोइराला इस चुनाव से दूर रहे या माओवादियों को करारी शिकस्त मिल रही है। बल्कि इसलिए भी कि 2008 में भी संविधान सभा के चुनाव आयोजित हुए और माओवादियों के सबसे बड़े दल के रुप में उभरने के बाद भी अंतरिम संविधान के मुताबिक दो वर्शों में संविधान का निर्माण नहीं हो सका। जबकि संविधान के प्रारुप पर बातचीत के लिए दर्जनों बार समितियां बनी और इसकी अवधि दो बार बढ़ानी पड़ी। लेकिन दलों के बीच सहमति न बन पाने के कारण संविधान सभा को भंग करना पड़ा। जबकि राजषाही को खत्म करने और सत्ता व्यवस्था में बदलाव के लिए ही माओवादियों समेत सभी दल एक मंच पर आए थे। लेकिन वे न तो राजनीतिक व्यवस्था में सार्थक बदलाव ला पाए और न ही संविधान का निर्माण कर सके। नतीजतन सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश खिलराज रेग्मी को कार्यवाहक प्रधानमंत्री की भूमिका में उतरकर संविधान सभा का चुनाव कराने का निर्णय लेना पड़ा। किंतु सवाल जस का तस अभी भी है कि क्या इस बार संविधान सभा के सदस्यों के बीच संविधान के प्रारुप पर कोई आम सहमति बन सकेगी? इसके आसार कम ही लग रहे हैं। चुनाव के दरम्यान जो मुद्दे सतह पर उभरे उससे भी यही तस्वीर उभरती दिखी कि शायद ही संविधान के प्रारुप पर आम सहमति बन सकेगा। इस चुनाव में नेपाल को पुनः हिंदू राष्‍ट्र घोषित करने की मांग को राष्‍ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी ने हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया। इस दल को नेपाल नरेश का समर्थक माना जाता है। जबकि माओवादी और प्रगतिशील लगातार नेपाल को हिंदू राष्‍ट्र बनाए जाने की मुखालफत कर रहे हैं। हालांकि राष्‍ट्रीय जनतांत्रिक पार्टी को चुनाव में कोई निर्णायक बढ़त नहीं मिल रही है अन्यथा एक बार फिर धर्मनिरपेक्ष बनाम हिंदू राष्‍ट्र अथवा राजतंत्र बनाम लोकतंत्र का मुद्दा गरमा सकता था। इसका असर संविधान निर्माण पर भी पड़ता। उल्लेखनीय यह कि संविधान निर्माण की प्रक्रिया को गति तब मिलेगी जब किसी एक दल को दो तिहाई बहुमत हासिल होगा।

फिलहाल नेपाल में 139 से अधिक दल पंजीकृत हैं और लगभग अधिकांश संविधान सभा के चुनाव में शामिल भी हुए हैं। ऐसे में किसी एक दल को दो तिहाई बहुमत मिलना आसान नहीं होगा। जिन मुख्य दलों पर लोगों की निगाहें हैं उनमें प्रचंड की नेतृत्ववाली एकीकृत कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (यूसीपीएन), झालानाथ खनल की नेतृत्ववाली सीपीएन-यूएमएल, सुशील कोइराला और शेरबहादुर दंडवा की नेतृत्ववाली नेपाली कांग्रेस, राजशाही समर्थक राष्‍ट्रीय प्रजातांत्रिक पार्टी के अलावा मोहन वैद्य किरण की नेतृत्ववाली कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल प्रमुख हैं। लेकिन मुख्य मुकाबला नेपाली कांग्रेस और नेकपा-यूएमएल के बीच ही सिमटता दिख रहा है। इस चुनाव में बहस का दूसरा मुद्दा भारत समर्थन और विरोध भी रहा। आजादी के बाद से ही भारत नेपाल को मदद करता आ रहा है। लेकिन आज स्थिति यह है कि माओवादी भारत के बजाए चीन को तवज्जो दे रहे हैं। यही नहीं नेपाल की राजनीतिक अस्थिरता के लिए भारत को जिम्मेदार भी ठहरा रहे हैं। हालांकि चुनाव से पहले भारत आए माओवादी नेता प्रचंड ने भारत से रिश्‍ते मजबूत करने की वकालत की लेकिन अब चुनाव में शिकस्त खाने के बाद उनका सुर बदल सकता है। वे भारत पर अपने खिलाफ साजिश का आरोप गढ़ सकते हैं। लेकिन भारत की कोशिश जरुर रहेगी कि नेपाल में व्याप्त राजनीतिक अनिश्चितता शीध्र खत्म हो और वहां लोकतांत्रिक ढंग से चुनी सरकार कामकाज संभाले। लेकिन संविधान सभा के चुनाव के बाद भी नेपाल राजनीतिक अस्थिरता से उबरता नहीं दिख रहा है। 1990 में नेपाल में बहुदलीय प्रजातंत्र की स्थापना हुई। दलों के माध्यम से जनता द्वारा निर्वाचित व्यक्ति को सरकार का प्रमुख और राजा को राष्‍ट्राध्यक्ष बनाए रखने पर आम सहमति बनी। राजतंत्र के झंडे के नीचे 1991 में चुनाव हुआ और नेपाली कांग्रेस को बहुमत हासिल हुआ। जीपी कोइराला देश के प्रधानमंत्री बने लेकिन तीन वर्श के दरम्यान ही पार्टी में अंतर्कलह शुरु हो गया। कम्युनिस्टों के उपद्रव-आंदोलन से आजिज आकर उन्हें संसद को भंग करने का निर्णय लेना पड़ा। 1994 में चुनाव के जरिए एक बार फिर लोकतंत्र को आजमाने की कोषिष हुई। लेकिन किसी भी दल को स्पष्‍ट बहुमत नहीं मिला। नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी सबसे बड़े दल के रुप में उभरी लिहाजा उसके नेता मनमोहन अधिकारी देश के प्रधानमंत्री बने। लेकिन वह भी अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सके। इस दौरान जो महत्वपूर्ण बात रही वह यह कि नेपाल में माओवादियों का भय पसरता गया और राजा ज्ञानेंद्र उनकी भय दिखाकर अपनी गद्दी सुरक्षित रखे। लेकिन 1996 में माओवादियों ने हिंसक छापामार युद्ध को अंजाम देकर नेपाल को अराजकता की आग में ढकेल दिया। इस हिंसक आंदोलन में तकरीबन 15000 से अधिक लोग मारे गए। माओवादियों ने नेपाल में भारत विरोधी भावनाओं को भड़काया। नेपाल को भारत का अर्ध औपनिवेशिक देश भी करार दिया। नतीजतन नेपाल में जनक्रांति की स्थिति बन गयी और 2006 में राजा ज्ञानेंद्र को राजगद्दी से हटना पड़ा। संसद तो बहाल हो गयी लेकिन देश को चलाने के लिए संविधान का निर्माण नहीं हुआ। मौजूदा संविधान सभा का चुनाव नेपाल को एक मुकाम दे पाएगा या नहीं यह भविष्‍य के गर्भ में है। लेकिन इतना तय है कि हार के उपरांत प्रचंड और चुनाव बहिष्‍कार कर चुके मोहन वैद्य किरण समेत 33 दल संविधान निर्माण में रोड़े अटकाने का काम कर सकते हैं। आने वाले दिनों में वे चुनाव को रद्द करने और नए चुनाव की मांग कर सकते हैं। चिंता की एक अन्य कारण तराई में मधेषियों का एक मधेश-एक प्रदेश की मांग भी बन सकती है। गौरतलब है कि वे एक अरसे से इसके लिए आंदोलन कर रहे हैं। माओवादियों से उनका टकराव भी नेपाल की षांति के लिए खतरा बन सकता है।

बता दें कि यूनाइटेड मधेशी डेमोक्रेटिक फ्रंट द्वारा नेपाली कांग्रेस को समर्थन दिए जाने के समय से ही माओवादी उन्हें अपने निशाने पर ले रखे हैं। अगर मधेषी दल संविधान निर्माण में नेपाली कांग्रेस की सुर में सुर मिलाते हैं जिसकी संभावना प्रबल है तो निश्चित रुप से माओवादियों और मधेशियों के बीच टकराव बढ़ेगा। चीन भी नेपाल में अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए संविधान निर्माण की राह में रोड़े अटकाने के लिए माओवादियों को उकसा सकता है। वह कतई नहीं चाहेगा कि नेपाल में संविधान का निर्माण हो और भारत की मंशा के अनुसार एक चुनी हुई लोकतांत्रिक सरकार काम करे। देखना दिलचस्प होगा कि नेपाल की नियति में क्या लिखा है।

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  1. नेपाल के माओवादी और भारत के नक्सलीयों के जन्मदाता कौन है, यह अब स्पस्ट हो जाना चाहिए.

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